शुक्रवार, 22 अप्रैल 2022

रजनी के आगोश में सिमटा 'चारबाग स्टेशन' का सौन्दर्य




हते हैं कि एक समय था जब पश्चिम में सूर्यास्त होता तो अवध (लखनऊ)की शाम तवायफों के नृत्य एवं पुराने शहर की गलियां लजीज़ व्यंजनों की खुशबु से गुलज़ार हो उठती. समय बदला ,नवाबी काल गया , अंग्रजों ने हुकूमत संभाली ब्रिटिशों ने तो हज़रतगंज को तवज्जो दी . अंग्रेज गए,एक नए लखनऊ ने जन्म लिया .समय के साथ बहुत कुछ बदल गया.रह गईं नवाबों की गुम्बद व मीनारों वाली ऐतिहासिक धरोहरें . इन सबके साथ ब्रिटिश हुकूमत द्वारा बनवाई गई चारबाग रेलवे स्टेशन ,जिसे स्थापत्य कला का बेहतरीन नमूना कहा जाता है. चारबाग स्टेशन का नक्शा बनाया था उस समय के प्रसिद्ध वास्तुकार जे.एच. हर्नी मैन ने. बिशप जॉर्ज ने मार्च 1914 को इसकी बुनियाद रखी थी,जो 1923 में बनकर तैयार हुआ था. मतलब पूरे 9 साल लगे थे.उस समय इस स्टेशन के निर्माण पर 70 लाख का खर्च आया था. जहाँ पर आज चारबाग स्टेशन खड़ा है,यह जगह कभी मुन्नवर बाग़ के नाम से जाना जाता था.
चारबाग स्टेशन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि स्टेशन भवन के बहार ट्रेनों के संचालन एवं यात्रियों के शोरगुल की आवाज़ तनिक भी नहीं आती है. वहीं दूसरी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि स्टेशन परिसर में प्लेट फार्म नंबर तीन पर ऊपर से देखने पर भवन के ऊपर छतरीनुमा छोटे - बड़े गुम्बद शतरंज की बिछी बिसात की तरह लगते हैं .
स्वतंत्रता के 75 वें वर्ष में चारबाग स्टेशन का सौन्दर्य देखते बनता है ,विशेषकर रजनी के आगोश में. पश्चिम में सूर्यास्त के साथ ही पूरा स्टेशन परिसर कृत्रिम प्रकाश से जगमगा उठता है,फिर पल-पल में बदलते रंग मन को मोह लेते हैं. जब आप इस पल को अपनी नंगी आखों से देखेंगे तो ही उस सुखद अनुभव को जी सकेंगे.
दो दिन पहले बिटिया को छोड़ने स्टेशन गया था ,जब गया था तो शाम हो रही थी ,लेकिन स्टेशन से बाहर निकला तो रात हो गई ,मतलब अपनी पुरानी परम्परा के अनुसार ट्रेन लेट हो गई. पत्रकारिता का कीड़ा और फोटो खींचने की ललक के चलते अपने को रोक नहीं सका.साधारण से मोबाइल में उन लम्हों को संजो लिया आप के लिए.

मंगलवार, 5 अप्रैल 2022

बनारस में तीन दिन

 


किसी ने कहा है-

ख़ाक भी जिस जमीं की परस है ,

शहर  मशहूर यह बनारस है .

आज मैं उसी शहर बनारस में हूँ...

काशी,वाराणसी या फिर कहें 'बनारस', जहाँ के लोगों का विश्वास है कि पृथ्वी शेषनाग के फन पर और बनारस बाबा भोलेनाथ के त्रिशूल पर टिकी है. शायद यही कारण है की यहाँ गंगा उत्तरवाहिनी हैं,इस लिए भूकंप नहीं आता.कभी-कभी भगवान शंकर जब त्रिशूल पर पीठ टेक देते हैं ,तब यहाँ की जमीन कुछ हिल जाती है.

अद्भुत है बनारस ,तभी तो कहा जाता है कि बनारस ने जिसे अपना लिया ,वह जीवन भर वहीं  का हो कर रह जाता है. इसी गंगा की गोद में मैं ने अपने जीवन के स्वर्णिम ग्यारह साल बिताये है,यही कारन है कि आज भी बनारस के मोहपाश से छुट नहीं सका हूँ.दसवीं से परास्नातक,पत्रकारिता मैं स्नातक के साथ-साथ आज अख़बार की नौकरी इसी शहर मैं रहकर की है.

बनारस की गलियों का चप्पा-चप्पा साइकिल व पैदल से चलकर छाना है. 1978  की भयंकर बाढ़ की विभीषिका को इन्हीं नंगी आँखों से देखा है. जब नई सड़क तक गंगा नदी का उफान आया था,जहाँ से बचाव कार्य के लिए नावें चलीं थीं , काशी स्टेशन के निकट रेलवे पुल को गंगा का जल स्तर स्पर्श कर गया था.आपातकाल को इसी शहर में रहकर देखा,जयप्रकाश नारायण जी के आंदोलन को ,आरक्षण विरोधी आन्दोलन का इसी शहर में  ही रहकर उसका हिस्सा बना था. कैसे भूल सकता हूँ भगवन शंकर की इस नगरी को. शायद यही कारण है कि न तो मैं और न ही मां गंगा मुझे इस शहर से विसरित नहीं होने देना चाहती हैं.

कहते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में काफी बदल गया है बनारस . आधुनिकता के आवरण में बनारसीपन की पहचान लुप्त होती जा रही है.बनारस की संस्कृति के साथ खिलवाड़ हो रहा है,इन्हीं को कोरे कागद पर सनद के रूप में समेटने तो आया हूँ 

देश में पहली हड़ताल बनारस में  हुई थी.....

बहुत ही कम ही लोगों को पता होगा कि भारत (हिंदुस्तान)में पहली हड़ताल 24 अगस्त 1790 ई. में बनारस में हुई थी,जिसका कारण था गंदगी . केवल इसी बात के लिए ही नहीं 1809 में जब पहली बार गृह कर लगाया गया ,उस समय बनारसियों ने अपने मकानों में ताला लगा कर मैदानों में जा बैठे थे. इतिहास इस बात का गवाह है कि शारदा बिल , हिंदू कोड बिल,हरिजन मंदिर प्रवेश,गल्ले पर सेल टैक्स एवं गीता कांड पर पहली बार ही बनारस में ही हड़ताले व प्रदर्शन हुए थे. जिसका सीधा सा मतल निकल सकते हैं की बनारसी सदा से आजाद रहे हैं ,उन्हें किसी दखलंदाज़ी पसंद नहीं है.

चलते-चलते दो लाइन ...

चना चबैना गंग जल जो पुरवे  करतार |

काशी कभी न छोड़िए विश्वनाथ दरबार ||


बनारस के बारे में ये दो लाईने बहुत प्रसिद्ध है-

रांड, सांड , सीढ़ी ,सन्यासी

इनसे बचे तो सेवे काशी .

 सच में  बनारस अपने आप में अद्भुत शहर है. शहर में हर चार-पांच दुकानों के बाद आप को एक पण की दुकान मिलेगी .मोहल्लों के मकानों ,गलियों और सड़कों पर पान की पीक ,मानों होली खेली गई हो. बनारस आयें तो लंका का नाम न सुने,यह हो ही नहीं सकता ,अरे बाबा रावन वाली लंका नहीं ,मदन मोहन मालवीय जी वाली लंका,एक मोहल्ले का क्या सड़क का नाम है लंका,जिस पर स्थित है बनारस हिन्दू विश्विद्यालय ,वही लंका . जो शैव के त्रिशूल वाला चौराहा है. कितना अजीब लगता है सुनकर. इस चौराहे से एक सड़क संकट मोचन को जाती है तो दूसरी अस्सी की ओर,जबकि तीसरी सड़क राम नगर की और निकलती है . जो त्रिशूल का आधार दंड है उस पर स्थित है सर्वविद्या की राजधानी बीएचयू .है न अजीब शहर ,जिसे समझाना इतना आसान भी नहीं.



 सुबह-ए-बनारस, 

अवध की शाम 

और मालवा की रात...

  सचमुच बनारस की सुबह को जब आप अपनी नंगी आँखों से देखेंगे , तो उसके सौंदर्य का बोध होगा। न जाने कितने चित्रकारों ने अपने कोरे  कैनवास पर इस विहंगम दृश्य को उतारा होगा। वह दृश्य देखने वाला होता है, जब पश्चिम घाट से पूरब की ओर से शनैः शैनः सूर्य भगवान रेतों के बीच से ऊपर उठते हैं तो पूरी गंगा की धारा सिंदुरिया रंग में बदल जाती है, और उस समय अगर आप नाव पर सवार हैं तो फिर कहना ही क्या।तभी तो कहते हैं बनारस जिसे एक बार आपना लेता है तो जिंदगी भर वह बाबा भोले नाथ की नगरी को छोड़ नहीं पाता ।

   लगभग 30 साल बाद उसी गंगा की अविरल धारा पर नाव पर बैठ गंगा के सूर्योदय के उस विहंगम दृश्य को देख रहा हूं।जिसे मोबाइल में पत्नी कैद कर रही हैं। अद्भुत नजारा होता वह,जिसे हम-आप शब्दों में बयां नहीं कर सकते, केवल आंखों से ही देख सकते हैं ।







36 साल बाद मित्र से मिलना

आप कल्पना करें कि जब आपका कोई मित्र 36 साल के बाद मिले तो आप कैसा महसूस करेंगे। ऐसा ही कुछ हुआ इस बार की बनारस यात्रा में संजय श्रीवास्तव से मिलकर । संजय यद्यपि मेरे मित्र तो नहीं है मेरे छोटे भाई मित्र है लेकिन उनसे मित्रता वैसे ही है जैसे कोई एक मित्र होता है ।विश्वविद्यालय जीवन के दौरान समकक्ष होने के कारण हम लोग काफी घनिष्ठता  थी और शैतानियों की बात ही न पूछिए। जब मैं बनारस आया तो संजय ने फोन कर मिलने की इच्छा जाहिर की और बीती रात अपने घर पर खाने पर निमंत्रित किया। मित्र का आग्रह हो तो टाला कैसे जा सकता है ।हम लोग शाम संजय के घर पहुंचे और कई घंटे बिताए।  मित्रता 80 के दशक की है।यह  वह दौर था जब पेन फ्रेंड्स का दौर पूरे विश्व देश तेजी  में चल रहा था। बातों बातों में पता चला कि संजय की पत्नी रेनू श्रीवास्तव जी भी उस दौरान मेरी पत्र मित्रता की सूची में थी ।फिर जो बातों का सिलसिला चला तो अंत होने का नाम ही नहीं ले रहा था। देर रात संजय और उनकी पत्नी ने हम लोगों को घर तक छोड़ने भी आए। संजय इन दिनों अध्यापन कार्य से मुक्त होकर एक राष्ट्रीय न्यूज़ चैनल में बनारस ब्यूरो का काम देख रहे हैं। बधाई संजय भाई। चलते चलते बताता चलूं संजय जी के पिताजी भारतीय रेल सेवा में थे,बात 80 के दशक की है ।श्रीलंका में भारत सरकार के सहयोग से रेल पटरी बिछाई जा रही थी ।जिसका पूरा कार्य उन्हीं की देखरेख में हुआ था ।




कंक्रीट के जंगल में तब्दील होती "मसूरी"

 

     हिमालय की तराई में स्थित देहरादून से लगभग 24 किलोमीटर दूर एवं समुद्र तल से 6500 फीट की ऊंचाई पर बसा है 'मसूरी'। मसूरी जो पूरे साल ठंडा रहने वाला एक पहाड़ी कस्बा। जो अब शहर में तब्दील होने की राह पर है। कहते हैं इस क्षेत्र में कभी बड़े पैमाने पर मन्सूर के पौधे उगते थे , इसीलिए से पहले 'मन्सूरी' और बाद में 'मसूरी' कहा जाने लगा । यह  कस्बा 1823 से पहले एक निर्जन पहाड़ी हुआ करता था ।1827 में 'मसूरी' कस्बे की खोज कैप्टन यंग ने की थी ।जिन्होंने इसकी सुंदरता से प्रभावित होकर यहीं पर बसने का मन बना लिया।

इसी 'मसूरी' शहर में एक समय था जब शहर के माल रोड पर भारतीयों की आवाजाही पर अंग्रेजी हुकूमत ने प्रतिबंध लगा रखा था। जिसके लिए शिलापट्ट  लगा रखे थे। कि जिस पर लिखा था पर इंडियन एवं डालों  का आना अलाउड नहीं है । लेकिन स्वतंत्रता के 75 साल बाद इसी माल रोड पर 'अंग्रेज ऐसे गायब हो गए' "जैसे गधे के सर से सिंग। मजे की बात तो यह है कि अंग्रेज तो नहीं दिखते  लेकिन भारतीय कुत्तों की एक हुजूम देखी जा सकती है ।हां जिसे हम कह सकते हैं कि यह कुत्ते विदेशी नस्ल के कुत्तों की तरह ही है, 'माल रोड' पर । माल रोड पर किधर भी निकल जाएं तो आपको इस इन कुत्तों से सामना करना ही पड़ेगा, लेकिन ये  आपको नुकसान नहीं पहुंचाएंगे।मसूरी के माल रोड की संरचना बिल्कुल नैनीताल के माल रोड की तरह ही है।  जिसका निर्माण ब्रिटिश हुकूमत के अधिकारियों ने कराया था। 

  मसूरी में मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू गर्मियों में ठंड ठंडी बयार लेने आया करते थे। महात्मा गांधी ने दो बार इसी मसूरी शहर की यात्रा की थी। पहली यात्रा उन्होंने 1929 में और दूसरी यात्रा स्वतंत्रता से ठीक एक साल पहले 1946 में । तब महात्मा गांधी ने मसूरी के सौंदर्य को देखकर लिखा था।"यहां आ कर मैं अपने सभी दुख दर्द भूल जाता हूं । सच मसूरी सौंदर्य प्रेमियों के लिए स्वर्ग से कम नहीं है। चलते चलते यह भी बताता चलूं मसूरी मे "हैप्पी वैली" नामक एक जगह है ।जहां पर 1959 में चीन  के अधिकृत तिब्बत से निर्वाचित होने पर दलाई लामा ने यहीं पर अपनी पहली सरकार बनाई थी।लेकिन किन्हीं कारणों से बाद में हिमाचल के कांगडा शहर के धर्मशाला  में स्थापित हो गई ।

 मसूरी में एक जगह है लाल टिब्बा  जहां सी दूरबीन से अगर मौसम साफ रहे तो एवरेस्ट की चोटियां दिखाई देती हैं और साथ ही बद्रीनाथ व केदारनाथ के दर्शन भी हो जाते हैं। पर अब मसूरी बदल रही है।जगह जगह कंक्रीट के जंगल उभर रहे हैं जिसके चलते मसूरी के सौंदर्य में काल के ग्रहण लग रहे हैं। पर्यटक तो बहुत आते हैं, हो सकता है उत्तराखंड पर्यटन विभाग के राजस्व का एक बड़ा भाग यहां से मिलता हो ।लेकिन पर्यटकों के लिए कोई विशेष सुविधाएं न तो पर्यटन विभाग और न ही राज्य सरकार उपलब्ध करवा रही है। देहरादून से मसूरी के लिए राज्य परिवहन निगम की बसें न के बराबर  चल रही है जिसके  कारण टैक्सी वालों की लूटमार मची हुई है। अगर इस ओर  थोड़ा सा ध्यान दिया जाए तो मसूरी आने वाले पर्यटकों की संख्या में और इजाफा हो सकता है ।

जनसंदेश छोड़ी नहीं, निकला गया था


 विश्वमानव से जनसंदेश होने के बाद का सम्पादकीय परिवार 

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       सही बात है देश कि विश्वमानव से जन सन्देश अख़बार होने के बाद कई परिवर्तन भी हुए थे,होना भी स्वाभाविक प्रक्रिया के तहत था भी जरुरी. अख़बार करनाल से गुड़गांव शिफ्ट हो गया .लगभग सभी कर्मचारी भी वहीँ पहुँच गए ,केवल महिला कर्मियों को छोड़ कर .उनकी कई दिक्कते भी थीं. संपादक जी पंजाब वाले और प्रबन्धक जी भी आ गए. अख़बार छापना भी शुरू हो गया ,यह अलग कि बात है की कुछ दिनों तक वही दिल्ली के बहादुर शाह जफ़र मार्ग से एक दैनिक के यहाँ छपता रहा. एक-दो महीने तक स्टाफ को रहने के लिए नव निर्मित यूथ हास्टल उपलब्ध कराया गया ,स्टाफ को कार्यालय (कापस खेडा )तक लाने -ले जाने के लिए देवी लाल जी का चुनावी रथ मुहैय्या करवा दी गई. चुनाव के इतिहास मैं वह पहला रथ था जिसे बस के ढांचे मैं तैयार किया गया था,बटन दबाव,गेट खुल जाते, दूसरा बटन दबाव आटोमेटिक मंच बस के ऊपर निकल जाता . बहुत मज़ा लिया उस रथ का हम सभी स्टाफ ने.

         यह बताना भूल ही गया उन दिनों मैं फीचर देखता था ,जन सन्देश का पहला अंक विधिवत हरियाणा दिवस पर निकलना था ,संपादक जी के साथ चौटाला जी के पास मैं भी पहुंचा. जो भी बातें हुईं,वह अलग की बात. चंडीगढ़ से दिल्ली एक कर देना पड़ा . हरियाणा दिवस पर पहला अंक आया, फुल साइज़ का 70 पेज का .अब आप कल्पना कर लीजिये उन दिनों की यह हालत थी .केंद्र व राज्य सरकार के विज्ञापनों के आलावा उद्योगों आदि के आलग. केवल इतना ही नहीं एक माह तक हर रोज चार पेज का विज्ञापन का पन्ना अलग से अखबार के साथ बंटता रहा. इसी बिच दोपहर का अख़बार भी इसी के नाम से शुरु हो गया ,आठ पेज का टेबलाईड . उसकी विशेषता यह की वह बाज़ार में कम ,लेकिन दोपहर बाद दिल्ली से उड़ने वाले सभी विमानों में यात्रियों को उपलब्ध. यहीं से जन्संदेश की उलटी गिनती शुरू हो गई.

         इसी बीच दो बड़ी न्युक्तियाँ हुईं ,एक चोटाला जी के शायद बहनोई थे उनके अधिकार मैं पू


रा अख़बार ,दूसरी ग्वालियर के एक बड़े (स्वघोषित) पत्रकार कार्यकारी संपादक हो कर आ गए,जब नए संपादक जी आये तो वह भी अपनी टीम भी लेकर आये. यहीं अख़बार के दिन फिरने लगे .इधर प्रधान संपादक जी ने अपने बेटे को मेरी जगह फीचर संपादक बना दिया.मैं वापस समाचार कक्ष में.

          बस इसी दौरान परिवार वालों ने मेरी शादी तय कर दी ,और मैं लम्बी छुट्टी पर घर चला गया. शादी के जब वापस लोटा ,ऑफिस पहुंचा तो जो दरबान नमस्कार बोलता था ,उसने अन्दर जाने से रोक दिया , कारण पूछने पर गेट पर लगे नोटिस को पढने को कहा . सच उस पर निगाह गई तो मैं चकित रह गया ,निकलेजाने वालों में मेरा नाम दूसरे नंबर पर. कारण पता नहीं,संपादक से मिलने की बात की तो दरबान ने बताया जाखड साहब ने किसी को भी अन्दर जाने से मना किया है. किसी तरह सम्पादक जी बहार आये और सारी बातें बताईं ,छुट्टी पर जाने के बाद से कुछ कर्मचारी किसी बात को लेकर हड़ताल कर दी थी ,जिसके कारण सभी 35 पुराने (जो विश्वनव के थे )कर्मचारियों को निकल दिया गया है. इसके बावजूद संसथान ने मेरा पुराना बकाया वेतन का भुगतान बिना किसी हिचक के कर दिया .मज़े की बात यह है की साल भीतर ही जन सन्देश का प्रकाशन बंद हो गया .



रोचक प्रसंगों का उल्लेख जरूरी....

 

  जनसंदेश ,गुरुग्राम का सम्पादकीय परिवार 

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   पत्रकारिता में जवानी के दिनों की एक प्रसंग का उल्लेख करना जरूरी समझता हूँ,जिससे आगे के लोगों को पता चले कि तब और आज की पत्रकारिता में कितनी भिन्नता होती थी. जवानी के दिनों का मतलब ,तब तक शादी नहीं हुई थी.घुमक्कड़ प्रवृति का युवा ,जहाँ चाहो लगा दो ...उफ्फ तक नहीं करेगा.

     बरेली वाले नेता एरन जी के अख़बार विश्वमानव के करनाल संस्करण में कार्यरत था,बात 88-89 की है, हरियाणा के मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला होते थे,उनके सर पर अख़बार निकालने का भूत सवार हो गया ,उन्होंने ने विश्वमानव को खरीद लिया,मतलब अख़बार के साथ अख़बार के कर्मचारी भी ,बिक गए. महीने भीतर अख़बार का नाम बदल कर 'जन सन्देश' हो गया.लेकिन एक बात की तारीफ चौटाला जी की करूँगा कि उन्होंने ने कर्मचारियों के साथ अच्छा व्यवहार ही किया,सभी के वेतनों में योग्यतानुसार वृद्धि भी हुई .प्रबंधन मंडल में बदलाव जरुर हुए ,जो स्वाभाविक भी थे. मैनेजर व संपादक भी बदले,संपादक पंजाब से आये ,और मैनेजर वहीँ पास के किसी शहर के थे.मज़े की बात यह थी कि इन दोनों लोगों को पुत्र मोह बहुत था.जिसके लिए कुछ भी कर सकते थे,किया भी. ख़ैर ...

    वह मामला यह था कि हरियाणा में मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला,केंद्र में  खिचड़ी सरकार,उप प्रधानमंत्री देवी लाल जी, हरियाणा में राजनीतिक उठा पटक. सुबह नए संपादक जी का बुलउवा घर पर आया की कार्यालय बुलाया गया है,जल्दी-जल्दी कार्यालय पहुंचा, संपादक जी ने बताया कि चौटाला जी आज शाम को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे रहे हैं ,यह कार्यक्रम कर्नाटक भवन में शाम चार-पांच बजे होगा,उनका आदेश है कि इस खबर को तुम ही कवर करो, आफिस की जीप ले लो और एक बजे तक निकल जाओ ,जिससे समय तक पहुँच जाओ.यह सुनकर घबराहट बहुत हुई ,कभी दिल्ली में इस तरह के किसी बड़े राजनीतिक कार्यक्रम को कवर नहीं किया था,इस लिए अधिक. आफिस ने निकल कर अपने संचार संपादक जी को यह जानकारी दी,तो उन्हों ने न घबड़ाने की हिदायत दी ,और कुछ टिप्स दिए .वही समाचार संपादक जी आज एक बड़े अख़बार के प्रधान संपादक भी हैं.

  ख़ैर साहब दोपहर बाद आफिस की जीप से निकला दिल्ली के लिए ,दुबला-पतला लगभग सात फुट लम्बा ड्राइवर साथ में. रुकते-रुकते लगभग सवा तीन बजे कर्नाटक भवन पहुंचा.जहाँ पर गहमागहमी चरम सीमा पर. पत्रकारों व फोटोग्राफरों का हुजूम (तब टी वी चैनलों की आमद नहीं थी,एक मात्र दूरदर्शन ही हुआ करता था.) प्रेस कांफ्रेंस में उप प्रधानमंत्री देवी लाला जी को भी आना था,सुरक्षा के चाक-चौबंद व्यवस्था.दिल्ली के पत्रकारों को सभी जानते ही रहे होंगे,उनमें दुबला-पतला ,दाड़ी वाला एक युवक मैं . तभी अचानक मेरे पास सादे वर्दी में दो सुरक्षा कर्मी आये और एक किनारे ले जाकर बातचीत करने लगे,पहले तो मैं घबराया,क्योंकि मेरे पास कार्यालय का कोई परिचय पत्र नहीं था,लेकिन उन्ही लोगों ने जब मेरा,मेरे पिता जी का नाम  ,कहाँ से शिक्षा प्राप्त की ,कहाँ -कहाँ नौकरी की आदि-आदि बताया तो मैं अचंभित हो उठा.बाद मैं पता चला की उप प्रधानमंत्री के घर ,एवं चौटाला जी के घर अक्सर आना जाना मेरा रहता था,वह भी अख़बार के काम से ,इसलिए गुप्तचर विभाग ने मेरे बारे में मेरी जन्मभूमि फैजाबाद ,कर्मभूमि बनारस जा कर सारी जानकारी जुटाई थी. प्रेस कांफ्रेंस हुई ,चौटाला जी ने इस्तीफे की घोषणा की . उसके बाद धीरे से चौटाला जी को प्रणाम कर (पत्रकारिता के दृष्टिकोण से यह गलत है,लेकिन आखिर वह मेरे अन्नदाता जो ठहरे.)करनाल के लिए वापस. दूसरे दिन दिल्ली व आस-पास के सभी अख़बारों की  'लीड स्टोरी' थी.

कहने का मतलब पत्रकारिता के क्षेत्र में आप की पहचान आप के संस्थान के साथ-साथ आप के व्यवहार व काम से होती है,न कि परिचय-पत्र से.

चलते-चलते बताता चलूँ कि कुछ दिनों बाद फैजाबाद (आज का अयोध्या) घर गया तो पता चला कि दो लोग कुछ समय पहले आये थे,और मेरे बारे में पता कर रहे थे. तब अम्मा-बाबू को लगा था कि शादी वादी के चक्कर के लिए जानकारी ले रहे होंगे.   

पत्रकार का कार्ड चाहिए,पर पत्रकारिता नहीं करनी

     अपने चालीस साल की पत्रकारिता में मैं  कभी प्रेस के 'आई कार्ड' के लिए व्याकुल नहीं रहा ,बहुत से अख़बारों में काम किया जिसका आई कार्ड कैसा होता है ,यह आज तक नहीं जान सका.दैनिक आज से डेस्क पर काम शुरू किया था,लेकिन आज तक नहीं मालूम की उसका आई कार्ड किस रंग का था.कभी आवश्यकता ही नहीं पड़ी और अपने प्रभारी से पूछने तक की हिम्मत ही. विश्वमानव (सहारनपुर/करनाल ),उत्तरकाल(गुवाहाटी,असाम),जनसंदेश(दिल्ली,गुड़गाँव)सहित बहुत सी पत्र-पत्रिकाओं का संवाददाता /प्रतिनिधि भी रहा पर कभी किसी से आई कार्ड की मांग नहीं की और न ही किसी ने दिया.इसे आप मेरी मुर्खता समझ सकते हैं. क्यों कि पत्रकारिता के क्षेत्र मैं आप की पहचान आप के संस्थान से तो होती ही है और साथ होती है आप के काम से.आप का काम ही आप का नाम होता है ,जिसके लिए किसी आई कार्ड की जरुरत नहीं होती है.

   यह बात इस लिए कह रहा हूँ कि आज लोग ,विशेषकर युवा पत्रकारिता के लिए व्याकुल रहते हैं,लेकिन उन्हें पत्रकारिता का 'क,ख,ग' तक नहीं पता होता .लेकिन उनके गले में लाल,नीली या पीली पट्टी में फंसा एक कार्ड जरुर लटकता दिखाई देगा.इसका गत पांच वर्षों में मैं ने अनुभव किया है. इन पांच सालों में 'प्रणाम पर्यटन' एवं उसकी सहयोगी समाचार पत्रिका 'वसुंधरा पोस्ट' के लिए पचास अधिक पत्रकारों को परिचय-पत्र जारी किया होगा ,लेकिन इन पचास में से मात्र दो-चार सहयोगी ही ऐसे मिले जिन्हें पत्रकारिता की समझ है, इनमें महिला पत्रकारों व सहयोगियों पर अधिक विश्वास किया जा सकता है.कारण वह ईमानदारी के साथ अपने दायित्व का निर्वाह करती हैं. उनकी लेखनी पर विश्वास किया जा सकता है.

        आज पत्रकारिता मिशन नहीं व्यवसाय बन चुका है,इस लिए मिशन की बात की ही नहीं जानी चाहिए.मज़े की बात यह है कि लघु पात्र-पत्रिकाएं ही सबसे अधिक 'पत्रकार'होने का 'प्रमाण पत्र' का सर्टिफिकेट यानि आई कार्ड बांटती हैं,इसके पीछे  क्या कारण है ? यह इससे जुड़े सभी को मालूम है.मुझे कुछ कहने की जरुरत नहीं है.

  अधिक बातें न करते हुए सीधी सी बात कहता हूँ की जिन लोगों को (कुछ लोग को छोड़कर)अबतक  'प्रणाम पर्यटन' एवं वसुंधरा पोस्ट' का आई कार्ड प्राप्त है, उनकी अंतिम तिथि से स्वयम निरस्त हो जायेगा .नवीनीकरण की प्रक्रिया संभव नहीं होगी. इसी के साथ सभी को प्रणाम)


'इंग्लैंड-आयरलैंड' और 'अंटाकर्टिका एक अनोखा महादेश'

किताबें-2 श्रीमती माला वर्मा की दो किताबें हाल ही में मिलीं, 'इंग्लैंड-आयरलैंड' और 'अंटाकर्टिका एक अनोखा महादेश' ,दोनों ह...