शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011

मित्रता -1

मित्रता के बदलते आयाम
कल रात मेरी एक टैग मित्राणी (दोस्त ) ने रोमानिया से एक कार्टून भेजा है ,जिसमे दो उम्र दराज लोगों को नेट सर्फिंग करते हुए दिखाया है | मजे क़ी बात यह है कि दोनों लोग ही यह सोच कर सर्फिंग कर रहे हैं कि वे नेट पर किसी युवा के साथ चैटिंग कर रहे हैं,पर दोनों लोग हैं बुजुर्ग |इस कार्टून को देखने के बाद मेर जेहन में एक बात आई कि आज बदलती टेक्नालोजी के इस दौर में हमारी मानसिकता भी कितनी बदल रही है |हम आज भी अपने को युवा देखने क़ी चाह में अपने  सारे बन्धनों को तोड़ने पर विवश हो रहे हैं क्यों? मित्रता करना कोई गलत बात नहीं है,लेकिन आज के दौर में इसी मित्रता को पैसा कमाने का जरिया भी बना लिया गया है ,कल क़ी ही बात है मुंबई में पुलिस ने एक ऐसे परिवार को धर दबोचा है जो मित्रता के नाम पर देह व्यापार के धंधे  में लिप्त  था यह परिवार लोगों को दोस्त बनाए के नाम पर देह वयापार को करता ही था वहीँ उनसे भारी मात्रा ऍन पैसा भी वसूलता था|जिसके लिये अखबारों में बाकायदा दोस्त बनिए जैसे  आकर्षक शीर्षक से विज्ञापन भी देता था,जिसके मध्यम से लोग उनके जाल में फंस जाते ||अंतर्जाल के इस मकड़ जाल पर (इटरनेट ) दोस्ती क़ी कितनी साइटें हैं,जिनकी कोई संख्या तक नहीं है,लेकिन क्या उसके मध्यम से आज हम स्वस्थ दोस्ती क़ी परिकल्पना भी  कर सकते हैं, में तो कहूँगा कि कदापि नहीं |अब आप फेसबुक क़ी बात करें या फिर ट्विटर कि ,कहीं पर मुझे स्वस्थ मित्रता क़ी झलक तक नहीं दिखाई देती है |दुनिया भर में सर्वाधिक लोकप्रिय ये दोनों साईटें जरुर लोगों को एक दूसरे से जोड़ने काम करती होंगी ,लेकिन मित्रता का काम तो नहीं करती हैं, सूचनाओं का आदान- प्रदान जरुर कराती हैं | इसके अलावा बहुत सी साइटें तो  ऐसी हैं जिनका  हम सार्वजानिक रूप से उल्लेख भी नहीं कर सकते हैं| क्यों कि उन पर परोसी जाने वाली सामग्रियां ऐसी होती हैं,जिन्हें हम किसी को भी नहीं बता सकते हैं |कुछ तो ऐसी साइटें हैं जिन पर अश्लीलता क़ी भरमार है|गत तीन चार सालों से  नेट पर सर्फिंग करते -करते में ने ये देखा है क़ी दोस्ती के नाम पर लोग अपने नाम के साथ-साथ लिंग तक बदल रखें हैं, इनमे युवकों के अलावा युवतियां भी काम पीछे नहीं है ,या अगर में कहूँ क़ी उनकी संख्या युवकों से कहीं अधिक है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी | देर रात आप किसी भी साईट पर किलिक करें तो देखेंगे कि हरे सिग्नल  क़ी लाइट महिलाओं पर अधिक होगी | वे बातें भी खुल कर करतीं है,उनमे जरा सी भी शर्म व हया नाम क़ी चीज नहीं दिखाई देती है|

सोमवार, 12 दिसंबर 2011

अयोध्या में है विश्व क़ी सबसे लम्बी कब्र
आप ने भगवान श्री राम क़ी जन्म भूमि अयोध्या के बारे में काफी कुछ सुना होगा,वहाँ गए भी होंगे ,मंदिर एवम घाटों के दर्शन भी किये होंगे |लेकिन आप को क्या मालूम है कि उसी अयोध्या में विश्व क़ी अनोखी कब्र भी है जिसकी लम्बाई लगभग नौ गज है | चौंक पड़े न ,लेकिन सही है | वैसे तो कब्रे व मजारें तो दुनिया भर में हैं,लेकिन यह कब्र उच्च अनोखी है | जिसे हजरत - नुह - अल - ए- इस्लाम क़ी बताई जाती है | लेकिन इतिहासकरों में भी इस बात को लेकर मतभेद हे | कुछ इतिहासकरों ने नुह - अल - ए- इस्लाम साहब को गंजे शहीद  मना है |कहते हैं कि मोहम्मद साहब के 19 वीं पीढ़ी के नुह - अल - ए- इस्लाम साहब एक बार अपनी किश्ती से कहीं जा रहे थे .जब वे अयोध्या के पास पहुंचे ही थे कि अचानक भिसन तूफान आ गया |जिसकी चपेट में आ कर उनकी किश्ती (नव )के आठ तुकडे हो गए |जिसे वही जमीन में गाड दिया गया | जिसे आज नुह - अल - ए- इस्लाम क़ी कब्र के रूप में बताया जाता है | वहीँ कुछ अन्य इतिहासकरों कि धरना यह है कि आज से लगभग छह हजार साल पहले क़ी यह कब्र काफी पुरानी है जो उन्ही की है |उन्हें मानने वालों का कहना है की यह कबर उन्ही क़ी है,जो उस समय औसत आकार क़ी रही होगी |लेकिन छह हजार वर्ष का समय काम नहीं होता है,इस लिये कब्र क़ी मिटटी फैलाते -फैलाते फैल गई होगी |जो आज नौ गज क़ी हो गई है | इस नौ गज क़ी कब्र का इतिहास कुछ भी हो ,लेकिन आज भी इसे दुनिया क़ी सबसे लम्बी  कब्र का दर्जा हासिल हे |लेकिन जिला प्रशासन एवम पर्यटन विभाग की लापरवाही के चलते आज इसका कोई पुरसा हाल नही है |कब्र के आस-पास गन्दगी का ढेर पड़ा रहता है | नुह - अल - ए- इस्लाम साहब क़ी यह कब्र जब आप अयोध्या के मुख्य मार्ग पर हनुमानगढ़ी से थोडा आगे तुलसी पार्क क़ी ओर चलेंगे तो आप को दायें तरफ एक महल दिखाई देगा, जो राजा साहेब अयोध्या का है | इससे और आगे चलाने पर इसी हाथ आप को अयोध्या कोतवाली  दिखाई देगा | अयोध्या कोतवाली से ही बाएं तरफ कुछ दुकाने हैं,कोतवाली एवम दुकानों के बीच एक संकरा सा रास्ता है,जो अमूमन दिखाई नहीं देता | क्यों की वहाँ पर अतिक्रमण जो होगया है |उस संकरे रास्ते में आप पच्चीस कदम चलेंगे कि आप को या बड़ा सा हाता (मैदान ) दिखाई देगा,जो जिसमे दस फीट चौड़ी  एवम पच्चीस फीट लम्बी एक कब्र दिखाई देगी| इसे ही नुह - अल - ए- इस्लाम साहब क़ी कब्र के रूप में जाना जाता है |आप जब भी अयोध्या जाएँ तो विश्व की इस लम्बी व अनोखी कब्र को देखना मत भूलिएगा |
प्रदीप श्रीवास्तव

रविवार, 11 दिसंबर 2011

राजधानी दिल्ली:हवाई जहाज से प्रदीप श्रीवास्तव द्वारा लिया गया चित्र 
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सौ साल की हुई दिल्ली 
किसी भी भारतीय को यह जानकर हैरानी होगी कि आज की नई दिल्ली किसी परंपरा के अनुसार अथवा स्वतंत्र भारत के राजनीतिक नेताओं की वजह से नहीं, बल्कि एक सौ साल (1911) पहले आयोजित तीसरे दिल्ली दरबार में ब्रिटेन के राजा किंग जॉर्ज पंचम की घोषणा के कारण देश की राजधानी बनी. इस दिल्ली दरबार की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना ब्रिटिश भारत की राजधानी के कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरण की घोषणा थी. 12 दिसंबर, 1911 में ब्रिटेन के राजा की घोषणा से पहले इस ऐतिहासिक तथ्य से अधिक लोग वाक़ि़फ नहीं थे. किंग जॉर्ज पंचम के राज्यारोहण का उत्सव मनाने और उन्हें भारत का सम्राट स्वीकारने के लिए दिल्ली में आयोजित दरबार में ब्रिटिश भारत के शासक, भारतीय राजकुमार, सामंत, सैनिक और अभिजात्य वर्ग के लोग बड़ी संख्या में एकत्र हुए थे. दरबार के अंतिम चरण में एक अचरज भरी घोषणा की गई. तत्कालीन वायसराय लॉर्ड हॉर्डिंग ने राजा के राज्यारोहण के अवसर पर प्रदत्त उपाधियों और भेंटों की घोषणा के बाद एक दस्तावेज़ सौंपा. अंग्रेज राजा ने वक्तव्य पढ़ते हुए राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने, पूर्व और पश्चिम बंगाल को दोबारा एक करने सहित अन्य प्रशासनिक परिवर्तनों की घोषणा की. दिल्ली वालों के लिए यह एक हैरतअंगेज फैसला था, जबकि इस घोषणा ने एक ही झटके में एक सूबे के शहर को एक साम्राज्य की राजधानी में बदल दिया, जबकि 1772 से ब्रिटिश भारत की राजधानी कलकत्ता थी.
 एक तरह से नई दिल्ली का अर्थ भारतीय उपमहाद्वीप के लिए एक साम्राज्यवादी राजधानी और एक सदी के लिए अंग्रेज हुक्मरानों के सपनों का साकार होना था, हालांकि इसके पूरा होने में 20 साल का व़क्त लगा. यह भी तब, जबकि राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने के साथ ही नई दिल्ली बनाने का फैसला लिया गया. इस तरह नई राजधानी केवल 16 साल के लिए अपनी भूमिका निभा सकी. नई दिल्ली में निर्माण कार्य 1931 में पूरा हुआ, जब सरकार इस नए शहर में स्थानांतरित हो गई. 13 फरवरी, 1931 को तत्कालीन वायसराय लॉर्ड इरविन ने नई दिल्ली का औपचारिक उद्घाटन किया.
लॉर्ड हॉर्डिंग लिखते हैं कि इस घोषणा से उपस्थित लोगों में आश्चर्यजनक रूप से गहरा मौन पसर गया और चंद सेकंड बाद करतल ध्वनि गूंज उठी. ऐसा होना स्वाभाविक था. अपने समृद्ध प्राचीन इतिहास के बावजूद जिस समय दिल्ली को राजधानी बनने का मौक़ा दिया गया, उस समय वह किसी भी लिहाज़ से एक प्रांतीय शहर से ज़्यादा नहीं थी. लॉर्ड कर्जन के बंगाल विभाजन की घोषणा (1903) के बाद से ही इसका विरोध कर रहे और एकीकरण की मांग को लेकर आंदोलनरत बंगालियों की तरह दिल्ली वालों ने कोई मांग नहीं रखी और न कोई आंदोलन छेड़ा. किंग जॉर्ज पंचम की घोषणा से हर कोई हैरान था, क्योंकि यह पूरी तरह गोपनीय रखी गई थी. उनकी भारत यात्रा के छह महीने पहले ही ब्रिटिश भारत की राजधानी के स्थानांतरण का निर्णय हो चुका था. इंग्लैंड और भारत में दर्जन भर व्यक्ति ही इससे वाक़ि़फ थे. राजा की घोषणा के समानांतर बांटे गए गजट और समाचार पत्रकों को भी पूरी गोपनीयता के साथ छापा गया. दिल्ली में एक प्रेस शिविर लगाया गया, जहां सचिवों, मुद्रकों और उनके नौकरों के लिए रहने की व्यवस्था की गई और वहीं प्रिटिंग मशीनें लगाई गईं. दरबार से पहले इन शिविरों में कर्मचारियों को लगा दिया गया और दरबार की वास्तविक तिथि से पहले इस स्थान की सुरक्षा को चाक चौबंद रखने के लिए सैनिकों-पुलिस की टुकड़ियां तैनात कर दी गई थीं. सात दिसंबर, 1911 को ब्रिटेन के राजा और रानी (जार्ज पंचम और क्वीन मेरी) दिल्ली पहुंचे. शाही दंपत्ति को एक जुलूस की शक्ल में शहर की गलियों से होते हुए विशेष रूप से लगाए गए शिविरों के शहर (किंग्सवे कैंप) में गाजे-बाजे के साथ पहुंचाया गया. उत्तर-पश्चिम दिल्ली में विशेष रूप से निर्मित एक सोपान मंडप में आयोजित दरबार में चार हज़ार ख़ास मेहमानों के बैठने की व्यवस्था की गई और एक वृहद अर्द्ध आकार के टीले से क़रीब 35,000 सैनिक और 70,000 दर्शक दरबार के चश्मदीद गवाह बने. दरबार के दौरान लॉर्ड हॉर्डिंग सहित काउंसिल के सदस्यों, भारतीय राजाओं, राजकुमारों सहित कइयों ने अंग्रेज राजा की कदमबोसी की और हाथ को चूमा. 25 गुणा 30 मील के घेरे में फैले क्षेत्र में 223 तंबू लगाए गए, जहां 60 मील की नई सड़कें बनाई गईं और क़रीब 30 मील लंबी रेलवे लाइन के लिए 24 स्टेशन.
अहमद अली के उपन्यास-टि्‌वलाइट इन दिल्ली (1940) के अनुसार, वायसराय लॉर्ड हार्डिंग ने व्यक्तिगत रूप से दरबार की तैयारियों का जायज़ा लिया. कुल 40 वर्ग किलोमीटर में फैले 16 वर्ग किलोमीटर के घेरे में पूरे भारत से क़रीब 84,000 यूरोपियों और भारतीयों को 233 शिविरों में ठहराया गया. 1911 में बसंत के मौसम के बाद क़रीब 20,000 मज़दूरों ने दिन-रात एक करके इन शिविरों को तैयार किया. इस दौरान 64 किलोमीटर की सड़कों का निर्माण हुआ, शिविरों में पानी की व्यवस्था के लिए 80 किलोमीटर की पानी की मुख्य लाइन और 48 किलोमीटर की पाइप लाइनें डाली गईं. मेहमानों के खानपान के लिए दुधारू पशुओं, सब्जी और मांस का इंतज़ाम किया गया. दिल्ली दरबार का आयोजन एक जनवरी, 1912 को होना था, पर इस दिन मुहर्रम होने की वजह इसे कुछ दिन पहले करने का फैसला किया गया.
1877 में लॉर्ड लिटन ने महारानी विक्टोरिया की कैसरे हिंद के रूप में उद्घोषणा के अवसर पर पहले दिल्ली दरबार का आयोजन किया गया था. महारानी विक्टोरिया के उत्तराधिकारी के रूप में एडवर्ड सप्तम के राज्यारोहण के अवसर पर 1903 में लॉर्ड कर्जन के समय दूसरे दिल्ली दरबार का आयोजन किया गया. यह दरबार 29 दिसंबर से अगले साल दस दिनों तक चला था. इसके एक भाग का आयोजन लालकिले के दीवान-ए-आम में किया गया था. दूसरे दिल्ली दरबार पर खर्च हुए 1,80,000 पाउंड की तुलना में तीसरे दिल्ली दरबार पर 6,60,000 पाउंड की राशि ख़र्च हुई. किनेमाकलर ने तीसरे दिल्ली दरबार की फिल्म-विद अवर किंग एंड क्वीन थ्रू इंडिया (1912 में सबसे पहली बार प्रदर्शित) बनाई. यह फिल्म से अधिक एक मल्टी मीडिया शो थी. किंग जॉर्ज पंचम और क्वीन मेरी ने किंग्सवे कैंप में आयोजित दिल्ली दरबार में 15 दिसंबर, 1911 को नई दिल्ली शहर की नींव के पत्थर रखे. बाद में इन पत्थरों को नॉर्थ और साउथ ब्लॉक के पास स्थानांतरित कर दिया गया और 31 जुलाई, 1915 को अलग-अलग कक्षों में रख दिया गया. स्थापना दिवस समारोह में लॉर्ड हार्डिंग ने कहा कि दिल्ली के इर्द-गिर्द अनेक राजधानियों का उद्घाटन हुआ है, पर किसी से भी भविष्य में अधिक स्थायित्व अथवा अधिक ख़ुशहाली की संभावना नहीं दिखती. रॉबर्ट ग्रांट इर्विंगंस की पुस्तक-इंडियन समर में हार्डिंग कहते हैं, हमें मुगल सम्राटों के उत्तराधिकारी के रूप में सत्ता के प्राचीन केंद्र में अपने नए शहर को बसाना चाहिए. वायसराय ने बतौर राजधानी दिल्ली के चयन का ख़ुलासा करते हुए कहा कि यह परिवर्तन भारत की जनता की सोच को प्रभावित करेगा. तत्कालीन भारत सरकार के गृह सदस्य सर जॉन जेनकिंस ने कहा कि यह एक साहसिक राजनयिक क़दम होगा, जिससे चहुंओर संतुष्टि के साथ भारत के इतिहास में एक नए अध्याय की शुरुआत होगी. अंग्रेजों की राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने के दो प्रमुख कारण थे. पहला, बंगाली अंग्रेजों के लिए काफी समस्याएं पैदा कर रहे थे और अंग्रेजों की नज़र में कलकत्ता राजनीतिक आतंकवाद का केंद्र बन चुका था. वहां लोग रायटर्स बिल्डिंग पर बम फेंक रहे थे, जबकि दिल्ली में ऐसे हालात नहीं थे. लॉर्ड कर्जन के शासनकाल के बाद अंग्रेज बंगालियों को उपद्रवकारी और राजनीतिक रूप से सजग मानने लगे थे. दूसरा, यह एक तरह से मुसलमानों को ख़ुश करने का भी फैसला था. अंग्रेजों की सोच यह थी कि वे एक ही समय में हिंदू और मुसलमानों को नाराज़ नहीं कर सकते. इस सिलसिले में 1911 में आयोजित दिल्ली दरबार की ऐतिहासिक घटनाओं के ब्योरे वाला अहमद अली का उपन्यास दिल्ली में आहत मुस्लिम सभ्यता की पड़ताल करता है. इस किताब के ज़रिए लेखक ने तत्कालीन भारत में अंग्रेजी साम्राज्यवाद की कहानी बयान करते हुए उपनिवेशवादी ताक़त से टक्कर पर मुस्लिम नज़रिए को सामने रखते हुए साम्राज्यवादी साहित्य को चुनौती दी है.
नीरद सी चौधरी ने आजादी मिलने के तुरंत बाद प्रकाशित अपनी आत्मकथा-द ऑटोबायोग्राफी ऑफ अननोन इंडियन में उनकी (बंगालियों) प्रतिक्रिया का स्मरण करते हुए लिखा कि 1911 में मौत का साया, जिससे हम सब अपरिचित थे, पहले ही कलकत्ता पर पसर चुका था. मुझे अभी भी अपने पिता द्वारा उनके मित्रों के साथ राजधानी के दिल्ली स्थानांतरण का समाचार पढ़ने की बात याद है. कलकत्ता का स्टेट्‌समैन गुस्से में था, पर वह भविष्य के बजाय इतिहास के बारे में ज़्यादा सोच रहा था और वह कासनड्रा की तरह भविष्यवाणियां करने का इच्छुक नहीं था. हम बंगाली कासनड्रा की तरह भविष्यवक्ता नहीं थे. हम बातूनी थे. मेरे पिता के एक दोस्त ने रूखेपन से कहा कि वे साम्राज्यों के क़ब्रिस्तान दिल्ली में द़फन होने जा रहे हैं. इस बात पर वहां मौजूद हर कोई हंस पड़ा. हम सभी की तीव्र इच्छा का लक्ष्य अंग्रेजी साम्राज्य का द़फन होना ही था, पर उस दिन हम में से किसी ने भी नहीं सोचा था कि ऐसा होने में केवल छत्तीस साल लगेंगे. अंग्रेज सत्रह सौ सत्तावन से कलकत्ते में राज करते रहे. दिल्ली राजधानी बनाने के छत्तीस साल बाद उनके विश्वव्यापी साम्राज्य का सूरज डूब गया. 1912 में एडविन लैंडसिर लुटियन और उनके पुराने दोस्त हरबर्ट बेकर को बतौर वास्तुकार नए शहर को बसाने की ज़िम्मेदारी दी गई. लुटियन के चुनाव में उनके काम के अनुभव का कम और रिश्ते का जोर ज़्यादा था. सरकारी इमारतें और शहर के वास्तु से उनका दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं था. महत्वपूर्ण बात यह थी कि उन्होंने लॉर्ड लिटन, जिन्होंने 1877 में महारानी विक्टोरिया के समय दिल्ली दरबार की अध्यक्षता की थी, की एकलौती बेटी एमली लिटन से शादी की थी. लुटियन का खास मित्र और सहयोगी गर्टरूड जेकल, जो अच्छा बाग वास्तुशास्त्री भी था, भी एक अच्छे संपर्कों वाला व्यक्ति था. लॉर्ड हॉर्डिंग भी मार्च 1912 के अंत में अपने लाव-लश्कर के साथ दिल्ली पहुंच गए. 1911 में दिल्ली राजधानी स्थानांतरित होने पर दिल्ली विश्वविद्यालय का पुराना वायस रीगल लॉज वायसराय का निवास बना. प्रथम विश्व युद्ध से लेकर क़रीब एक दशक तक वायसराय इस स्थान पर रहे, जब तक रायसीना पहाड़ी पर लुटियन निर्मित उनका नया आवास नहीं बना.
मौजूदा नई दिल्ली शहर दिल्ली का आठवां शहर है. नई दिल्ली के लिए अनेक स्थानों के बारे में सोचा और अस्वीकृत किया गया. दरबार क्षेत्र को अस्वास्थ्यकर और अनिच्छुक घोषित कर दिया गया, जहां बाढ़ का भी ख़तरा था. सब्जी मंडी का इलाक़ा बेहतर था, पर फैक्ट्री क्षेत्र में अधिग्रहण से मिल मालिक नाराज़ हो जाते. सिविल लाइंस में यूरोपीय आबादी को हटाने से उसकी नाराज़गी का ख़तरा था. अत: लुटियन के नेतृत्व में मौजूदा पुराने शहर शाहजहांनाबाद के दक्षिण में नई दिल्ली के निर्माण का कार्य 1913 में शुरू हुआ, जब नई दिल्ली योजना समिति का गठन किया गया. उसने पुराने शहर का तिरस्कार किया और आसपास का इलाक़ा तत्काल ही एक दूसरे दर्जे का शहर यानी पुरानी दिल्ली बन गया. लुटियन के ज़िम्मे नई दिल्ली शहर, गर्वमेंट हाउस और हरबर्ट बेकर के सचिवालय के दो हिस्सों (नॉर्थ एवं साउथ ब्लॉक) और काउंसिल हाउस (संसद भवन) को तैयार करने का भार आया. क़रीब 2,800 हेक्टेयर क्षेत्र में फैली लुटियन दिल्ली का मूल स्वरूप 1911 से 1931 के मध्य में बना, जो साम्राज्यवादी भव्यता का एक खुला उदाहरण था. इसका मुख्य केंद्र ब्रिटिश साम्राज्य के प्रतिनिधि वायसराय का महलनुमा परिसर (अब राष्ट्रपति भवन) था. अंग्रेज वास्तुकार नई दिल्ली को पुरानी दिल्ली की अराजकता के विपरीत क़ानून-व्यवस्था का प्रतीक बनाना चाहते थे. हरबर्ट बेकर का मानना था कि नई राजधानी अच्छी सरकार और एकता का स्थापत्यकारी स्मारक होनी चाहिए, क्योंकि भारत को इतिहास में पहली बार अंगे्रज शासन के तहत एकता मिली है. भारत में अंगे्रजी शासन केवल सरकार और संस्कृति का प्रतीक नहीं है, यह एक विकसित होती नई सभ्यता है, जिसमें पूर्व और पश्चिम के बेहतर तत्वों का समावेश है. वायसराय पैलेस का मुख्य गुंबद मुगल स्थापत्य कला की तर्ज पर बनाया गया, पर अंग्रेजों ने अपना महत्व बरक़रार रखने के लिए पैलेस की ऊंचाई शाहजहां की जामा मस्जिद से अधिक रखी.
एक तरह से नई दिल्ली का अर्थ भारतीय उपमहाद्वीप के लिए एक साम्राज्यवादी राजधानी और एक सदी के लिए अंग्रेज हुक्मरानों के सपनों का साकार होना था, हालांकि इसके पूरा होने में 20 साल का व़क्त लगा. यह भी तब, जबकि राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने के साथ ही नई दिल्ली बनाने का फैसला लिया गया. इस तरह नई राजधानी केवल 16 साल के लिए अपनी भूमिका निभा सकी. नई दिल्ली में निर्माण कार्य 1931 में पूरा हुआ, जब सरकार इस नए शहर में स्थानांतरित हो गई. 13 फरवरी, 1931 को तत्कालीन वायसराय लॉर्ड इरविन ने नई दिल्ली का औपचारिक उद्घाटन किया. प्रसिद्ध लेखक खुशवंत सिंह के पिता सर शोभा सिंह ने लुटियन और बेकर के साम्राज्यवादी नक्शे के अनुरूप चूना, पत्थर और संगमरमर तराशने का काम किया. खुशवंत सिंह ने अपनी आत्मकथा सच, प्यार और थोड़ी सी शरारत में नई दिल्ली पर खासी रोशनी डाली है. उनके शब्दों में, मेरे पिताजी को साउथ ब्लॉक बनाने का ठेका मिला था और उनके सबसे जिगरी दोस्त बसाखा सिंह को नार्थ ब्लॉक बनाने का. हमारे मकान के सामने और दक्षिण दिल्ली से कोई बारह किलोमीटर दूर बदरपुर गांव से दिल्ली के लिए, जिसे आज कनाट सर्कस कहते हैं, छोटी रेलवे लाइन गई थी. बदरपुर से निर्माण स्थल तक पत्थर, रोड़ी और बजरी लाने के लिए यह लाइन बिछाई गई थी. जिस दिन छुट्टी होती, हम छोटी सी इंपीरियल दिल्ली रेल के आने का इंतज़ार करते कि कब वह आकर पत्थर उतारे और हम उसमें सवार होकर मुफ्त में कनाट प्लेस की सैर करके आएं.
दिल्ली दरबार रेलवे
दिल्ली दरबार के मद्देनज़र अंग्रेजों ने अतिरिक्त रेल सुविधाएं बढ़ाने और नई लाइनें बिछाने का फैसला किया. सरकार ने इसके लिए दिल्ली दरबार रेलवे नामक विशेष संगठन का गठन किया. मार्च से अप्रैल, 1911 के बीच यातायात समस्याओं के निदान के लिए छह बैठकें हुईं, जिनमें दिल्ली में विभिन्न दिशाओं से आने वाली रेलगाड़ियों के लिए 11 प्लेटफार्मों वाला एक मुख्य रेलवे स्टेशन, आज़ादपुर जंक्शन तक दिल्ली दरबार क्षेत्र में दो अतिरिक्त डबल रेल लाइनों, बंबई से दिल्ली बारास्ता आगरा एक नई लाइन बिछाने जैसे महत्वपूर्ण फैसले किए गए. सैनिक और नागरिक रसद पहुंचाने के लिए कलकत्ता से दिल्ली तक प्रतिदिन एक मालगाड़ी चलाई गई, जो हावड़ा से चलकर दिल्ली के किंग्सवे स्टेशन पहुंचती थी. इस तरह मालगाड़ी क़रीब 42 घंटे में 900 मील की दूरी तय करती थी. नवंबर, 1911 में मोटर स्पेशल नामक पांच विशेष रेलगाड़ियां हावड़ा और दिल्ली के बीच चलाई गईं. देश भर से 80,000 सैनिकों को दिल्ली लाने के लिए विशेष रेलगाड़ियां चलाई गईं.
इतिहास और अगर-मगर
अगर प्रथम विश्व युद्ध न छिड़ा होता तो नई दिल्ली के निर्माण में अधिक धन ख़र्च किया जाता और यह शहर अधिक भव्य बनता. यमुना नदी पुराने किले के साथ बहतीं और राजपथ से गुजरने वाले इसके गवाह बनते. अगर लॉर्ड कर्जन और उनके मित्रों की चलती तो नई दिल्ली को राजधानी बनाने का फैसला रद्द हो जाता. अगर हरबर्ट बेकर ने प्रिटोरिया का निर्माण न किया होता तो लुटियन को नई दिल्ली परियोजना में अवसर न मिलता और न विजय चौक (इंडिया प्लेस) प्रिटोरिया की तर्ज पर तैयार होता. अगर लुटियन की मर्जी चली होती तो राष्ट्रपति भवन (गर्वमेंट हॉउस) सरदार पटेल मार्ग पर मालचा पैलेस के नज़दीक रिज में बना होता. लॉर्ड हार्डिंग के इस प्रस्ताव को ख़ारिज करने के बाद ही रायसीना पहाड़ी पर वायसराय हाउस बना |

शुक्रवार, 9 दिसंबर 2011

वीरेंद्र सहवाग और नौ का अजीब आंकड़ा
मुल्तान के सुल्तान वीरेंद्र सहवाग ने गुरुवार को  इंदौर में वो कारनामा कर दिखाया, जिसका सपना विश्व का हर क्रिकेट खिलाड़ी देखता है। एक दिवसीय मैच में 200 रनों का आंकड़ा पार करने वाले सहवाग दुनिया के पहले खिलाड़ी बन गए । इससे पहले क्रिकेट के भगवान माने जाने वाले  सचिन तेन्दुल्कर ने दो सौ रनों   का आंकड़ा बना कर छोड़ रखा था।मास्टर बलास्टर  सचिन ने 24 फरवरी, 2010 उसी मध्य प्रदेश के ग्वालियर में दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ नाबाद 200 रन बनाए थे। इसके लिए उन्होंने सिर्फ 147 गेंदों का सामना किया था और 25 चौके तथा 3 छक्के लगाए थे। सहवाग ने अपनी दोहरे शतकीय पारी में 25 चौके और 7 छक्के लगाए। वहीं सहवाग ने 149 गेंदों में 25 चौके और 7 छक्कों की मद्द से 219 रन बना कर विश्व क्रिक्रेट में इतिहास रचाते हुए एक नया अध्याय रच दिया |।  इसके साथ ही नजफगढ़ का यह  नवाब वीरेन्द्र सहवाग एकदिवसीय इतिहास में दोहरा शतक बनाने वाले क्रिकेट के भगवान सचिन से आगे निकल गए है।मजे क़ी बात यह है कि "मुल्तान के सुल्तान" और "नजफगढ़ के नवाब" के नाम से मशहूर विस्फोटक सलामी बल्लेबाज वीरेंद्र सहवाग के साथ "नौ" का अजीबोगरीब खेल है। उनसे जु़डे सभी प्रमुख आंक़डों में "नौ" मौजूद है। अंक ज्योतिष में विश्वास नहीं करने वाले भले ही इसका अलग-अलग गणितीय आकलन करें लेकिन आंक़डे तो कम से कम यही बयां करते हैं। सहवाग ने गुरूवार को इंदौर के होल्कर स्टेडियम में वेस्टइंडीज के खिलाफ खेले गए एकदिवसीय मैच में 219 रन बनाकर इतिहास रच डाला। अपनी इस पारी के दौरान उन्होंने 149 गेंदों का सामना किया। मैच के दिन सहवाग 33 साल और 49 दिन के थे। बतौर गेंदबाज सहवाग ने एकदिवसीय मैचों में 92 विकेट ले चुके हैं। वर्ष 1999 में मोहाली में पाकिस्तान के खिलाफ एकदिवसीय करियर की शुरूआत करने वाले सहवाग ने टेस्ट मैचों में दो बार तिहरा शतक लगाया है। इनमें से एक 319 रनों की पारी थी तो दूसरी 309 रनों की। टेस्ट मैचों में उनका तीसरा सर्वोच्चा स्कोर 293 रनों का है। सहवाग ने अपने करियर का पहला शतक न्यूजीलैंड के खिलाफ 69 गेंदों पर ज़ाडा था। वर्ष 2009 में उन्होंने 60 गेदों पर शतक जडा था, यह किसी भी भारतीय बल्लेबाज द्वारा एकदिवसीय मैच में सबसे तेजी से बनाया गया शतक है। वर्ष 2009 में ही सहवाग को "विजडन लीडिंग क्रिकेटर इन वल्र्ड" का ताज मिला। यह सम्मान पाने वाले सहवाग भारत के एक मात्र खिल़ाडी हैं। सहवाग ने अब तक 92 टेस्ट मैच खेले हैं और उन्होंने 159 पारियों में 7,980 रन बनाते हुए 39 विकेट भी हासिल किए हैं। टेस्ट मैच में सहवाग क्रमश: 90, 99, 96 के तीन मौकों पर 90 और 100 रन के बीच आउट हुए हैं। वहीं, टेस्ट और एक दिवसीय मैचों में एक-एक बार वह 99 के फेर में भी फंसे हैं। दक्षिण अफ्रीका में खेले गए अंडर-19 टूर्नामेंट ने सहवाग को पहली बार देश में एक पहचान दी। घरेलू क्रिकेट में सहवाग नॉर्थ जोन व दिल्ली के लिए खेलते हैं। सबसे मजेदार बात यह है कि वर्ष 1990 में क्रिकेट खेलने के दौरान सहवाग का दांत टूट गया था और इससे उनके पिता इतने घबरा गए थे कि उन्होंने सहवाग को क्रिकेट खेलने से मना कर दिया। शुक्र हो, सहवाग की मां का जिन्होंने सहवाग का खेलना जारी रखा।  यहाँ यह बताना समायोचित होगा कि  सहवाग व सचिन तेंदुलकर से पहले चेन्नई में 21 मई 1997 को भारत के साथ खेलते हुए पाकिस्तान के सय्यद अनवर ने 22 चौकों व 5 छक्कों क़ी मदद से 146 बालों पर 194 रन बनाये थे | जबकि 31 मई 1984 में इंग्लेंड के खिलाफ खेलते हुए वेस्ट इंडीज के वीवेन रिचर्ड्स ने 170 बालों पर 21 चौकों व 5 छक्कों क़ी मदद से 189 रन जड़े थे | वहीँ जिम्बाब्वे के चार्ल्स कोवेंटरी ने 16 अगस्त 2009 को बंगलादेश के खिलाफ खेलते हुए 16 चौकों व 7 छक्कों क़ी मदद से 194 रन बना कर एक इतिहास रचा था |
प्रदीप श्रीवास्तव

बुधवार, 17 अगस्त 2011

 सचमुच का नहीं ,कागज पर बना है यह



इन चित्रों को देख कर आप चौंकिए नही,ये सचमुच का न तो ताजमहल है न ही एफिल टावर ,इसे बनाया गया है दो से तीन ईंच मोटाई वाले कागज के गत्ते से |जिसे बनाया है अमेरिका क़ी प्रशिक्षित
वास्तुकार (ट्रेंड आर्किटेक्ट) सुश्री क्रिस्टीना लिहाने ने | जिन्होंने केवल ताज महल या एफिल टावर ही नहीं अपितु अमेरिका के चुनिन्दा भवनों के साथ -साथ कुछ खास लोंगों घरों को भी कागजों पर उकेरा है | इसी को तो कहते हैं कला |
                                                                                प्रस्तुति :प्रदीप श्रीवास्तव

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सोमवार, 15 अगस्त 2011

16 अगस्त शिवाला युद्ध के230साल 
 
पहले स्वतंत्रता संग्राम का 
 
बिगुल काशी में ही बजा था

घोड़े पर हौदा -हाथी पर जीन |
चुपके से भागा वारेन हेस्टिंग ||
यह कहावत आज भी बनारस (काशी या फिर वाराणसी के नाम से जानते हैं) क़ी गलियों में पुराने लोगों के बीच लोकप्रिय है |जिसके पीछे एक कहानी है |कहते हैं के आज से लगभग दो सौ तीस साल पहले काशी राज्य क़ी तुलना देश क़ी बड़ी रियासतों में क़ी जाती थी | भूगोलिक दृष्टिकोण  से काशी राज्य भारत का ह्रदय प्रदेश था | जिसे देखते हुए उन दिनों ब्रिटिश संसद में यह बात उठाई गई थी कि यदि काशी राज्य ब्रिटिश हुकूमत के हाथ आ जाये तो उनकी अर्थ व्यवस्था तथा व्यापार का काफी विकास होगा |इस विचार विमर्श के बाद तत्कालीन गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग को भारत पर अधिकार करने के लिये भेजा गया |काशी राज्य पर हुकूमत करने के लिये अग्रेजों ने तत्कालीन काशी नरेश से ढाई सेर चीटीं के सर का तेल या फिर इसके बदले एक मोटी रकम क़ी मांग रखी |अंग्रेजों द्वारा भारत को गुलाम बनाने क़ी मंशा को काशी नरेश राजा चेत सिंह ने पहले ही भांप लिया था |अतः उन्होंने रकम तक देने से साफ मना कर दिया |परन्तु उन्हें लगा कि अंग्रेज उनके राज्य पर आक्रमण कर सकते हैं | इसी को मद्देनजर रखते हुए काशी नरेश ने मराठा,पेशवा एवम ग्वालियर जैसी कुछ बड़ी रियासतों से संपर्क कर इस बात कि संधि कर ली थी कि यदि जरुरत पड़ी तो इन फिरंगियों को भारत से खदेड़ने का सयुंक्त प्रयास करेंगे |
14 अगस्त 1781 ,दिन शनिवार ,जनरल वारेन हेस्टिंग एक बड़े सैनिक जत्थे  के साथ गंगा जलमार्ग से काशी पहुंचा | उसने कबीरचौरा स्थित" माधव दास का बाग (" जिसे आज"स्वामी बाग" के नाम से जाना जाता है | जो डॉ शिव प्रसाद जिला चिकित्सालय के ठीक बगल में है ) को अपना ठिकाना बनाया|कहते हैं कि राजा चेत सिंह के दरबार से निष्काषित औसान सिंह नामक एक कर्मचारी ने कोलकाता (पुराना नाम कलकत्ता)जा कर वारेन हेस्टिंग से मिला और उसका विश्वासपात्र बन बैठा |जिसे अंग्रेजों ने "राजा" क़ी उपाधि से नवाजा भी था |उसी के मध्यम से अंग्रेजों ने काशी पहुँचने के बाद काशी नरेश राजा चेत सिंह को गिरफ्तार  करने क़ी कूटनीतिक योजना बनाई |दिन रविवार ,तारीख  १५ ,माह अगस्त (१५ अगस्त १७८१) क़ी सुबह वारेन हेस्टिंग ने अपने एक अंग्रेज अधिकारी मार्कहम को एक पत्र दे कर  राजा चेत सिंह के पास से ढाई किलो चीटी के सर का तेल या फिर उसके बदले एक मोटी रकम लाने को भेजा | उस पत्र में हेस्टिंग ने राजा चेत सिंह पर राजसत्ता के दुरुपयोग एवम षड्यंत्र का आरोप लगाया था |पत्र के उत्तर में राजा साहब ने षड्यंत्र के प्रति अपनी अनभिज्ञता प्रकट क़ी| उस दिन यानि १५ अगस्त को राजा चेत सिंह एवम वारेन हेस्टिंग के बीच दिन भर पत्र वव्हार चलता रहा |
दूसरे दिन १६ अगस्त को सावन का अंतिम सोमवार ,हर वर्ष क़ी तरह राजा चेत सिंह अपने रामनगर किले क़ी बजाय शंकर भगवान क़ी पूजा अर्चना कराने गंगा के इस पार छोटे किले  शिवाला (चेत सिंह घाटके ऊपर बने ) पार आए थे| इसी किले में उनकी तहसील का छोटा सा कार्यालय भी था |कहते हैं कि जिस समय काशी नरेश शिव पूजन से निवृत हो कर अपने दरबार में कार्य देख रहे थे, कि उसी समय गवर्नर वारेन हेस्टिंग क़ी सेना  उनके दरबार में प्रवेश करने का प्रयास कर रही थी| परन्तु काशी के सैनिकों ने उन्हें सफल नहीं होने  दिया,तब एक अंग्रेज रेजीडेंट ने राजा साहब से मिलने क़ी इच्छा जाहिर क़ी और कहलवाया कि वह गवर्नर साहब का एक जरुरी सन्देश ले कर आया है| किन्तु राजा साहब के यह सन्देश प्रकट कराने पर कि वह तो आया है पर इतनी सेना साथ क्यों लाया है? इसके जवाब में रेजिडेंट ने यह कहकर नई चल चली कि सेना तो वैसे ही उसके साथ चली आई है , किले में केवल हम दो-तीन अधिकारी ही आएंगे|इस पर राजा साहब क़ी आज्ञा पर उन्हें अन्दर किले में भेज दिया गया | बातों ही बातों में दोनों ओर से तलवारें खिंच गई,इसी दौरान एक अंग्रेज अधिकार ने राजा चेत सिंह को लक्ष्य कर बन्दुक तानी,जब तक उसकी अंगुली बन्दुक के स्ट्रिंगर पर दबाती कि उसके पहले काशी के महशूर गुंडे बाबू नन्हकू सिंह क़ी तलवार के ही वार में उस अंग्रेज अधिकारी का सर काट कर दन जमीन पर आ गिरा,चारों ओर खून ही खून बिखर गया,जिसे देख कर खून से सने अंग्रेज अधिकारी चीखते-चिलात्ते उलटे पावं बाहर भागे |उधर किले के बाहर चारों तरफ छिपे किन्तु सतर्क काशी के बीर रण बांकुरों ने देख कर यह समझ लिया कि अन्दर किले में मर-काट मच गई है| फिर क्या था सभी बज क़ी तरह गोरी चमड़ी वालों पर टूट पड़े,लेकिन किस ने किस क मारा यह तो आज तक पाता नहीं चल सका |परन्तु शिवाला घाट पर बने उस किले के बाहर लगे शिला पत् पर अंग्रेजों ने यह जरुर अंकित करवा दिया कि इसी जगह पर तीन अंग्रेज अधिकारियों लेफ्टिनेंट स्टाकर ,लेफ्टिनेंट स्काट  एवम लेफ्टिनेंट जार्ज सेम्लास सहित लगभग दो सो सैनिक मारे गए थे |
इस घटना के तुरन्त बाद राजा कशी नरेश के मंत्री बाबू मनियर सिंह ने गवर्नर वारेन हेस्टिंग को गिरफ्तार करने क़ी सलाह राजा साहेब को दी,लेकिन उनके दीवान बक्शी सदानंद ने उन्हें ऐसा कराने से मना कर दिया |उधर वारेन हेस्टिंग अपने पकडे जाने के भय से "माधव दस बाग "के मालिक पंडित बेनी राम से चुनर जाने के लिये सहायता मांगी | इसी बीच उसे पाता चल गया कि अज साहब क़ी एक बड़ी फौज उसे गिरफ्तार  कराने इसी तरफ आ रही है|कहते हैं क़ी अपनी गिरफ्तारी के डर से वारेन हेस्टिंग उसी माधव दास बाग के भीतर बने एक कुँए में कूद गया | जब रात हुई तो उसने स्त्री का भेष धारण कर चुनर क़ी ओर कूच कर गया |
राजा चेत सिंह के दीवान बक्शी सदानंद क़ी यह सलाह कि वारेन हेस्टिंग को न गिरफ्तार किया जाय ,भारत के लिये दुर्भाग्य पूर्ण रहा |अगर उस दिन वारेन हेस्टिंग काशी नरेश क़ी सेना के हाथों गिरफ्तार कर लिया गया होता तो शायद अंग्रेजों के पावं भारत मेंही  ज़माने नही पाते |मजे क़ी बात तो यह है कि अंग्रेज इतिहासकारों ने  काशी  नरेश राजा चेत सिंह को भगोड़ा साबित किया  है ,और वहीँ दूसरी तरफ शिवाला घाट पर जो शिलापट्ट लगवाया उसमे साफ-साफ शब्दों में लिखवाया कि "इसी जगह उनके तीन अधिकारियों सहित दो सौ सैनिक मारे गए थे |जिसे आज भी वहाँ पर देखा जा सकता है | वे वारेन हेस्टिंग के भगोड़ा होने  क़ी बात पर चुप्पी साध गए|अगर इस घटना पर विचार करें तो स्वतंत्रता आन्दोलन का पहला बिगुल काशी में ही बजा था | लेकिन दुर्भाग्य यह है कि उस घटना क़ी याद में आज तक वहाँ पर कोई स्मारक तक नहीं बन सका है |हाँ इस दिन यानि १६ अगस्त को जिन परिवार के पूर्वजों ने स्वतंत्रता के लिये उस दिन  अपनी क़ुरबानी दी थी उनके परिजन जरुर एक " दीपक " उनकी याद में जरुर जलाते हैं |उस गौरव गाथा को आज भी इस प्रकार गया जाता है ,घोड़े पर हौदा ,हाथी पर जीन , चुपके से भागा वारेन हेस्टिंग...|
                                                                                                                     प्रदीप श्रीवास्तव

रविवार, 3 जुलाई 2011



केरल का पध्नाभास्वामी मंदिर
उगल रहा है अकूत खजाना
केरल के पध्नाभास्वमी मंदिर के तह खाने से सिलसिलेवार निकल रहे अकूत खजाने से पूरे देश मैं सनसनी फैल गई है,कहा जाने लगा है कि अगर इसी तरह मंदिर परिसर के तहखानों से सोने, चांदी ,हीरे जवाहरात निकलते रहे तो यह मंदिर बालाजी तिरुपति मंदिर से भी धनाड्य मंदिर के रूप मैं शामिल हो जाएगा |इन पंक्तियों के लिखे जाने तक वहां से लगभग पचहतर हजार करोड़ की अकूत दौलत निकली जा चुकी थी|जबकि यह सब केवल मंदिर के दो गुफाओं से निकले गए है,अभी पांच गुफाओं की खोजबीन की जानी है| इसे देखते हुए यह कहा जाय कि स्वामी पध्नाभास्वामी का मनिदिर सोना उगल रहा है,तो कोई अतिश्योक्ति नही होगी| कहते हैं कि इन तहखानो को १८७२ से खोला ही नहीं गया था|मंदिर से निकल रहे खजानों को देखते हुए राज्य सरकार ने वहा कि सुरक्षा बढ़ा दी है
बताया जाता है कि ट्रावनकोर राजाओं ने अंगरेजो से बचने के लिए अपने खजाने इस मंदिर के तहखाने मैं छुपा कर रख दिए थे |जिसे वे इसका उपयोग आकाल जैसी आपदा के समय में करना चाहते थे |मंदिर से अब तक पचास हजार करोड़ के जेवरात के साथ-साथ एक टन सोना तो मिला ही है|वहीँ भगवान विष्णु की सोने की एक मूर्ति मिली है जिस पर हीरे व् जवाहररात जैसे कीमती रत्न जड़ें हैं| जिसकी कीमत अभी तक आंकी नहीं गई है|इसके अलावा शुद्ध सोने की बनी कई आकृतियाँ भी मिली हैं जिका वजन एक-एक किलो है तथा उनकी लम्बाई अठारह फुट है| जबकि सिक्कों और कीमती पत्थरों से भरी कई बोरियां तो है हीं ,साथ ही ३५ किलो वजनी गहने भी मिलें हैं |बताया जा रहा है कि मंदिर में छह तहखाने हैं हैं जिन्हें से लेकर ऍफ़ तक का नाम दिया गया है|अभी केवल तहखाने को ही खोला गया है,जबकि शेष को सोमवार (चार जुलाई) से खोला जाएगा| तहखानों से मिल रही संपत्ति के दस्तावेज सुप्रीमकोर्ट में जमा किये जाएँगे| उसके बाद ही पध्नाभास्वामी मंदिर के खजाने की सही कीमत आंकी जा सकेगी|
संक्षिप्त इतिहास पध्नाभ मंदिर का
भागवान पध्नाभ को केरल के तिरुअनंतपुरम में पारिवारिक देवता के रूप में मन जाता है| इतिहासकारों के मुताबिक इस मंदिर का निर्माण त्रावणकोर वंश के शासक राजा मार्तंड वर्मा ने अठारहवीं शताब्दी में करवाया था| जिसे भव्य स्थापत्य कला एवम ग्रेनाईट के स्तंभों की लम्बी श्रंखला के लिए जाना जाता है|मंदिर के गर्भगृह में हजार सिर वाले शेषनाग पर लेटी हुई भागवान विष्णु की विशाल प्रतिमा है| उल्लेखनीय है कि लोककथाओं में इस बात का उल्लेख है कि मंदिर की दीवारों एवम तहखानों में राजाओं ने हीरे जवाहरात छिपा दिए थे|स्वतंत्रता के बाद इस मंदिर का कामकाज त्रावणकोर राजघराने के नेतृत्व में बनी एक ट्रस्ट देखती है |जिसके मुखिया राजघराने के मौजूदा उतराधिकारी यू.थिरूनल मार्तंड वर्मा कर रहे हैं ,जो मैनेजिंग ट्रस्टी भी हैं |
खबर लिखे जाने तक मंदिर के तहखानों की तलाशी जारी थी|
                                                                                                           प्रदीप श्रीवास्तव

'इंग्लैंड-आयरलैंड' और 'अंटाकर्टिका एक अनोखा महादेश'

किताबें-2 श्रीमती माला वर्मा की दो किताबें हाल ही में मिलीं, 'इंग्लैंड-आयरलैंड' और 'अंटाकर्टिका एक अनोखा महादेश' ,दोनों ह...