शुक्रवार, 30 सितंबर 2022

आज विश्व पोस्टकार्ड दिवस है भाई........

                        153 साल का हुआ पोस्टकार्ड

प्रदीप श्रीवास्तव

अगर कहें कि आज पोस्ट कार्ड दिवस है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी . अब तो हर दिन कोई न कोई दिवस मनाने की परम्परा सी चल पड़ी है. इसी श्रृंखला में आज के दिन को 'पोस्टकार्ड का दिन' मना लेते हैं .पोस्ट कार्ड हमारे अतीत का गवाह भी तो रहा है.वहीँ  शादी-ब्याह , मरनी-करनी की ख़बरोंके साथ-साथ न जाने कितने आंदोलनों का साक्ष्य भी. मज़े की बात तो यह है की अस्सीके दशक मैं प्रेम-प्रसंगों का दस्तावेज़ भी था पोस्ट कार्ड.यह वह दौर था जब 'पत्र-मित्रता' अपने चरम सीमा पर थी.युवाओं का तो पूछना ही क्या,अपनी भावनाओं को नीली या काली स्याही से इस छोटे से पोस्ट कार्ड पर उंडेल कर अपने प्रेमी-या प्रेमिका को भेज देते थे.उस समय पोस्टकार्ड की कीमत मात्र पंद्रह पैसे हुआ करती थी. तब भी अंतर्देशीय पत्र व लिफ़ाफे महंगे ही हुआ करते थे.जिसे हर कोई युवा वहन नहीं कर सकता था. 


         पत्र-मित्रता के उस दौर मैं पोस्टकार्ड एक सस्ता एवं सुगम साधन हुआ करता था. मेरे भी कई पत्र-मित्र थे ,कोई नेपाल से था तो कोई बुडापेस्ट (हंगरी की राजधानी) से.भारत के न जाने कितनो शहरों में उनकी संख्या थी.ढलती उम्र में याद नहीं. उन्ही मित्रो में से कोई आज देश के शीर्ष अख़बारके संपादक हैं तो कोई साहित्यकार ,कोई आर्किटेक्ट है तो कोई रंगकर्मी .यह सब पोस्ट कार्ड की ही देन  थी. अस्सी के दशक एवं नब्बे के पूर्वार्ध तक पोस्टकार्ड का बोलबाला हुआ करता था. पोस्ट मैंन के हाथों में डाक के बंडलों में साठ  प्रतिशत पोस्ट कार्डों की संख्या होती थी.जो अब लुप्तप्राय  सी हो चुकी है. डाक घरों में पोस्ट  कार्ड मिलते तो जरुर हैं पर खरीददार नहीं . उन दिनों  जिस पोस्ट कार्ड पर हल्दी का छींटा लगा होता तोसमझ लिया जाता की कोई शुभ समाचार वाला पोस्ट कार्ड आया है ,वहीँ अगर पोस्ट कार्ड कहीं  किनारे से कटा या फटा होता था तो यह जानने में  देरी नहीं लगाती थी कि किसी अशुभ समाचार का प्रतीकहै यह पोस्ट कार्ड .जिसे पढ़ने के तुरंत बाद फाड़ कर नष्ट कर दिया जाता था. पोस्टकार्डों के माध्यम से दशहरा, दिवाली या फिर नए वर्ष की शुभकामनाएं भी भेजी जाती थीं. यह सबसे सस्ता व सुगम साधन होता था. 


      आज से लगभग 153 साल पहले दुनिया का पहला पोस्टकार्ड सन 1869 में आस्ट्रिया में जारी हुआ था .जबकि भारत भारत में पहला पोस्टकार्ड 1 जुलाई 1879 ईस्वी में जारी किया गया था, हल्के भूरे रंग में छपे इस पहले पोस्टकार्ड की कीमत 3 पैसे थी और इस कार्ड पर ‘ईस्टइण्डिया पोस्टकार्ड’ छपा था.  बीच में ग्रेट ब्रिटेन का राजचिह्न मुद्रित था और ऊपर की तरफ दाएं कोने मे लाल-भूरे रंग में छपी ताज पहने साम्राज्ञी विक्टोरिया की मुखाकृति थी . कहते हैं कि साल की पहली तीन तिमाही में ही लगभग 7.5 लाख रुपए के पोस्टकार्ड बेचे गए थे .पता हो कि भारतीय डाकघरों में चार  तरह के पोस्टकार्ड मिलते रहे हैं - मेघदूत पोस्टकार्ड, सामान्य पोस्टकार्ड, प्रिंटेड पोस्टकार्ड और कम्पटीशन पोस्टकार्ड. ये क्रमशः : 25 पैसे, 50 पैसे, 6 रुपये और 10 रुपये में उपलब्ध हैं . कम्पटीशन पोस्टकार्ड फिलहाल बंद हो गया है  इन चारों पोस्टकार्ड की लंबाई 14 सेंटीमीटर और चौड़ाई 9 सेंटीमीटर होती है . जब कि पहला चित्रित पोस्टकार्ड फ्रांस ने 1889 में जारी किया था और इस पर एफिल टावर अंकित था .

    पोस्टकार्ड का विचार सबसे पहले ऑस्ट्रियाई प्रतिनिधि कोल्बे स्टीनर के दिमाग में आया था, उन्होंने इसके बारे में वीनर नॉस्टो में सैन्य अकादमी में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर डॉ. एमैनुएल हार्मोन को बताया।  उन्हें यह विचार काफी आकर्षक लगा और उन्होंने 26 जनवरी 1869 को एक अखबार में इसके बारे में लेख लिखा। ऑस्ट्रिया के डाक मंत्रालय ने इस विचार पर बहुत तेजी से काम किया और पोस्टकार्ड की पहली प्रति एक अक्टूबर 1869 में जारी की गई। यहीं से पोस्टकार्ड के सफर की शुरुआत हुई। दुनिया का यह प्रथम पोस्टकार्ड पीले रंग का था।  इसका आकार 122 मिली मीटर लंबा और 85 मिली मीटर चौड़ा था।  उसके एक तरफ पता लिखने के लिए जगह छोड़ी गई थी, जबकि दूसरी तरफ संदेश लिखने के लिए खाली जगह छोड़ी गई।  आस्ट्रिया में यह इतना लोकप्रिय हुआ कि इसकी देखा देखी अन्य देशों ने भी इसे अपनाने में देरी नहीं की .मालूम हो कि पोस्टकार्डों के संग्रहणऔर अध्ययन को अंग्रेजी में डेल्टियोलॉजी कहते हैं. 


 

शुक्रवार, 23 सितंबर 2022

चाय मैं गुण बहुत,जो पिए वही जाने ......


       प्रदीप श्रीवास्तव

      आज 21 सितम्बर है,कहते हैं कि आज "भारतीय चाय दिवस" है. इसका कारण मुझे अभी तक  समझ में नहीं आया .सुबह से खोज रहा हूँ,कई लोगों से पूछा भी ,लेकिन समाधान नहीं हो पाया .चाय की कथा भी भक्तिकाल के भक्त- कवि तुलसीदास के कथन हरि अनन्त, हरि कथा अनन्ताजैसी ही है. इसका इतिहास वाकई काफी रोचक है. भारत में तो चाय को लेकर एक जुनून है और इसके नाम से ही चाय पीने की तलब सी पैदा हो जाती है. सामाजिक समरसता का भी उदाहरण है चाय, क्योंकि क्या गरीब क्या अमीर, क्या राजा क्या प्रजा और क्या नेता और क्या अभिनेता, सभी चाय के तलबगार हैं. संबंधों तक में चाय ने पैठ बना ली है. किसी के घर जाओ और चाय न मिले तो उसे अनादर माना जाता है. लोग कहते मिल जाएंगे कि मैं उसके घर गया और उसने चाय तक नहीं पूछी.यानी उसकी बेज्जइती हो गई. एक समय था जब  गांव वाले अपने बच्चों को चाय नहीं पीने देते थे. वे बच्चों को डराते थे कि चाय पियोगे तो तुम्हारा कलेजाजल जाएगा. लेकिन अब चाय के साथ मसला क्रांतिकारी हो चुका है. ऐसा माना जाता है कि करीब 80 प्रतिशत भारतीयों की सुबह की शुरुआत गरमा-गरम चाय की प्याली से होती है. काम में मन न लग रहा हो, सिर या शरीर में दर्द हो, नींद को दूर रखना हो या वक्त ही बिताना हो तो चाय जैसी कोई चीज नहीं.

           चाय का मैं भी बचपन से शौकीन हूँ या यह कहिये कि 'लत' सी लगी हुई है .बिना चाय पिये रह नहीं सकता ,चाहे खाना न मिले. यह लत कैसे लगी इसका कारण आज तक नहीं पता लग पाया . बचपन से ही चाय का आदि रहा हूँ. अम्मा से चाय बनाने के लिए कभी नहीं कहा कि 'अम्मा चाय बना दो, बस एक इशारे पर अम्मा समझ जाती थीं,और बुदबुदाते हुए बिना किसी न-नुकुर के बना देती. गुस्सा भी बहुत होती थीं . ईशारा होता था ,  दायें हाथ के अंगूठे एवं बीच की अंगुली को लगभग आधे इंच की दूरी के बीच रख कर ईशारा करना ,जिसे वह समझ जाती थी की मुझे चाय की तलब लगी है. मज़े की इसका ईशारा होता था कि 'आधी कप चाय'.

          इसके लिए बाबू बहुत गुस्सा करते थे अम्मा पर , की  इतना चाय पीता है ? क्यूँ बना कर देती हो. बाबू ही नहीं भाई बहन भी उन पर नाराज़ होते .  ख़ैर जब बनारस पढ़ने गया तो ,खुद ही बना कर पीने की आदत हो गई .फिर तो रोकने-टोकने वाला था ही नहीं .पर दूध तो महंगा ही था मेरे लिए. फिर भी जो दूध आता था उसी में भरपूर चाय पीता भी और पिलाता भी .तब फ्रिज़ तो था नहीं दूध को शाम तक चलाना है,जिसके लिए एक बड़े बर्तन में पानी भर कर उसमें दूध वाला बर्तन रख देते ,ताकि वह गर्मी से फट न जाये. क्यों कि बनारस में हम दोनों भाई अकेले रहते थे ,तो दोस्तों का जमावड़ा भी रहता था. जिसका मन हुआ ,उठा और चाय बनाकर पिया और पिलाया . कभी-कभी छोटा भाई दुखी होकर दूध के बर्तन को ऊपर बने टाड छिपा कर रख देता. जब दोस्त पूछते की दूध कहाँ रखा है ,हम लोगों के कहने पर कि आज नहीं आया .इस पर वह विश्वास ही नहीं करते , पूरे घर को सी.बी.आई /सी.आई .डी. की छापे की तरह छान मारते. मिल जाने पर इतना खुश होते कि मानो कहाँ की जन्नत मिल गई हो.

         सही बोलूं तो चाय के लिए रात मैं पढ़ने का भी बहुत  नाटक किया है . चाय के लिए देर रात तक जागता  था ,उस समय हम लोगों के पास  एक छोटा सा स्प्रिट का स्टोव’ (बहुत से लोगों को इसके बारे में पता भी नहीं होगा, इसमें मिट्टी का तेल / केरोसिन नहीं,स्पिरिट डाल कर जलाया जाता था.) होता था ,जिस पर एक छोटे से पतीला या यूँ  कहें  भगौना में चाय बनानी होती थी. इस स्टोव को मेरे मामा ने अम्मा को दिया था, जब मेरी छोटी बहन का जन्म हुआ था, रात-बिरात पानी या दूध गर्म करने के लिए . सच में बहुत अद्भुत था वह स्टोव. उसके बाद से पांच दशक हो गए कहीं मुझे नहीं दिखा उस तरह का स्टोव.     

     हाँ बात चाय की हो रही थी, काफी समय बनारस में बीता,तो चाय की अड़ी पर इकठ्ठा होना , हर मुद्दे की चर्चाओं में प्रतिभागी बनना भी कोई आसान कम नहीं होता था. एक कप चाय के लिए लंका क्या रामनगर किले तक चले जाया करते थे ,तब स्कूटर /मोटर साइकिल तो होती नहीं थी,वही साइकिल ही तो था  जीवन का  आधार . सभी मित्र चाय के दीवाने ,अगर कहीं जाना होता (उन्हें या मुझे) तो ऑफर दिया जाता कि चाय के साथ समोसा भी खिलाऊंगा .फिर क्या दस-पांच किलोमीटर की साइकिल यात्रा पक्की ,चालक भी पक्का. लहुराबीर पर गायत्री मंदिर के बगल, क्वींस कालेज के कार्नर ,प्रकाश टाकिज परिसर ,कबीर चौरा पर पिपलानी कटरा के बगल ,नगरी नाटक मंडली के सामने ,मैदागिन,गोदौलिया पर बंगाली दादा की दुकान ,अस्सी,सोनारपुरा ,भदैनी ,बीएचयू गेट .सिगरा,पर चाय की अड़ी तो लगाती ही थी,जहाँ पर बुद्धिजीवियों का जमघट लगता,जिसमे कवि होते ,पत्रकार होते , विभिन्न राजनितिक पार्टियों के नेता होते ,देश दुनिया की समस्यों का समाधान चुटकी बजाते ही कर लिया जाता ,जिस अख़बार ने समाचार नहीं छपा उसके रिपोर्टरों व संपादकों को बैठे तमाम बनारसी उपाधियों  से सम्मानित कर दिया जाता. अगले दिन उसी सम्पादक के केबिन वही उपाधि देने वाले महानुभाव अपना समाचार हो या रचना लिए अनुनय-विनय करते दिख जाते. अगर उस दिन छप गई तो वह रिपोर्टर या संपादक से बड़ा पत्रकार पूरी दुनिया मैं होता था. उनकी प्रसंशा में इतने कसीदे पड़े जाते की पूछिये मत. बात जो भी हो चाय का ही कमाल होता था, सभी को जोड़ने का ,परखने का ,भाई-चारे को बनाये रखने का.

              काशी  विद्यापीठ में पढ़ता था, मुख्य गेट के सामने ठकुराइन चाची की चाय की दुकान तो थी ही,जिसके बारे मैं आपन पढ़ा ही है ,इधर समाज विज्ञानं संकाय के ठीक पीछे एक छोटी सी चाय की अड़ी (दुकान) खुली थी .वहां पर छात्रों का भरी जमघट लगता था. उन्हीं दिनों वाराणसी कैंट स्टेशन से मैमूरगंज त्रिमुहानी (तिराहे) तक सड़क के बीच  डिवाइडर (सड़क विभाजक) बना था, समाजविज्ञान संकाय किए पीछे वाली चाय की दुकान बहुत छोटी सी थी,जहाँ  खड़े होने की क्जगाह नहीं थी ,बैठने की सोचना ही छोड़ दीजिये. उस  डिवाइडर पर बैठ कर चाय पीने की परंपरा भी हमी लोगों ने की थी. अब तो शायद वह चाय की दुकान भी नहीं रही.

           बताता चलूँ  कि चाय की अड़ी पर बैठने की वजह से मुझे आजअख़बार की नौकरी मिली थी. हुआ यूँ  कि  काशी  विद्यापीठ  अर्थशास्त्र में एम.ए करने  के बाद वहीँ से पत्रकारिता में स्नातक किया ,जुलाई का महिना  था ,रिजल्ट निकल चुका था,पास भी हो गया था. रोज की तरह एक शाम लहुराबीर पर क्वींस कालेज के मोड़ वाले अड़ी  पर ऍम सभी चाय पी रहे थे ,तभी उधर से अपनी स्कूटर पर आजअख़बार के संपादक श्री पाठक जी गुजर रहे थे ,तभी उनकी निगाह मेरे आर पड़ी , वह रुके और पूछा की यहाँ क्या हो रहा है, रिजल्ट कैसा रहा . उन दिनों वह काशी विद्यापीठ पत्रकारिता विभाग के मुखिया भी हुआ करते थे. मैं रिजल्ट के बारे मैं बताया ,और उनसे चाय पिने का आग्रह भी किया,लेकिन उन्होंने मन करते हुए कहा की कल सुबह ठीक 11 बजे मुझे अख़बार के आफिस में आ कर मिलो. दुसरे दिन मैं उनके बताये समयनुसार आजअख़बार के कार्यालय में मिला ,तो आज तक वही कलम घिस रहूँ.

            चलते-चलते  चाय के इतहास पर तो नज़र डाला ही नहीं, बाबु बताते थे कि अग्रेजों ने ही भारतियों क चाय की लत  लगाई .चालीस-पचास के दशक नें हर सुबह फैजाबाद (अब अयोध्या) में पीतल के कैन मैं बनी-बनाई चाय भर कर हर मोहल्ले  मैं मुफ्त वितरित किया जाता, इस तरह से जाते-जाते अंग्रजी प्रशासन ने चाय की आदत हम भारतियों मैं लगाई .

             लेकिन ये  भारतीय पेय नहीं है ,यह तो चीन से आई है  इस संदर्भ में  यह प्रसंग काफी रोचक और अनगढ़ है. कहते हैं कि चाय की खोज ईसा पूर्व 2737 में चीन के सम्राट शेन नुंग ने की. वह उबला पानी पीते थे, एक बार लाव-लश्कर के साथ जंगल से गुजर रहे थे. रास्ते में आराम के वक्त पीने के लिए पानी उबाला जा रहा था कि बर्तन में पेड़ की कुछ पत्तियां गिर गईं, जिससे पानी का रंग बदल गया. इसे पिया गया तो ताजगी महसूस हुई. इसे ही चाय कहा गया. लेकिन उसके बाद करीब 2 हजार साल तक ये चायचीन में नदारद रही जो विस्मय पैदा करता है. वहीं दूसरी कथा के अनुसार छठवीं शताब्दी में चीन के हुनान प्रांत में भारतीय बौद्ध  भिक्षु बोधि धर्म बिना सोए ध्यान साधना करते थे.  वे जागे रहने के लिए एक ख़ास पौधे की पत्तियां चबाते थे और बाद में यह पौधा चाय के पौधे के रूप में पहचाना गया.


बुधवार, 29 जून 2022

बात निज़ामाबाद-धर्माबाद के बीच बड़ी रेल लाइन की


 बात शिवसेना की ,सन 2003 की बात होगी ,मैं औरंगाबाद से आंध्र प्रदेश (तब तेलंगाना नहीं बना था)के एक हिंदी दैनिक में निज़ामाबाद संस्करण का प्रभारी बन कर आ गया था. उन दिनों आन्ध्र प्रदेश के तेलंगाना क्षेत्र में दो गतिविधियाँ चरम पर थी,पहली पूरे प्रदेश में नक्सली एवं दूसरी हैदराबाद से धर्माबाद (मराठवाड़ा का अंतिम रेलवे स्टेशन जो तेलंगाना के बासर क्षेत्र को जोड़ता है) के बीच छोटी लाईन  से बड़ी लाईन में परिवर्तन का. इधर हैदराबाद से निज़ामाबाद तक बड़ी लाईन पूरी हो चुकी थी ,उधर मनमाड से धर्माबाद तक. काम रह गया था केवल धर्माबाद से निज़ामाबाद (लगभग साठ किलोमीटर) तक का.

धर्माबाद के लोगों की मांग थी नांदेड से मुंबई के बीच चलने वाली देवगिरी एक्सप्रेस को धर्माबाद से चलाई जाये,क्यों की उन्हें इस बात की शंका थी बड़ी लाईन का काम पूरी होते ही यह गाड़ी सिकंदराबाद से चलने लगेगी ,जो आज चल भी रही है .जिसके एवज में रेल मंत्रालय ने नांदेड से मुम्बई के बीच चलने वाली मराठवाडा एक्सप्रेस को धर्माबाद तक से परिचालन किया ,यथावत परिचालन जारी है भी.

हाँ ,धर्माबाद से निज़ामाबाद के बीच बड़ी लाईन का काम  दक्षिण-मध्य रेलवे को इस लिए रोकना पड़ा कि धर्माबाद में शिव सैनिकों स्लीपर से लादे सैकड़ों ट्रक को वहीँ पर रोक लिया था.यह बात दोनों जिलों (नांदेड एवं निज़ामाबाद)के प्रशासन के लिए गले की फांस बन गया था.मामला शिव -सैनिकों का था. दोनों जिलों के प्रशासनिक मुखिया से कहा गया कि यदि इस मामले मैं मैं मध्यस्थता करूँ तो शायद कोई समाधान निकल सके.इसके लिए मुझसे संपर्क किया गया. हर तरह के सहयोग का आश्वासन भी.

दूसरे दिन निज़ामाबाद के एक उधोगपति के सहयोग से प्रेस प्रतिनिधियों का एक दल लेकर धर्माबाद पहुंचा,इस बीच मेरे अख़बार के संवाददाता ने यह जानकारी वहां के शिव सैनिकों को पहले ही दे दी थी,जब आंध्र प्रदेश के प्रेस प्रतिनिधियों का दल धर्माबाद रेलवे स्टेशन पहुंचा तो देखा कि वहां पर लाठियों-डंडों के साथ-साथ अन्य हथियारों से लैस करीब तीन से चार सौ शिवसैनिकों का जमावड़ा पहले से ही मौजूद थाआन्ध्र प्रदेश से गए पत्रकारों की यह देख हालत ख़राब,कब क्या हो जाये किसी को पता नहीं . उधर रेलवे स्टेशन पर स्थानीय लोगों का क्रमिक अनशन चल ही रहा था,जिसमें हर वर्ग के लोग शामिल थे.

 आन्ध्र प्रदेश के पत्रकारों को देख शिव सैनिकों का गुस्सा सातवें आसमान पर,वापस जाओ के नारे लग रहे थे. इसी बीच सामने से मुझे धर्माबाद नगर पालिका अध्यक्ष एवं शिव सेना के तहसील प्रमुख सुरेन्द्र बेलकोंणीकर आते दिखे ,में वहां से निकला ही था की उन्होंने ने मुझे देख लिया ,और मेरे पास आये,और गले लगा लिया,यह देख उत्तेजित शिव सैनिकों को आश्चर्य हुआ,इसी बीच  नारे बाज़ी भी बंद होगी ,सुरेन्द्र के साथ हम सभी नगर पालिका में उनके चेंबर मे गए और स्लीपर के मुद्दे पर बात शुरू हुई ,वह ट्रकों को छोड़ने के लिए राज़ी नहीं थे. इसी बीच इस मामले को लेकर दक्षिण मध्य रेलवे के वरिष्ठ अधिकारियों के साथ-साथ दोनों जिलों के कलेक्टर से बात करवाई गई. जिसमें उनकी कुछ शर्तें भी थीं,जिस पर सहमति बनी और सुरेन्द्र बेलकोंणीकर ने ट्रकों को रिलीज़ करने का आश्वासन दिए. लगभग छह माह में धर्माबाद निज़ामाबाद के बीच बड़ी लाईन का कार्य पूरा हुआ,जिस पर आज दर्जनों गाड़ियाँ देश के कई प्रमुख शहरों के लिए दौड़ रही हैं. 

मैं और शिवसैनिक से संबंध

एक समय था पूरे महाराष्ट्र में शिवसेना की तूती बोलती थीबिना 'मातोश्रीके ईशारे पर पूरे प्रदेश में कुछ भी संभव नहीं थाबाला साहब कभी भी अपने मातोश्री से बहार नहीं निकले,लेकिन उनके इशारे पर ही (किसी की भी सरकार रही हो )सरकार चलती थी ,इससे कोई भी इंकार नहीं कर सकता. मैं ने सन 1992 से 2012 यानी बीस साल तक शिव सेना को ,कि गतिविधियों को बहुत निकट से देखा है.मराठवाडा के छोटे बड़े सभी शिवसैनिकों का साथ भी मिला.1993 में मराठवाडा विश्वविध्यालय के नामांतरण का प्रत्यक्षदर्शी गवाह रहा ,जब देर रात मराठवाड़ा विश्वविध्यालय का नाम बदल कर 'डॉ भीमराव आंबेडकर मराठवाड़ा विश्वविध्यालयकिया गया था. जिसका विरोध पुरजोर से सथानीय लोग कर रहे थे.उस रात उसी विश्वविध्यालय के मुख्य गेट पर मैं और पूर्व कांग्रेसी सांसद (जो उन दिनों बालासाहब के काफी निकट के तो थे ही ,साथ ही शिवसेना के मुखपत्र 'दोपहर का सामनाके संपादक भी थे) संजय निरुपम भी बदलते इतिहास को अपनी नंगी आँखों से देख रहे थे,उसी वक्त मराठी सामना के संपादक संजय राउत (संसद तो हैं ही ,जिनकी चर्चा जोरो पर है )औरंगाबाद के सामना कार्यालय में इस गतिविधियों पर अपनी नज़र गढ़ाए हुए थे.सौभाग्यशाली हूँ कि बालासाहब से मिलाने का भी अवसर मिला. ख़ैर इस पर चर्चा फिर कभी ...

बुधवार, 22 जून 2022

घुघरी और हम भाई-बहन

 अयोध्या और मै -9

बात साठवें दशक की है,जन्मा तो फैजाबाद (अब अयोध्या) में ,लेकिन प्राथमिक शिक्षा बनारस में हुई ,वहीं लहुराबीर पर क्वींस कालेज के ठीक बगल के प्राथमिक पाठशाला में .बाबू उत्तर प्रदेश राजस्व विभाग में थे,सरकारी नौकरी वह भी तबादले वाली ,हर तीन साल के बाद तबादला . फैजाबाद के बाद बनारस तबादला हो गया . कुछ दिन नदेसर के पास घौसाबाद में एक स्टेशन मास्टर के घर में किराये पर रहे ,घर क्या एक कमरा,एवं बरामदा था बस.कुछ ही दिन वहां रहे होंगे कि इसी बीच  वाराणसी नगर पालिका ने निम्न आय वर्ग के लोगों के लिए लहुराबीर पर पिशाच मोचन घाट के पास दो मंजिला क्वार्टर बनवाए थे . बाबू ने उनमे से एक क्वार्टर अपने नाम एलाट करवा लिया था .जहाँ तक मुझे याद आ रहा है कि उसकी सिक्योरिटी राशि 65 रुपये जमा हुई थी.जिसका मासिक किराया था पांच रुपये.

   उस समय बाबु की तनखाह थी मात्र 60 रुपये.उसमे पांच बच्चों का पालन पोषण के साथ-साथ धार्मिक नगरी आने वाले रिश्तेदारों का आवभगत भी करना . ख़ैर साहब इसके लिए अम्मा का कोई जवाब नहीं रहा होगा ,कैसे चलाती रहीं होगी घर को. आज तो हर रोज़ दंगा हो जाये.भईया ,जिज्जी और मै पढ़ने भी जाते थे ,छोटा भाई और बहन बहुत छोटे थे.

  यह इसलिए लिख रहा हूँ कि कल 'काले चने की घुघरी' खाई ,उसके खाने के साथ-साथ बचपन की सारी तस्वीरें एक-एक कर मस्तिष्क पटल पर अंकित होती गई. वैसे बनारस में सुबह 'कचोरी' के साथ आज भी काले चने की स्वादिष्ट 'घुघरी' मुफ्त में दी जाती है,जिसके स्वाद को बयां नहीं कर पा रहा हूँ. हाँ तो बात घुघरी की चल रही थी,घुघरी खा कर कई -कई दिन हम भाई-बहनों ने काटे हैं.यह कहने मैं मुझे जरा सा भी संकोच नहीं हो रहा है,अगर आप ने अपने अतीत को भुला दिया तो आप को मानव योनी मैं रहने का कोई अधिकार नहीं है.

    साठ रुपये की तनखाह ,पांच बच्चों को पालना को आसान कम तो रहा नहीं होगा .काला  चना बहुत अधिक महंगा भी नहीं रहा होगा.इसी लिए आम घरों में अधिक उपयोग किया जाता रहा होगा.घुघरी के साथ-साथ अम्मा दूध भी देती थीं . उसके पीछे की कहानी  अक्सर  हम लोगों को बताया करती थी कि दूध की मात्रा सीमित होती थी ,इसलिए उसमें आटे को मिलकर घोल देती थी,ताकि कोई बच्चा भूखा न रहे. अब सोचता हूँ कि वह और बाबू क्या खाते रहें होंगे. ऐसा भी नहीं था कि गावं में खेती-बाड़ी नहीं थी, गाँव गोंडा जिले के नवाबगंज में है,तब बनारस -फैजाबाद के बीच आवागमन के इतने साधन भी नहीं रहे होंगे.इस लिए वहां से लाता कौन ? आज न तो अम्मा हैं न ही बाबू  ,लेकिन उनकी यादें बार-बार मन को झकझोर कर रख देती हैं.कितना कष्ट सहा होगा उन लोगों ने. आज हम झट मोबाईल उठाये और खाने -पीने का आर्डर दे दिया,दस मिनिट में पका-पकाया खान आप के घर के दरवाजे पर. सच पिछले साठ सालों में कितना कुछ बदल गया है,या यूँ कहें एक नई दुनिया का निर्माण हुआ है. 

(नीचे के चित्र में बाबू अपने दोस्तों के साथ पीछे खड़े हुए । चित्र उस समय का है जब वह कानपुर विश्वविध्यालय में बी॰ ए॰ प्रथम वर्ष में थे। ) 


शुक्रवार, 10 जून 2022

भिश्ती और हिन्द बिस्कुट वाले बाबा

अयोध्या और....8 

बात 70 के दशक की है , बाबू  का तबादला गोरखपुर से फैजाबाद (जिसे अब अयोध्या कहते हैं ,पहले अयोध्या एक क़स्बा था फैजाबाद का) हो गया . जहाँ  तेली टोला मोहल्ले में पैतृक मकान है ही. बाबा ,दादू (दादी को हम सब बच्चे दादू ही कहते थे) चाचा-चाची का परिवार था ही . सुबह छः - सात बजे उठा दिया जाता .उठ कर बरामदे में आ कर बैठ जाते. उस समय लगभग हर घर में बरामदा जरुर होता था (अब तो लोगों ने उसे बंद करके कमरे का उपयोग करने लगे हैं.)जिससे पुराने मकानों की शोभा पर भद्दा सा दाग लग गया है .

हाँ तो बरामदे में बैठे रहते,इसी बीच एक भैसा गाड़ी आती जो दो पहियों पर होती ,उसमें बड़ा टैंक होता ,जिसमें हर घर का पाखाना भरा जाता . नई पीढ़ी को तो इसकी जानकारी ही नहीं होगी .उसका भी अलग मज़ा होता .हर घर के पीछे के हिस्से में खुड्डी नुमा पखाने बने होते ,वह भी एक नहीं कम से कम चार तो होते ही थे.जिनके बीच मैं एक दीवार सी होती.सभी एक दूसरे से बात तो कर सकते थे,लेकिन देख नहीं सकते थे. इसी बीच मल्ल (उसे भी एक नाम से पुकारते थे लेकिन अब उस नाम का उल्लेख करना विवाद का मुद्दा बन सकता है.)उठाने वाला आता और
अपने एल आकर के यंत्र से पीछे से ही खींच लेता और उस भैंसा गाड़ी मैं डाल देता .फिर उसे कहाँ ले जाते यह आज तक नहीं जान सका. जब भैंसा गाड़ी चली जाती तो थोड़ी देर बाद एक व्यक्ति अपने कंधे पर किसी जानवर के खाल नुमा बैग में पानी भर कर लाते और घर के बहार की नालियों में डालते जाते. जिससे नाली साफ़ होती रहती थी.यह प्रक्रिया रोज की थी. समय बदला
,तकनीकी बदली ,आज सब कुछ बदल गया. जहाँ तक अपने मस्तिष्क पर जोर दाल रहा हूँ तो इतना याद आ रहा है कि सन 1973-74 तक तो देखा ही है.

 हाँ बात हिन्द बिस्कुट वाले बाबा की ,हर सुबह लगभग 60 के उम्र के एक वृद्ध बाबा अपने कंधे पर एक बड़े से लोहे के बक्सा लेक चलते और बोलते जाते,'हिन्द बिस्कुट '.हर सुबह लगभग हर घर के बाहर वह रुकते. उनके बक्से में उस समय बेकारी के तरह-तरह के स्वादिष्ट बिस्कुट ,खारा एवं डबल रोटी ,जिसे अब अंग्रेजी मैं हम ब्रेड कहते हैं,होता था. उन्ही के हमउम्र के मेरे बाबा भी थे,सो उनके साथ काफी बैठती थी.घंटो दोनों लोग आपस में बतियाते रहते.इस बीच जिसको  बिस्कुट या डबल रोटी लेना होता वह मेरे घर के बरामदे में आ जाते. अब न दोनों बाबा रहे,न बिस्कुट का वह स्वाद .बस सब यादों की कब्र में समाहित हो गईं बातें ही रह गईं .   


शुक्रवार, 22 अप्रैल 2022

रजनी के आगोश में सिमटा 'चारबाग स्टेशन' का सौन्दर्य




हते हैं कि एक समय था जब पश्चिम में सूर्यास्त होता तो अवध (लखनऊ)की शाम तवायफों के नृत्य एवं पुराने शहर की गलियां लजीज़ व्यंजनों की खुशबु से गुलज़ार हो उठती. समय बदला ,नवाबी काल गया , अंग्रजों ने हुकूमत संभाली ब्रिटिशों ने तो हज़रतगंज को तवज्जो दी . अंग्रेज गए,एक नए लखनऊ ने जन्म लिया .समय के साथ बहुत कुछ बदल गया.रह गईं नवाबों की गुम्बद व मीनारों वाली ऐतिहासिक धरोहरें . इन सबके साथ ब्रिटिश हुकूमत द्वारा बनवाई गई चारबाग रेलवे स्टेशन ,जिसे स्थापत्य कला का बेहतरीन नमूना कहा जाता है. चारबाग स्टेशन का नक्शा बनाया था उस समय के प्रसिद्ध वास्तुकार जे.एच. हर्नी मैन ने. बिशप जॉर्ज ने मार्च 1914 को इसकी बुनियाद रखी थी,जो 1923 में बनकर तैयार हुआ था. मतलब पूरे 9 साल लगे थे.उस समय इस स्टेशन के निर्माण पर 70 लाख का खर्च आया था. जहाँ पर आज चारबाग स्टेशन खड़ा है,यह जगह कभी मुन्नवर बाग़ के नाम से जाना जाता था.
चारबाग स्टेशन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि स्टेशन भवन के बहार ट्रेनों के संचालन एवं यात्रियों के शोरगुल की आवाज़ तनिक भी नहीं आती है. वहीं दूसरी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि स्टेशन परिसर में प्लेट फार्म नंबर तीन पर ऊपर से देखने पर भवन के ऊपर छतरीनुमा छोटे - बड़े गुम्बद शतरंज की बिछी बिसात की तरह लगते हैं .
स्वतंत्रता के 75 वें वर्ष में चारबाग स्टेशन का सौन्दर्य देखते बनता है ,विशेषकर रजनी के आगोश में. पश्चिम में सूर्यास्त के साथ ही पूरा स्टेशन परिसर कृत्रिम प्रकाश से जगमगा उठता है,फिर पल-पल में बदलते रंग मन को मोह लेते हैं. जब आप इस पल को अपनी नंगी आखों से देखेंगे तो ही उस सुखद अनुभव को जी सकेंगे.
दो दिन पहले बिटिया को छोड़ने स्टेशन गया था ,जब गया था तो शाम हो रही थी ,लेकिन स्टेशन से बाहर निकला तो रात हो गई ,मतलब अपनी पुरानी परम्परा के अनुसार ट्रेन लेट हो गई. पत्रकारिता का कीड़ा और फोटो खींचने की ललक के चलते अपने को रोक नहीं सका.साधारण से मोबाइल में उन लम्हों को संजो लिया आप के लिए.

मंगलवार, 5 अप्रैल 2022

बनारस में तीन दिन

 


किसी ने कहा है-

ख़ाक भी जिस जमीं की परस है ,

शहर  मशहूर यह बनारस है .

आज मैं उसी शहर बनारस में हूँ...

काशी,वाराणसी या फिर कहें 'बनारस', जहाँ के लोगों का विश्वास है कि पृथ्वी शेषनाग के फन पर और बनारस बाबा भोलेनाथ के त्रिशूल पर टिकी है. शायद यही कारण है की यहाँ गंगा उत्तरवाहिनी हैं,इस लिए भूकंप नहीं आता.कभी-कभी भगवान शंकर जब त्रिशूल पर पीठ टेक देते हैं ,तब यहाँ की जमीन कुछ हिल जाती है.

अद्भुत है बनारस ,तभी तो कहा जाता है कि बनारस ने जिसे अपना लिया ,वह जीवन भर वहीं  का हो कर रह जाता है. इसी गंगा की गोद में मैं ने अपने जीवन के स्वर्णिम ग्यारह साल बिताये है,यही कारन है कि आज भी बनारस के मोहपाश से छुट नहीं सका हूँ.दसवीं से परास्नातक,पत्रकारिता मैं स्नातक के साथ-साथ आज अख़बार की नौकरी इसी शहर मैं रहकर की है.

बनारस की गलियों का चप्पा-चप्पा साइकिल व पैदल से चलकर छाना है. 1978  की भयंकर बाढ़ की विभीषिका को इन्हीं नंगी आँखों से देखा है. जब नई सड़क तक गंगा नदी का उफान आया था,जहाँ से बचाव कार्य के लिए नावें चलीं थीं , काशी स्टेशन के निकट रेलवे पुल को गंगा का जल स्तर स्पर्श कर गया था.आपातकाल को इसी शहर में रहकर देखा,जयप्रकाश नारायण जी के आंदोलन को ,आरक्षण विरोधी आन्दोलन का इसी शहर में  ही रहकर उसका हिस्सा बना था. कैसे भूल सकता हूँ भगवन शंकर की इस नगरी को. शायद यही कारण है कि न तो मैं और न ही मां गंगा मुझे इस शहर से विसरित नहीं होने देना चाहती हैं.

कहते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में काफी बदल गया है बनारस . आधुनिकता के आवरण में बनारसीपन की पहचान लुप्त होती जा रही है.बनारस की संस्कृति के साथ खिलवाड़ हो रहा है,इन्हीं को कोरे कागद पर सनद के रूप में समेटने तो आया हूँ 

देश में पहली हड़ताल बनारस में  हुई थी.....

बहुत ही कम ही लोगों को पता होगा कि भारत (हिंदुस्तान)में पहली हड़ताल 24 अगस्त 1790 ई. में बनारस में हुई थी,जिसका कारण था गंदगी . केवल इसी बात के लिए ही नहीं 1809 में जब पहली बार गृह कर लगाया गया ,उस समय बनारसियों ने अपने मकानों में ताला लगा कर मैदानों में जा बैठे थे. इतिहास इस बात का गवाह है कि शारदा बिल , हिंदू कोड बिल,हरिजन मंदिर प्रवेश,गल्ले पर सेल टैक्स एवं गीता कांड पर पहली बार ही बनारस में ही हड़ताले व प्रदर्शन हुए थे. जिसका सीधा सा मतल निकल सकते हैं की बनारसी सदा से आजाद रहे हैं ,उन्हें किसी दखलंदाज़ी पसंद नहीं है.

चलते-चलते दो लाइन ...

चना चबैना गंग जल जो पुरवे  करतार |

काशी कभी न छोड़िए विश्वनाथ दरबार ||


बनारस के बारे में ये दो लाईने बहुत प्रसिद्ध है-

रांड, सांड , सीढ़ी ,सन्यासी

इनसे बचे तो सेवे काशी .

 सच में  बनारस अपने आप में अद्भुत शहर है. शहर में हर चार-पांच दुकानों के बाद आप को एक पण की दुकान मिलेगी .मोहल्लों के मकानों ,गलियों और सड़कों पर पान की पीक ,मानों होली खेली गई हो. बनारस आयें तो लंका का नाम न सुने,यह हो ही नहीं सकता ,अरे बाबा रावन वाली लंका नहीं ,मदन मोहन मालवीय जी वाली लंका,एक मोहल्ले का क्या सड़क का नाम है लंका,जिस पर स्थित है बनारस हिन्दू विश्विद्यालय ,वही लंका . जो शैव के त्रिशूल वाला चौराहा है. कितना अजीब लगता है सुनकर. इस चौराहे से एक सड़क संकट मोचन को जाती है तो दूसरी अस्सी की ओर,जबकि तीसरी सड़क राम नगर की और निकलती है . जो त्रिशूल का आधार दंड है उस पर स्थित है सर्वविद्या की राजधानी बीएचयू .है न अजीब शहर ,जिसे समझाना इतना आसान भी नहीं.



 सुबह-ए-बनारस, 

अवध की शाम 

और मालवा की रात...

  सचमुच बनारस की सुबह को जब आप अपनी नंगी आँखों से देखेंगे , तो उसके सौंदर्य का बोध होगा। न जाने कितने चित्रकारों ने अपने कोरे  कैनवास पर इस विहंगम दृश्य को उतारा होगा। वह दृश्य देखने वाला होता है, जब पश्चिम घाट से पूरब की ओर से शनैः शैनः सूर्य भगवान रेतों के बीच से ऊपर उठते हैं तो पूरी गंगा की धारा सिंदुरिया रंग में बदल जाती है, और उस समय अगर आप नाव पर सवार हैं तो फिर कहना ही क्या।तभी तो कहते हैं बनारस जिसे एक बार आपना लेता है तो जिंदगी भर वह बाबा भोले नाथ की नगरी को छोड़ नहीं पाता ।

   लगभग 30 साल बाद उसी गंगा की अविरल धारा पर नाव पर बैठ गंगा के सूर्योदय के उस विहंगम दृश्य को देख रहा हूं।जिसे मोबाइल में पत्नी कैद कर रही हैं। अद्भुत नजारा होता वह,जिसे हम-आप शब्दों में बयां नहीं कर सकते, केवल आंखों से ही देख सकते हैं ।







36 साल बाद मित्र से मिलना

आप कल्पना करें कि जब आपका कोई मित्र 36 साल के बाद मिले तो आप कैसा महसूस करेंगे। ऐसा ही कुछ हुआ इस बार की बनारस यात्रा में संजय श्रीवास्तव से मिलकर । संजय यद्यपि मेरे मित्र तो नहीं है मेरे छोटे भाई मित्र है लेकिन उनसे मित्रता वैसे ही है जैसे कोई एक मित्र होता है ।विश्वविद्यालय जीवन के दौरान समकक्ष होने के कारण हम लोग काफी घनिष्ठता  थी और शैतानियों की बात ही न पूछिए। जब मैं बनारस आया तो संजय ने फोन कर मिलने की इच्छा जाहिर की और बीती रात अपने घर पर खाने पर निमंत्रित किया। मित्र का आग्रह हो तो टाला कैसे जा सकता है ।हम लोग शाम संजय के घर पहुंचे और कई घंटे बिताए।  मित्रता 80 के दशक की है।यह  वह दौर था जब पेन फ्रेंड्स का दौर पूरे विश्व देश तेजी  में चल रहा था। बातों बातों में पता चला कि संजय की पत्नी रेनू श्रीवास्तव जी भी उस दौरान मेरी पत्र मित्रता की सूची में थी ।फिर जो बातों का सिलसिला चला तो अंत होने का नाम ही नहीं ले रहा था। देर रात संजय और उनकी पत्नी ने हम लोगों को घर तक छोड़ने भी आए। संजय इन दिनों अध्यापन कार्य से मुक्त होकर एक राष्ट्रीय न्यूज़ चैनल में बनारस ब्यूरो का काम देख रहे हैं। बधाई संजय भाई। चलते चलते बताता चलूं संजय जी के पिताजी भारतीय रेल सेवा में थे,बात 80 के दशक की है ।श्रीलंका में भारत सरकार के सहयोग से रेल पटरी बिछाई जा रही थी ।जिसका पूरा कार्य उन्हीं की देखरेख में हुआ था ।




कंक्रीट के जंगल में तब्दील होती "मसूरी"

 

     हिमालय की तराई में स्थित देहरादून से लगभग 24 किलोमीटर दूर एवं समुद्र तल से 6500 फीट की ऊंचाई पर बसा है 'मसूरी'। मसूरी जो पूरे साल ठंडा रहने वाला एक पहाड़ी कस्बा। जो अब शहर में तब्दील होने की राह पर है। कहते हैं इस क्षेत्र में कभी बड़े पैमाने पर मन्सूर के पौधे उगते थे , इसीलिए से पहले 'मन्सूरी' और बाद में 'मसूरी' कहा जाने लगा । यह  कस्बा 1823 से पहले एक निर्जन पहाड़ी हुआ करता था ।1827 में 'मसूरी' कस्बे की खोज कैप्टन यंग ने की थी ।जिन्होंने इसकी सुंदरता से प्रभावित होकर यहीं पर बसने का मन बना लिया।

इसी 'मसूरी' शहर में एक समय था जब शहर के माल रोड पर भारतीयों की आवाजाही पर अंग्रेजी हुकूमत ने प्रतिबंध लगा रखा था। जिसके लिए शिलापट्ट  लगा रखे थे। कि जिस पर लिखा था पर इंडियन एवं डालों  का आना अलाउड नहीं है । लेकिन स्वतंत्रता के 75 साल बाद इसी माल रोड पर 'अंग्रेज ऐसे गायब हो गए' "जैसे गधे के सर से सिंग। मजे की बात तो यह है कि अंग्रेज तो नहीं दिखते  लेकिन भारतीय कुत्तों की एक हुजूम देखी जा सकती है ।हां जिसे हम कह सकते हैं कि यह कुत्ते विदेशी नस्ल के कुत्तों की तरह ही है, 'माल रोड' पर । माल रोड पर किधर भी निकल जाएं तो आपको इस इन कुत्तों से सामना करना ही पड़ेगा, लेकिन ये  आपको नुकसान नहीं पहुंचाएंगे।मसूरी के माल रोड की संरचना बिल्कुल नैनीताल के माल रोड की तरह ही है।  जिसका निर्माण ब्रिटिश हुकूमत के अधिकारियों ने कराया था। 

  मसूरी में मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू गर्मियों में ठंड ठंडी बयार लेने आया करते थे। महात्मा गांधी ने दो बार इसी मसूरी शहर की यात्रा की थी। पहली यात्रा उन्होंने 1929 में और दूसरी यात्रा स्वतंत्रता से ठीक एक साल पहले 1946 में । तब महात्मा गांधी ने मसूरी के सौंदर्य को देखकर लिखा था।"यहां आ कर मैं अपने सभी दुख दर्द भूल जाता हूं । सच मसूरी सौंदर्य प्रेमियों के लिए स्वर्ग से कम नहीं है। चलते चलते यह भी बताता चलूं मसूरी मे "हैप्पी वैली" नामक एक जगह है ।जहां पर 1959 में चीन  के अधिकृत तिब्बत से निर्वाचित होने पर दलाई लामा ने यहीं पर अपनी पहली सरकार बनाई थी।लेकिन किन्हीं कारणों से बाद में हिमाचल के कांगडा शहर के धर्मशाला  में स्थापित हो गई ।

 मसूरी में एक जगह है लाल टिब्बा  जहां सी दूरबीन से अगर मौसम साफ रहे तो एवरेस्ट की चोटियां दिखाई देती हैं और साथ ही बद्रीनाथ व केदारनाथ के दर्शन भी हो जाते हैं। पर अब मसूरी बदल रही है।जगह जगह कंक्रीट के जंगल उभर रहे हैं जिसके चलते मसूरी के सौंदर्य में काल के ग्रहण लग रहे हैं। पर्यटक तो बहुत आते हैं, हो सकता है उत्तराखंड पर्यटन विभाग के राजस्व का एक बड़ा भाग यहां से मिलता हो ।लेकिन पर्यटकों के लिए कोई विशेष सुविधाएं न तो पर्यटन विभाग और न ही राज्य सरकार उपलब्ध करवा रही है। देहरादून से मसूरी के लिए राज्य परिवहन निगम की बसें न के बराबर  चल रही है जिसके  कारण टैक्सी वालों की लूटमार मची हुई है। अगर इस ओर  थोड़ा सा ध्यान दिया जाए तो मसूरी आने वाले पर्यटकों की संख्या में और इजाफा हो सकता है ।

जनसंदेश छोड़ी नहीं, निकला गया था


 विश्वमानव से जनसंदेश होने के बाद का सम्पादकीय परिवार 

--------------------------------------------------------------------

       सही बात है देश कि विश्वमानव से जन सन्देश अख़बार होने के बाद कई परिवर्तन भी हुए थे,होना भी स्वाभाविक प्रक्रिया के तहत था भी जरुरी. अख़बार करनाल से गुड़गांव शिफ्ट हो गया .लगभग सभी कर्मचारी भी वहीँ पहुँच गए ,केवल महिला कर्मियों को छोड़ कर .उनकी कई दिक्कते भी थीं. संपादक जी पंजाब वाले और प्रबन्धक जी भी आ गए. अख़बार छापना भी शुरू हो गया ,यह अलग कि बात है की कुछ दिनों तक वही दिल्ली के बहादुर शाह जफ़र मार्ग से एक दैनिक के यहाँ छपता रहा. एक-दो महीने तक स्टाफ को रहने के लिए नव निर्मित यूथ हास्टल उपलब्ध कराया गया ,स्टाफ को कार्यालय (कापस खेडा )तक लाने -ले जाने के लिए देवी लाल जी का चुनावी रथ मुहैय्या करवा दी गई. चुनाव के इतिहास मैं वह पहला रथ था जिसे बस के ढांचे मैं तैयार किया गया था,बटन दबाव,गेट खुल जाते, दूसरा बटन दबाव आटोमेटिक मंच बस के ऊपर निकल जाता . बहुत मज़ा लिया उस रथ का हम सभी स्टाफ ने.

         यह बताना भूल ही गया उन दिनों मैं फीचर देखता था ,जन सन्देश का पहला अंक विधिवत हरियाणा दिवस पर निकलना था ,संपादक जी के साथ चौटाला जी के पास मैं भी पहुंचा. जो भी बातें हुईं,वह अलग की बात. चंडीगढ़ से दिल्ली एक कर देना पड़ा . हरियाणा दिवस पर पहला अंक आया, फुल साइज़ का 70 पेज का .अब आप कल्पना कर लीजिये उन दिनों की यह हालत थी .केंद्र व राज्य सरकार के विज्ञापनों के आलावा उद्योगों आदि के आलग. केवल इतना ही नहीं एक माह तक हर रोज चार पेज का विज्ञापन का पन्ना अलग से अखबार के साथ बंटता रहा. इसी बिच दोपहर का अख़बार भी इसी के नाम से शुरु हो गया ,आठ पेज का टेबलाईड . उसकी विशेषता यह की वह बाज़ार में कम ,लेकिन दोपहर बाद दिल्ली से उड़ने वाले सभी विमानों में यात्रियों को उपलब्ध. यहीं से जन्संदेश की उलटी गिनती शुरू हो गई.

         इसी बीच दो बड़ी न्युक्तियाँ हुईं ,एक चोटाला जी के शायद बहनोई थे उनके अधिकार मैं पू


रा अख़बार ,दूसरी ग्वालियर के एक बड़े (स्वघोषित) पत्रकार कार्यकारी संपादक हो कर आ गए,जब नए संपादक जी आये तो वह भी अपनी टीम भी लेकर आये. यहीं अख़बार के दिन फिरने लगे .इधर प्रधान संपादक जी ने अपने बेटे को मेरी जगह फीचर संपादक बना दिया.मैं वापस समाचार कक्ष में.

          बस इसी दौरान परिवार वालों ने मेरी शादी तय कर दी ,और मैं लम्बी छुट्टी पर घर चला गया. शादी के जब वापस लोटा ,ऑफिस पहुंचा तो जो दरबान नमस्कार बोलता था ,उसने अन्दर जाने से रोक दिया , कारण पूछने पर गेट पर लगे नोटिस को पढने को कहा . सच उस पर निगाह गई तो मैं चकित रह गया ,निकलेजाने वालों में मेरा नाम दूसरे नंबर पर. कारण पता नहीं,संपादक से मिलने की बात की तो दरबान ने बताया जाखड साहब ने किसी को भी अन्दर जाने से मना किया है. किसी तरह सम्पादक जी बहार आये और सारी बातें बताईं ,छुट्टी पर जाने के बाद से कुछ कर्मचारी किसी बात को लेकर हड़ताल कर दी थी ,जिसके कारण सभी 35 पुराने (जो विश्वनव के थे )कर्मचारियों को निकल दिया गया है. इसके बावजूद संसथान ने मेरा पुराना बकाया वेतन का भुगतान बिना किसी हिचक के कर दिया .मज़े की बात यह है की साल भीतर ही जन सन्देश का प्रकाशन बंद हो गया .



रोचक प्रसंगों का उल्लेख जरूरी....

 

  जनसंदेश ,गुरुग्राम का सम्पादकीय परिवार 

---------------------------------------------------------

   पत्रकारिता में जवानी के दिनों की एक प्रसंग का उल्लेख करना जरूरी समझता हूँ,जिससे आगे के लोगों को पता चले कि तब और आज की पत्रकारिता में कितनी भिन्नता होती थी. जवानी के दिनों का मतलब ,तब तक शादी नहीं हुई थी.घुमक्कड़ प्रवृति का युवा ,जहाँ चाहो लगा दो ...उफ्फ तक नहीं करेगा.

     बरेली वाले नेता एरन जी के अख़बार विश्वमानव के करनाल संस्करण में कार्यरत था,बात 88-89 की है, हरियाणा के मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला होते थे,उनके सर पर अख़बार निकालने का भूत सवार हो गया ,उन्होंने ने विश्वमानव को खरीद लिया,मतलब अख़बार के साथ अख़बार के कर्मचारी भी ,बिक गए. महीने भीतर अख़बार का नाम बदल कर 'जन सन्देश' हो गया.लेकिन एक बात की तारीफ चौटाला जी की करूँगा कि उन्होंने ने कर्मचारियों के साथ अच्छा व्यवहार ही किया,सभी के वेतनों में योग्यतानुसार वृद्धि भी हुई .प्रबंधन मंडल में बदलाव जरुर हुए ,जो स्वाभाविक भी थे. मैनेजर व संपादक भी बदले,संपादक पंजाब से आये ,और मैनेजर वहीँ पास के किसी शहर के थे.मज़े की बात यह थी कि इन दोनों लोगों को पुत्र मोह बहुत था.जिसके लिए कुछ भी कर सकते थे,किया भी. ख़ैर ...

    वह मामला यह था कि हरियाणा में मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला,केंद्र में  खिचड़ी सरकार,उप प्रधानमंत्री देवी लाल जी, हरियाणा में राजनीतिक उठा पटक. सुबह नए संपादक जी का बुलउवा घर पर आया की कार्यालय बुलाया गया है,जल्दी-जल्दी कार्यालय पहुंचा, संपादक जी ने बताया कि चौटाला जी आज शाम को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे रहे हैं ,यह कार्यक्रम कर्नाटक भवन में शाम चार-पांच बजे होगा,उनका आदेश है कि इस खबर को तुम ही कवर करो, आफिस की जीप ले लो और एक बजे तक निकल जाओ ,जिससे समय तक पहुँच जाओ.यह सुनकर घबराहट बहुत हुई ,कभी दिल्ली में इस तरह के किसी बड़े राजनीतिक कार्यक्रम को कवर नहीं किया था,इस लिए अधिक. आफिस ने निकल कर अपने संचार संपादक जी को यह जानकारी दी,तो उन्हों ने न घबड़ाने की हिदायत दी ,और कुछ टिप्स दिए .वही समाचार संपादक जी आज एक बड़े अख़बार के प्रधान संपादक भी हैं.

  ख़ैर साहब दोपहर बाद आफिस की जीप से निकला दिल्ली के लिए ,दुबला-पतला लगभग सात फुट लम्बा ड्राइवर साथ में. रुकते-रुकते लगभग सवा तीन बजे कर्नाटक भवन पहुंचा.जहाँ पर गहमागहमी चरम सीमा पर. पत्रकारों व फोटोग्राफरों का हुजूम (तब टी वी चैनलों की आमद नहीं थी,एक मात्र दूरदर्शन ही हुआ करता था.) प्रेस कांफ्रेंस में उप प्रधानमंत्री देवी लाला जी को भी आना था,सुरक्षा के चाक-चौबंद व्यवस्था.दिल्ली के पत्रकारों को सभी जानते ही रहे होंगे,उनमें दुबला-पतला ,दाड़ी वाला एक युवक मैं . तभी अचानक मेरे पास सादे वर्दी में दो सुरक्षा कर्मी आये और एक किनारे ले जाकर बातचीत करने लगे,पहले तो मैं घबराया,क्योंकि मेरे पास कार्यालय का कोई परिचय पत्र नहीं था,लेकिन उन्ही लोगों ने जब मेरा,मेरे पिता जी का नाम  ,कहाँ से शिक्षा प्राप्त की ,कहाँ -कहाँ नौकरी की आदि-आदि बताया तो मैं अचंभित हो उठा.बाद मैं पता चला की उप प्रधानमंत्री के घर ,एवं चौटाला जी के घर अक्सर आना जाना मेरा रहता था,वह भी अख़बार के काम से ,इसलिए गुप्तचर विभाग ने मेरे बारे में मेरी जन्मभूमि फैजाबाद ,कर्मभूमि बनारस जा कर सारी जानकारी जुटाई थी. प्रेस कांफ्रेंस हुई ,चौटाला जी ने इस्तीफे की घोषणा की . उसके बाद धीरे से चौटाला जी को प्रणाम कर (पत्रकारिता के दृष्टिकोण से यह गलत है,लेकिन आखिर वह मेरे अन्नदाता जो ठहरे.)करनाल के लिए वापस. दूसरे दिन दिल्ली व आस-पास के सभी अख़बारों की  'लीड स्टोरी' थी.

कहने का मतलब पत्रकारिता के क्षेत्र में आप की पहचान आप के संस्थान के साथ-साथ आप के व्यवहार व काम से होती है,न कि परिचय-पत्र से.

चलते-चलते बताता चलूँ कि कुछ दिनों बाद फैजाबाद (आज का अयोध्या) घर गया तो पता चला कि दो लोग कुछ समय पहले आये थे,और मेरे बारे में पता कर रहे थे. तब अम्मा-बाबू को लगा था कि शादी वादी के चक्कर के लिए जानकारी ले रहे होंगे.   

पत्रकार का कार्ड चाहिए,पर पत्रकारिता नहीं करनी

     अपने चालीस साल की पत्रकारिता में मैं  कभी प्रेस के 'आई कार्ड' के लिए व्याकुल नहीं रहा ,बहुत से अख़बारों में काम किया जिसका आई कार्ड कैसा होता है ,यह आज तक नहीं जान सका.दैनिक आज से डेस्क पर काम शुरू किया था,लेकिन आज तक नहीं मालूम की उसका आई कार्ड किस रंग का था.कभी आवश्यकता ही नहीं पड़ी और अपने प्रभारी से पूछने तक की हिम्मत ही. विश्वमानव (सहारनपुर/करनाल ),उत्तरकाल(गुवाहाटी,असाम),जनसंदेश(दिल्ली,गुड़गाँव)सहित बहुत सी पत्र-पत्रिकाओं का संवाददाता /प्रतिनिधि भी रहा पर कभी किसी से आई कार्ड की मांग नहीं की और न ही किसी ने दिया.इसे आप मेरी मुर्खता समझ सकते हैं. क्यों कि पत्रकारिता के क्षेत्र मैं आप की पहचान आप के संस्थान से तो होती ही है और साथ होती है आप के काम से.आप का काम ही आप का नाम होता है ,जिसके लिए किसी आई कार्ड की जरुरत नहीं होती है.

   यह बात इस लिए कह रहा हूँ कि आज लोग ,विशेषकर युवा पत्रकारिता के लिए व्याकुल रहते हैं,लेकिन उन्हें पत्रकारिता का 'क,ख,ग' तक नहीं पता होता .लेकिन उनके गले में लाल,नीली या पीली पट्टी में फंसा एक कार्ड जरुर लटकता दिखाई देगा.इसका गत पांच वर्षों में मैं ने अनुभव किया है. इन पांच सालों में 'प्रणाम पर्यटन' एवं उसकी सहयोगी समाचार पत्रिका 'वसुंधरा पोस्ट' के लिए पचास अधिक पत्रकारों को परिचय-पत्र जारी किया होगा ,लेकिन इन पचास में से मात्र दो-चार सहयोगी ही ऐसे मिले जिन्हें पत्रकारिता की समझ है, इनमें महिला पत्रकारों व सहयोगियों पर अधिक विश्वास किया जा सकता है.कारण वह ईमानदारी के साथ अपने दायित्व का निर्वाह करती हैं. उनकी लेखनी पर विश्वास किया जा सकता है.

        आज पत्रकारिता मिशन नहीं व्यवसाय बन चुका है,इस लिए मिशन की बात की ही नहीं जानी चाहिए.मज़े की बात यह है कि लघु पात्र-पत्रिकाएं ही सबसे अधिक 'पत्रकार'होने का 'प्रमाण पत्र' का सर्टिफिकेट यानि आई कार्ड बांटती हैं,इसके पीछे  क्या कारण है ? यह इससे जुड़े सभी को मालूम है.मुझे कुछ कहने की जरुरत नहीं है.

  अधिक बातें न करते हुए सीधी सी बात कहता हूँ की जिन लोगों को (कुछ लोग को छोड़कर)अबतक  'प्रणाम पर्यटन' एवं वसुंधरा पोस्ट' का आई कार्ड प्राप्त है, उनकी अंतिम तिथि से स्वयम निरस्त हो जायेगा .नवीनीकरण की प्रक्रिया संभव नहीं होगी. इसी के साथ सभी को प्रणाम)


'इंग्लैंड-आयरलैंड' और 'अंटाकर्टिका एक अनोखा महादेश'

किताबें-2 श्रीमती माला वर्मा की दो किताबें हाल ही में मिलीं, 'इंग्लैंड-आयरलैंड' और 'अंटाकर्टिका एक अनोखा महादेश' ,दोनों ह...