रविवार, 1 नवंबर 2009

             कंक्रीट के जंगल में लुप्त होती गौरय्या

पाठको आप में से कई लोगों को याद भी नहीं होगा कि आखिरी बार गौरय्या उन्होंने कब देखा था, नई पीढी के बच्चों ने तो केवल अपनी पाठ्य पुस्तकों में ही पढ़ा होगा ,वह भी गौरय्या नहीं ,अंगरेजी में स्पयरो शब्द से ही जानते होंगें. जानेंगे भी कैसे ,महानगरों कि बात छोडें, अब तो छोटे शहरों के साथ -साथ कस्बों में भी बन रही अपार्टमेंटों के अलावा ध्वनी प्रदूषण के चलते नन्हीं सी खुबसूरत जान घबरा कर गायब हो गईं हैं.कंक्रीटों के जंगल के बीच जरुर शहरों के सोंदर्य में चार-चाँद लग गए हों,लेकिन सच्चाई ये है कि कंकरीट के इस जंगल में पेड़ गायब होते जा रहें है ,या यूँ कहें कि गायब होते पेडो के चलते इन गौरय्या का बसेरा काम हो गया है.महानगरों कि भागम -भाग कि जिंदिगी के बीच वाहनों कि चकाचोंध एवं ध्वनी प्रदुषण के चलते लोगों में इतना समय नहीं है कि वे इन नन्ही जान कि दाना पानी दें सके.

लगभग दो दशक पीछे चलें तो आप को याद आयेगा कि किस तरह यह घरेलु चिडिया गौरय्या कि चहचाहट से घर वालों कि नींद खुलते थी ,दादी हों या नानी वे अपनें हाथों में झाडू लेकर घर के बड़े आँगन को बुहारने लगाती थीं. आंगन साफ होते ही गौरय्या का झुंड चीं-चीं करती आंगन में उतर आतीं. जिन्हें देख कर हम छोटे -छोटे बच्चे किलकारी भरते हुवे उन्हें पकड़ने का प्रयास करते ,लेकिन वे नन्ही जान फुदक कर दूर जा बैठती .याद करें कि तब सुबह का आभास सूर्योदय से पहले इन गौरय्या कि चहचाहट या फिर कोवे के कावं- कावं से होता था.जिनकी आवाज सुनकर लोग अपना बिस्तर छोड़ देते थे. अब उन आवाजों वा चहचाहट कि जगह ले ली है मोबाईल कि टोन ने .आखिर क्यों, क्यों कि उनकी चहचाहट को हम-आप ने छीन ली है. क्यों कि कटते पेड ,बढते प्रदुषण के चलते यह नन्ही जान गौरय्या हमसे रूठ गई है.अब आप कि कहाँ सुने देती है इनकी कलरव.इनका रूठ जाना भी जायज है. हम अपनी आधुनिक जीवन शैली में इतने स्वार्थी हो गएँ हैं कि हमें उनके जीवन कि परवाह ही नहीं रही .
याद करें तब मकानों कि ऊँची-ऊँची दीवारे होती थी,जिन पर रोशनी वा हवा आदि आने के लिए रोशन दन बने होते थे, जिन पर वे तिनका-तिनका जोड़ कर अपना घोंसला बनती,फिर उसमें अंडा देती ,जिसका वे कितना ख्याल रखती. हम छोटे भाई-बहन कभी -कभी उनके घोसलों से अंडे हटा देते .जब वे वापस लोटती तो घोंसले अपने अण्डों को न देख कर कितनी तेज ची-ची करती,जिसे सुनकर माँ ,नानी वा दादी हम लोगों पर कितना गुस्सा करती .जब हम अंडे वापस रख देते , तो वे उन्हें देख कर कितनी खुश होतीं थी ,इस बात का पता आज चलता है,जब हम अपने बच्चों को कुछ समय बड देखते हैं.आज जो घर बन रहे हैं उनमे आदमी के लिए ही जगह नहीं होती ,तो वहाँ पर पक्षी अपना घरोंदा कहाँ बना सकते हैं. जो जगह बनाते भी हैं तो वहाँ पर शीशे या फिर लोहे कि जाली लगवा देते हैं.
कहने का मतलब आज हम अपने घरोंदों के बनवाने के फेर में इन नन्ही जान के घरोंदो को छिनते जा रहे हैं. आखिर वे जाएँ तो जाएँ कहाँ ? कालोनियों में पार्क तो बन रहें हैं ,लेकिन वहाँ पर पेडो कि जगह लोहे के खेलने के उपकरण लग गएँ हैं.शहर ही नहीं गांवो इ हालत बुरी हो चली है,खेतों कीटनाशक डालने से मरे कीट गौरेये के खाने के लायक नहीं रहे पहले घरों के आंगन में बच्चो द्वारा खाना खाते वक्त आधा खाते आधा गिराते थे ,अब वह भी नहीं रहा.बच्चे घर कि चार दिवारी के भीतर डायनिंग टेबल पर खाते हैं.तो फिर जूठन कहाँ निकलेगा,जिसे चिरिया चुग सकेगी .
बात केवल गौरय्या कि ही नहीं है,अब न तो कोवे दिखाई देते हैं न ही गौरेये कि सहेली मैना ही दिखाती है,न ही कोयल कि कूँ- कूँ सुनाई देती है.तोते कि बात ही न करें टी बेहतर होगा .
आखिर यह सब क्यों, इसी लिए न कि हम सब प्रकृति से खुलकर खिलवाड़ जो करने लगें हैं इसका फल भी तो हमें आप को ही भुगतना पड़ेगा .यह समस्या केवल भारत कि ही नहीं बल्कि पुरे विश्व कि है.इसके लिए हमें और आप को ही पहल करनी होगी .तभी हम अपने पशु पक्षियों को बचा सकें गें ,नहीं तो ये सब भी इतिहास के पन्नों में अंकित हो कर रह जायेंगें
                                                                                                                                      प्रदीप श्रीवास्तव

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