हिन्दी का पहल दैनिक अखबार 'समाचार सुधावर्षण'
डॉ प्रदीप श्रीवास्तव
भारत में हिन्दी पत्रकारिता की शुरुआत का
श्रेय उत्तर प्रदेश निवासी पंडित युगल किशोर शुक्ल द्वारा 30 मई 1826 को बंगभूमि कलकत्ता
(अब कोलकाता) से साप्ताहिक अखबार 'उदन्त मर्तण्ड' को
जाता है । उल्लेखनीय है कि इसके ठीक अट्ठाईस साल बाद उसी बंग भूमि से ही 8 जून
1854 को कोलकाता से बांग्लाभाषी बाबू श्याम सुंदर सेन ने वहाँ रह रहे बड़ी संख्या में
हिन्दी भाषियों की जरूरतों को पूरी करने के लिए 'समाचार
सुधावर्षण' नमक एक हिन्दी दैनिक का प्रकाशन शुरू किया । यह
दैनिक उन्नीस वर्षों तक निरंतर निकलता रहा । विशेष बात यह की 'समाचार सुधावर्षण'
ने '1857
के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम' को खुला समर्थन देकर भारतीय पत्रकारिता में एक नए
युग के आगमन का स्वागत किया था। यह अखबार दो भाषाओं में था, अर्थात हिन्दी और बंगला भाषा में । लेकिन फिर भी बाबू श्याम सुंदरसेन
ने हिन्दी को महत्व देते हुए अखबार के मत्थे (मास हेड) पर पहले हिन्दी में उसके नीचे
बांग्ला भाषा को स्थान दिया था । यह बात आज से लगभग 167 साल पहले की है,जब अंग्रेजों की हुकूमत थी,उनकी गतिविधियों का केंद्र भी कलकत्ता ही था, ऐसी स्थिति में हिन्दी भाषा को एक गैर हिन्दी भाषी द्वारा आदर देना अपने आप में ऐतिहासिक कदम रहा होगा। क्योंकि उस समय कलकत्ता से बांग्ला भाषा मैं पहले से ही तीन अखबारों का प्रकाशन हो ही रहा था,उनके बीच गैर बांग्ला भाषा में अखबार निकालना कम हिम्मत का कम नहीं था । अखबार के संचालक,संपादक और प्रकाशक स्वयं बाबू श्याम सुंदरसेन थे , लेकिन मुद्रणालय के मालिक और प्रबन्धक उनके भाई महेंद्रनाथ सेन थे। अखबार का आफिस बड़ा बाज़ार में गली नंबर-16 ,अर्थात कमलनयन की गली के मकान नमबर -10 में था । मिले दस्तावेज़ों के मुताबिक यह अखबार 1872 तक निकलता रहा । लेकिन आज इसका अंतिम अंक जो उपलब्ध है वह 12 जून 1868 का है। दुर्भाग्यवश 'समाचार सुधावर्षण' के वह अंक आज तक नहीं मिल सके हैं ,जिनमें 1857 के विद्रोह की खबरें लगातार छपती रहीं। यह वह दौर था जब अधिकांश अखबार कंपनी के कोप भजन से बचने के लिए या तो विद्रोह की खबरें को अनदेखी कर रहे थे या फिर विद्रोहियों के खिलाफ और सरकार की जी-हुज़ूरी की खबरें प्रकाशित कर रहे थे। लेकिन इस सब के बावजूद ''समाचार सुधावर्षण' ने अंगर्जी हुकूमत की परवाह न करते हुए, विद्रोहियों के पक्ष का समर्थन करते हुए उनका हौसला बढ़ाया था। इस लिए अनुमान लगाया जाता है कि उस दौर के अंकों और खबरों कि फाइलों को अंग्रेजी हुकूमत ने जब्त कर के नष्ट कर दिये हों । दैनिक 'समाचार सुधावर्षण' में दुनिया भर की खबरें प्रकाशित होती थीं। लेख तो इस तरह के होते थे जो समाज को शिक्षित और उसमे उत्साह को पैदा करती थीं। अखबार की हिन्दी भाषा का स्वरूप 'कोलकतिया' ही थी ,या यूं कहें भारतेन्दु काल के पूर्व विकसित हो रही खड़ी बोली के रूप में ।
'समाचार सुधावर्षण' के 16 अप्रेल 1855 के अंक में छपे एक लेख के शीर्षक को देखें "नागरी सीखने की आवश्यकता"। जिसमें कहा गया है कि ' यिह सत्य हम लोग अपने आँखों से प्रत्यक्ष महाजनों की कोठियों में देखते हैं कि एक की लिखी हुई चिट्ठी दूसरा जल्दी बाँच सकता नहीं । चार-पाँच आदमी लोग इकठ्ठा बैठके ममा, टाटा,कका घघा,डडा कहिके फेर ‘मिट्टी का घड़ा’ बोल के निश्चय करते हैं । क्या दुख की बात है । कहिए तो अपने पास से द्रव्य खराब करके विद्यादान देने की बात तो दूर रही अपने विद्या सीखना बड़ा जरूरत है । सब अक्षरों में देवनागर अक्षर अति उत्तम सहज और सर्व देश प्रचलित है। इसको प्रथम सीखना , अनंतर अपने आजीविका के लिए महाजनी अक्षर का अभ्यास कर लेना, तिसके बाद जिस देश में बास करना उसके अक्षर को भी पहिचान रखना। यिह तीनों हिंदुस्थानियों के अति आवश्यक है।‘
उस समय संचार के साधन भी मधयुगीन दशा में ही थे तब रेल गाड़ी की शुरुआत भारत में हो चुकी थी ,डाक घोड़ा गाड़ियों से आती-जाती थीं। ऐसी स्थिति में समाचार संकलन के लिए आने वाली दिक्कतों का सहज अनुमान आज लगाया जा सकता है । तब मुद्रण कला में लिथो युग का दौर था, लकड़ी या धातु के टाइप भी नहीं आए थे। लेकिन इन सब के बीच उस समय के खबरची अपनी निष्ठा और कौशल के बीच हर क्षण अपनी कलम जीवंत करते थे । इन सब के बीच इस अखबार ने खोजी पत्रकारिता की नई परिभाषा भी लिखी । नागपुर के भोसलों के राज्य को कंपनी सरकार की हड़पने की साज़िशों भंडाफोड़ किया और खुले शब्दों में निंदा भी। 'समाचार सुधावर्षण' में ही अंग्रेजों को देश से बाहर निकालने के लिए अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के द्वारा जारी किया गया “फरमान” को यथावत प्रकाशित किया था । जिसकी प्रतिक्रिया में तत्कालीन गवर्नर लार्ड कैनिंग ने 13 जून 1857 को प्रेस ऐक्ट लागू कर दिया । जिसके चलते सरकार से बिना लाइसेंस लिए प्रेस रखना और चलाना गैर कानूनी अपराध हो गया । साथ ही लाइसेंस के लिए कड़े नियम बना दिये गए थे। इसी कानून के तहत 17 जून 1857 को श्याम सुंदर सेन के खिलाफ मुकदमे की कारवाई शुरू हो गई । देश का वैधानिक शासक तो थे बहादुर शाह जफर लेकिन ब्रिटिश हुकूमत उन्ही के नाम से शासन कर रही थी ,जिसके चलते कोलकाता की फेडरल कोर्ट में बाबू श्याम सुंदर सेन को मुकदमा वापस लेने को मजबूर होना पड़ा।
'समाचार सुधावर्षण' ने ठीक इससे दो सप्ताह पहले ही विद्रोह की चिनगारी भड़कने पर अपने 26 मई 1957 के अंक में लिखा था कि “हाल ही में अंग्रेजों ने हमारे धर्म को नष्ट करने का प्रयास किया ,अतः ईश्वर उन पर क्रुद्ध है । ऐसा आभास मिलता है कि ब्रिटिश सरकार का अब अंत आ गया । सच्ची बात तो यह है कि अब युद्ध में दम आ रहा है , और अनेक क्षेत्रों की जनता सेना में मिल रही है।“ यदपि लगभग एक साल बाद 1 जुलाई 1858 को को लार्ड केनिग ने ‘गदर’ के समाप्त होने की घोषणा कर दी थी ,लेकिन 'समाचार सुधावर्षण' के उसके बाद के अंक इस बात की गवाही देते हैं कि स्वाधीनता का यह संग्राम उसके बाद भी चलता रहा था।
उस समय 'समाचार सुधावर्षण' का मासिक चंदा दो रुपये और वार्षिक चौबीस रुपये था । ग्राहकों के लिए आफ़र सिस्टम तब ही चलता था, इस अखबार के लिए जो लोग वार्षिक चंदा भरना चाहते थे तो उन्हें चौबीस की जगह बीस रुपये और अर्धवार्षिक के लिए दस रुपये भरने होते थे । इसके पीछे प्रकाशकों को फुटकर बेचने में किसी दिक्कत का सामना करना भी हो सकता रहा हो। रविवार को छोड़कर अन्य दिनों की कीमत आठ आना होती थी । हो सकता है कि उन दिनों इतनी कीमत अदा करने पर हिन्दी पाठक अपने को असमर्थ पाते रहें हों । अखबार को इतना विज्ञापन भी शायद नहीं मिल पाते रहें होंगे,जिससे उनका संचालन सहजता से होता रहे। 'समाचार सुधावर्षण' किन कारणों से बंद हुआ,इसका पता तो आज तक नहीं चल पाया। लेकिन सहजता से यह अनुमान तो लगाया जा ही सकता है कि यह दैनिक भी अर्थाभाव के चलते ही ‘बलि की बेदी’ पर चढ़ गया होगा।