मंगलवार, 28 दिसंबर 2021

फोटो के साथ हुईं रस्में

 


अयोध्या और....7

           दो माह बाद यानी 27 फरवरी को वैवाहिक जीवन के पूरे तीस साल हो जायेंगे ,अब आप कहेंगे कि यह भी कोई बात हुई ,सही भी है. पर इसी बात में ही तो बात है.मुझे लगा कि विवाह को लेकर जो कुछ मेरे साथ हुआ ,वह कम रोचक नहीं है ,इसलिए आप सभी के साथ साझा कर रहा हूँ ,शायद आप को जानकर अच्छा भी लगे.

        बात सन 1992 के जनवरी माह की है.उन दिनों मैं हरियाणा के गुड़गांव (अब गुरुग्राम) से निकलने वाले हिंदी दैनिक 'जनसंदेशमें बतौर फीचर संपादक कार्यरत था.उम्र यही तीस से थोड़ा अधिक .या यूँ कहें कि शादी करने वाली हो गई थी.अम्मा-बाबू इस बात के लिए परेशान भी रहते,रिश्ते कम ही आते ,जो आते भी वो इस लिए बिदक जाते की 'लड़का पत्रकार है,क्या कमाता होगा क्या खुद खाएगा,और क्या मेरी बेटी को खिलायेगा. उसका मुख्य कारण था कि उन दिनों अख़बारों मैं वेतन की बहुत बुरी स्थिति हुआ करती थी. बात भी सही थी. डेस्क पर काम करने वालों की पूछिए ही नहीं. तीन चार विकली आफ़ में काम कर लिया तो आगे वही छुट्टी एक साथ लेकर घर जाना हो जाता.

    इसी क्रम में उस वर्ष 26 जनवरी अर्थात गणतंत्र दिवस रविवार को पड़ रहा था ,इस लिए चार दिन की और छुट्टी लेकर अपने घर फैजाबाद(अब अयोध्या)जाने का कार्यक्रम बनाया ,विधिवत संपादक जी से स्वीकृत भी करा ली. उन दिनों फोन अरे वही चोगा वाला ,सभी के यहाँ तो होते नहीं थे ,जिसके घर होता भी था तो उसकी हालत पूछिए ही मत.ख़ैर साहब मेरे घर से लगकर चार-पांच घर छोड़ कर मास्टर चाचा (स्व शांति स्वरूप वर्मा जी,वाही मनोहर लाल स्कूल वाले) के यहाँ होता था ,एक कहावत है न गांव की भौजाई -जगभर की भौजाई ,बस वाही हालत उस फ़ोन की थी. हां तो बता रहा था कि 24 जनवरी की रात संपादक जी से घर बात करने की अनुमति लेकर फोन मिलाया और छोटे भाई को बुलाने का आग्रह कर फोन काट दिया. लगभग चालीस मिनट के बाद फिर मिलाया .इतना लंबा गैप इसलिए जहाँ फोन किया था वहां से कोई घर जा कर यह संदेश तो दे सके,और वह वहां आ सकें.

      छोटा भाई फोन पर आया ,उससे मैं जैसे ही कहा कि कल रात (25 की)चल कर 26 की सुबह घर पहुंच रहा हूँ,इतना कहना ही था की दूसरी तरफ से तपाक से बात काटते हुए भाई बोला कि अच्छा  हुआ की फोन कर लिया,हम लोग करने ही वाले थे,यह सुनकर मैं सकपका गया ,लगा की बाबू की तबियत अधिक ख़राब हो गई क्या,जो बताया नहीं. अभी कुछ बोलता ही कि उसने बोला की 'आ जाओ ,जरुरी है,तुम्हारी शादी तय हो गई है,यह सुनकर मैं हक्का-बक्का रह गया ,तभी सामने बैठे संपादक जी ने मेरे चेहरे के भाव देख कर पूछ बैठे क्या हुआकुछ छड  सोचकर उन्हें यह जानकारी दी. जिसे सुनते ही उन्होंने पहले आशीर्वाद दिया,उसके बाद मिठाई के नाम पर रात्रि पाली के सभी (पूरे प्रेस कर्मियों को चाय पिलवाई. आखिर गुडगांव के उस छोटे से कापसहेड़ा कस्बे में इतनी रात मिठाई कहाँ मिलती.

      ख़ैर साहब 25 को चल कर 26 की सुबह फैजाबाद घर पंहुचा तो सारा वाक्या का पता चला . हुआ यूँ कि 16 जनवरी को मेरी पत्नी के माता-पिता उनको लेकर फैजाबाद आये और मिलिट्री मंदिर देखने-दिखाने का क्रम चला.छोटा भाई भी साथ ही था. अम्मा को लड़की भा गई ,बात फिट . वह इसलिए कि शादी के लिए मैंने पहले ही कह रखा था कि आप लोग (जिसमें दोनों बहने बहनोई एवं भाई शामिल थे) जहाँ चाहो करो,मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी. हुआ भी वही . अम्मा-बाबू एवं भाई इन्हें देख कर लोटे ही थे कि इतने में बनारस से छोटी बहन-बहनोई पहुँच गए ,सभी को अच्छे कपडे(भाई तब कहीं बहार जाना होता था तो कुछ अच्छे कपड़े होते थे जिन्हें पहना जाता था,आज की तरह ब्रांडेड नहीं) में देख कर पूछा तो अम्मा ने सारी बातें बता दीं. बस क्या था ,यह तय हुआ कि बरीक्षा व गोद भराई की रस्म कल ही कर दी जाये. बस रात 10 बजे छोटे बहनोई और भी इनके मामा के घर पहुँच गए ,जहाँ सभी लोग रुके थे.इतनी रात को सभी को देख कर उन लोगों को कोई आशंका हुई ,लेकिन जब बताया गया की कल दोनों रस्में करनी है,तो थोड़ी रहत उन सबको मिली.इसी बीच छोटे बहनोई साहब सुबह ही अमेठी पहुंचे और जीजा ,जिज्जी व बच्चों को लेकर फैजाबाद पहुँच गए. फिर फोटो के आधार पर सारी प्रक्रियाएं पूरी करवाई गईं. और इस तरह से अगले माह की 27 तारीख (फरवरी 1992) को हम सप्तपदी के सात फेरों के साथ बांध दिए गए.

    शादी के बाद जब वापस गुड़गांव लौटा तो पता चला कि चौटाला (ओम प्रकाश चौटाला,पूर्व मुख्यमंत्री ,हरियाणाआज कल सरकारी मेहमान बन कर संखिचों के पीछे हैं ) ने एक साथ पुराने 35 कर्मियों को बहार का रास्ता दिखा दिया था,जिसमें मेरा भी एक नाम था. अब आप सोचो ,शादी के बाद लोग हनीमून (तब तो यह सब होता नहीं था,यूँ ही लिख दिया)पर जाते थे ,लेकिन इधर तो संसथान ने ही बहार का रास्ता दिखा दिया था.उन दिनों को याद कर रूह कांप जाती है. ख़ैर ....

इसी के साथ अयोध्या और ... समाप्त       

 

शनिवार, 11 दिसंबर 2021

खजुरहट बनाम ननिहाल अर्थात अम्मा का मायका

 अयोध्या और मैं -6

         जहाँ तक  मैं समझता हूँ कि देश के नब्बे प्रतिशत बच्चों से यदि गांव के बारे में पूछा जाये तो वह अपने ददिहाल के बजाय ननिहाल का ही जिक्र करेंगे .करें भी क्यों न ,क्यों कि जो मान-सम्मान प्रतिष्ठा उन्हें अपने माँ के गांव में मिलती थी /है वह अपने पिता के गांव में नहीं .मैं ने भी अपने गांव को अपने ददिहाल से कहीं अधिक ननिहाल में देखा है. जहाँ हर साल गर्मी की छुट्टियों में पूरा दो माह बिताते थे .

        20 मई की सुबह 10 बजे तक स्कूल में परीक्षा परिणाम (रिजल्ट) लेने के बाद नानी के पास जाने का निर्धारित कार्यक्रम तय रहता ही था . मेरा ननिहाल फैजाबाद शहर से मात्र तीस किलोमीटर दूर सुल्तानपुर रोड पर बीकापुर तहसील के अंतर्गत एक प्रमुख बाज़ार है खजुरहट के निकट गड़ई गांव में है .जहाँ आज भी मामा -मामी उनके बच्चे ,बच्चों के बच्चे रहते हैं . हाँ तो कह रहा था कि रिजल्ट लेने के बाद हम दो भाई (मुझसे छोटा) दोपहर की एक बजे फैजाबाद से इलाहबाद (आज जिसे प्रयागराज का नाम मिल गया है)जाने वाली सवारी गाड़ी पकड़ लेते और लगभग एक से सवा घंटे का सफ़र छुक-छुक रेल गाड़ी से तय कर खजुरहट स्टेशन पर उतर जाते . तब हाथ में कोई बैग या ब्रीफकेस तो होता नहीं था ,अम्मा के हाथ का सिला दो टंगने वाला "झोला" ही होता था जिसमें दो -तीन निकर ,बुशर्ट ,पटरी वाली जांघिया होती. खजुरहट स्टेशन से नाना का गांव लगभग पांच किलोमीटर तो होगा ही ,स्टेशन से उतर कर खेतों के बीच पगडंडियों को पकड़ कर चल देते ,तब गांव मैं रिक्शा या अन्य साधन नहीं थे न भाई,सो पैदल ही चलना पड़ता था. उस समय उम्र रही होगी 13-14 साल ,जहाँ तक याद आ रहा है ट्रेन का टिकट होता था एक रुपये. स्टेशन से गांव जाने में खजुरहट बाज़ार पड़ता ,जहाँ पर छोटे मामा की किराना की एक छोटी सी दुकान थीथोड़ी देर वहां पर रुकना ,लेमन चूस चुसना फिर गांव जाने वाले किसी की साईकिल पर मामा बैठा देते ,और पहुँच जाते नानी के पास.

        नाना पांच भाइयों मैं सबसे बड़े थे ,जिनका नाम था चंद्रभान लाल ,उनके बाद सूर्यभान,शशिभान ,रविभान एवं सबसे छोटे नाना का नाम था रुद्र्भान लाल . शशिभान  नाना प्रधान थे,रवि भान नाना खजुरहट इंटर कॉलेज में आर्ट के मास्टर थे,इसलिए उन्हें सभी मास्टर नाना कहकर बुलाते थे. सूर्यभान एवं रूद्र भान नाना फैजाबाद कचहरी में वकालत करते थे. मास्टर नाना का निधन बहुत कम उम्र मैं हो गया था,उनकी हलकी सी स्मृति ही मस्तिष्क में है.मेरे नाना यानी चंद्रभान लाल बनारस के उद्योगपति के यहाँ उस समय में मैनेजर हुआ करते थे. झक सफ़ेद धोती ,कलफदार सफ़ेद कुर्ता उस पर खादी की सदरी एवं सर पर टोपी  उनका नियमित पहनावा था.नाना के पिता जी यानी मेरे परनाना का नाम था गंगा सहाय ,नाना की दो बहने भी थीं,जिन्हें हम लोग बड़की बुआ एवं छोटकी बुआ नानी के संबोधन से बुलाते थे . बड़की बुआ नानी को कोई बच्चा नहीं था,जबकि छोटकी बुआ नानी को एक लड़की एवं तीन लडके थे. नाना के पांचो भाइयों से 11 लडके एवं 11 लड़कियां थीं. इन सबमें मेरी अम्मा (नाम उमा था पर घर वाले बुंदल के नाम से संबोधित करते थे)सबसे बड़ी थीं . जिनका पूरे  गांव में इतना सम्मान था कि पूछिए नहीं. इस लिए गड़ई गांव में घुसते ही लोगों को पता चल जाता था कि बुंदल के बच्चे आयें हैं. किसी के खेत से गन्ना हो या गंजी उखाड़ लोकिसी के आम के बाग़ से आम तोड़ लो कोई बोलने वाला नहीं ,मतलब ननिहाल में सौ खून माफ़.

      नाना के साथ अपनी नानियों के बारे मैं भी बताता चलूँ. मेरी नानी सुंदरी देवी सबसे बड़ी थीं,गोरी,कद काठी की अच्छी ,परिवार के सभी लोग उन्हें दुध्धू अम्मा के संबोधन से बुलाते थे.पूरे घर का नियंत्रण उन्ही के हाथ में था .यद्यपि सभी नानियों का अपना-अपना काम बटा था.दूसरे व तीसरे नंबर वाली नानी फैजाबाद में रहती थी.तीज -त्यौहार एवं गर्मियों की छुट्टियों मैं ही उनका गांव आना होता था. गांव पर रहने वाली नानियों में मेरी नानी व उनके बाद प्रधान नाना वाली नानी और मास्टर नाना वाली नानी ही रहती थी. प्रधान नाना वाली नानी को प्रधानीन नानी एवं मास्टर नाना वाली नानी को करसारी वाली नानी कह कर बुलाते थे,कारण  उनका मायका करसारी गांव में था. पुरे घर का देखभाल -हिसाब-किताब मेरी नानी के पास होता था. जबकि गल्ला-पानी का नियंत्रण प्रधानीन नानी के पास . प्रधानीन नानी एवं करसारी वाली नानी के हिस्से में पूरे घर का खाना सुबह-शाम बनाना अतिरिक्त जिम्मेदारी थी . तब बड़े-बड़े हंडों में रोज का खाना बनता था ,आज की तरह प्रेशरकूकर में नहीं. सब्जी-भाजी का मामला बड़ी नानी के पास. जब फैजाबाद वाली दोनों नानियाँ आतीं तो उनके जिम्मे भी  खाना बनाने का दायित्व बढ़ जाता.   

    गांव का नाम 'गड़ईक्यूँ पढ़ा यह तो नहीं मालूम लेकिन गांव में कई छोटे-छोटे तालाब जरुर थे,जिसे स्थानीय भाषा में गढ़ई बोलते थेउन तालाबों से बहुत मछली  मर कर खाई है. अब तो उन तालाबों की जगह छोटे-छोटे घरों अपना कब्ज़ा कर लिया है. नाना का घर इसी तरह एक छोटे से तलब के ऊपर टीले पर है ,यह अलग की बात है की समय के थपेड़ों की वजह से उसका स्वरुप जरुर बदल गया है ,लेकिन दिल व दिमाग में आज भी वही नानी -नाना और  अम्मा मतलब 'बुंदल जीयाका मायका अंकित है,अम्मा गांव मैं भी शायद सबसे बड़ी थीं इस लिए उन्हें लोग जीया और 'बुंदल बहिनीकह कर ही बुलाते थे . 'गड़ईमें लगभग सौ घर तो रहे होंगे उस समय,जिनमें सभी जाती धर्म के लोग रहते थे,मिलनसार इतने कि किसी के यहाँ किसी तरह काम-काज होता तो पता ही नहीं चलता की कैसे हो गया.

  चलते-चलते बताता चलूँ की उस समय नाती और भांजे होने का कितना लाभ मिलता था कि पूछिये नहीं. गांव मैं दो-तीन घर मुस्लिम परिवार के भी थे . उनमें एक घर था मौलवी नाना का ,उम्र रही होगी सत्तर-अस्सी साल के बीचगर्मियों की छुट्टी मैं सभी मामा ,मौसियों का परिवार तो इकठ्ठा ही होता था,दर्जनों बच्चे मौलवी नाना के यहाँ अक्सर मठ्ठा पीने को मिलता ही था .अगर किसी दिन नहीं मिला तो ,बस पूछिए मत . उस ग्रुप में जो बच्चा बड़ा होता वह लीडर होता,उस दिन वह आगे चलता और मोलवी नाना के इर्दगिर्द चक्कर लगते हुए नारा लगते 'मोलवी साहब बंदगी .... फिर उनके पीछे चलने वाले बच्चे बोलते पा..ओं सारी  जिंदगी '. मौलवी नाना अपनी छड़ी लेकर मारने दौड़ते .लेकिन कभी भी मौलवी नाना ने किसी बच्चे पर पर हाथ नहीं उठाया. बल्कि बुला कर मठा जरूर पिलवाते थे. यह होता था ननिहाल का वह सुखजिसकी कल्पना आज पीढ़ी  कर नहीं सकती .

(इसके बाद की बात अगले रविवार को यहीं पर)  

शुक्रवार, 10 दिसंबर 2021

बच्चे ,...चाचा और चौक

अयोध्या और मैं 5

     यह शास्वत है कि बचपन में हर बच्चा चंचल,नटखट एवं शैतान तो होता ही है ,यह अलग की बात है कि उसकी शैतानियाँ किस तरह की हो. इस बात से कोई भी इन्सान इंकार नहीं कर सकता कि उसने शैतानियाँ न की हो. हाँ उम्र के इस पड़ाव में लोग-बाग़ अपनी बचपन की शैतानियों को अपने बच्चों के सामने कहने से हिचकते जरुर हैं. कभी -कभी कई बच्चे मिल कर  कोई ऐसी शैतानी करते हैं तो उसका परिणाम ख़राब भी हो सकता है . अपने मोहल्ले के शैतान बच्चों में मैं भी शुमार था ,उन दिनों जो शैतानियाँ की थी उसे याद कर आज भी रंगोटे खड़े हो जाते हैं. ख़ैर साहब आप सब के सामने बताने मैं कोई हिचक महसूस नहीं कर पा रहा हूँ.

शहर के पुराने मोहल्ले की संरचना अपने मष्तिक में कर लीजिये ,यह इस लिए कि अब मोहल्ले कम कालोनियां अधिक उग आईं  हैं.ऐसा ही फैजाबाद शहर के बीच हमारा मोहल्ला है 'तेली टोला', तेली टोला नाम क्यों पड़ा इसका कोई इतिहास लिखित रूप में नहीं है. बचपन में जो बुजुर्गों से सुनता था उसके मुताबिक इस मोहल्ले में कड़ुआ तेल (सरसों का तेल,जिसे आज की पीढ़ी मस्टर्ड आयलके नाम से जानती है) का व्यवसाय करने वालों की आबादी अधिक थी,इसी कारण मोहल्ले का नाम तेली टोला पड़ा .वैसे इस मोहल्ले में सभी जाती व समुदाय के लोग रहते हैं,परन्तु कभी भी किसी तरह का विवाद या संघर्ष नहीं हुआ.

   तेली टोला मैं लालाओं यानी कायस्थों की संख्या बहुल्य है. बात सन 1972-73 की ही होगी ,एक चाचा रहते थे ,उस समय उनकी उम्र रही होगी 60 के ऊपर ही , बच्चे-बूढ़े ,जवान सभी ....लाला के नाम से पुकारते थे ,मतलब फलां चाचा ,फलां बाबा आदि-आदि . उनकी आदत थी कि वह कभी भी अपने घर के भीतर नहीं सोते थे. अच्छी तरह याद है कि उन्हें घर के बाहर ही एक छोटी सी चारपाई (जिसे स्थानीय बोली में खटोला बोलते हैं) पर ही सोते देखा था. जो लोग मोहल्ले में पले-बढ़े उन्हें मोहल्ले के वातावरण की अच्छी जानकारी होगी ही. मेरे घर के सामने एक कुआं था (है तो अभी भी लेकिन अब वह आधुनिक मकान की चाहर दीवारी में कैद है)वहीँ पर रात  आठ बजे खाना खाने के बाद सभी की बैठकी लगती थी. एक रात हम लोग एक कवि  सम्मलेन सुनकर लौट रहे थे , ...चाचा को मोहल्ले के लड़कों ने घर के बहार सोते देख लिया ,फिर क्या दिमाग में बदमाशी सूझी और उन्हें चारपाई सहित अहिस्ता से बिना किसी शोर-शराबे के उठाया और चौक घंटा घर पर छोड़ कर भाग लिए. सुबह लगभग चार बजे के आस-पास जब चाचा की नींद खुली तो अपने को घंटाघर के नीचे लेटा देखकर हैरान हो गए . उनकी समझ में यह नहीं आ रहा था कि आखिर वह यहाँ तक पहुंचे तो कैसे? फिर वह समझ गए कि यह सब मोहल्ले के बदमाश लड़कों की ही शैतानी होगी. बेचारे किसी तरह अपने खटोला को लेकर घर पहुंचे .

  इधर पूर्व दिशा में अपनी शीतल लालिमा को सूर्य देवता रंग बदलते हुए ऊपर चढ़ रहे थे,उधर चाचा  रात की घटना से क्रोधित होते हुए बदमाश टोली के बच्चों के घरों पहुँच कर घटना की जानकारी का उलहेना (शिकायत) दे रहे थे.भाई साहब उसके बाद की घटना का उल्लेख करना बेकार ही होगा ,वह तो आप समझ ही गए होंगे कि उस सुबह नाश्ते में क्या मिला होगा. वह दिन याद कर आज भी दर्द उठ ही जाता है. वहीँ अपने किये पर अब पछतावा होता है ,लेकिन कबीर का लिखा  दोहा ,'अब पछताय होत का ,जब चिड़िया चुग गई खेत', के लिए प्रयाश्चित तो किया ही जा सकता है न.

  चलते-चलते यहाँ पर दो बातों का उल्लेख जरुर करना चाहूँगा ,पहला यह कि उन .... चाचा के नाम का उल्लेख इस लिए नहीं किया ,क्यों की उनके नाती-पोते हैं. किसी परिवार के बारे में कुछ भी कहना न्यायोचित नहीं है और कभी उनके परिजनों को मैं अकेला मिल गया तो सोचिये इस बुढ़ापे में मेरा क्या होगा..हा.हा..हा...|दूसरी महत्वपूर्ण बात ,तब फैजाबाद (आज का अयोध्या जिला) इतना संवेदनशील नहीं था, आज दिन रात व्यस्त रहने वाला शहर का मुख्य बाज़ार चौक शाम नौ बजे के बाद सुनसान हो जाता था. कभी कदापि पुलिसिया गाड़ियाँ ही दौड़ती थी.दंगा-फसाद यह सब तो अस्सी के दशक के बाद शुरू हुआ मेरे भाई. अमन-शांति और चैन का शहर था अपना छोटा सा अंचल फैजाबाद.  

(फैजाबाद ,चौक का प्रतीकात्मक फोटो)  

     

कताई-बुनाई ,गाँधी और वर्धा

 अयोध्या और मैं -

     मैं इस समय महात्मा गाँधी की कर्मभूमि वर्धा के बापू कुटी में हूँ. विगत चार सालों में मेरी यह चौथी यात्रा है.पच्चीस सालों तक इस रेल खंड पर न जाने कितनी बार यात्रा की ,लेकिन कभी इन स्टेशनों (वर्धा/सेवाग्राम) पर उतरा नहीं ,पर अब यही स्टेशन बार-बार उतरने को मजबूर कर देता है. उम्र की अंतिम बेला में बापू का यह धाम मुझे इतना लगाव देगा ,इसका मुझे कभी अहसास ही नहीं हुआ.महात्मा गाँधी के प्रति इतना अपनत्व हो जायेगा ,पता नहीं था. यह सब हुआ भी तो पिछले सात-आठ सालों में. इस बीच गाँधी को बहुत पढ़ा ,जाना , और जानने की इच्छा भी जगी. पूरी जवानी और प्रौढ़ अवस्था में गाँधी को इतना नहीं जान सका था.

   जैसा कि पिछली श्रंखला में लिखा था कि बाबू (पिता जी ) का तबादला गोरखपुर से फैजाबाद (अब अयोध्या) हो गया ,पांचवी पास कर के आया था , सो छठवीं में एडमिशन लेना था. मोहल्ले में चार-पांच मकान छोड़ कर एक मास्टर चाचा रहते थे. जिनका नाम था स्व शांति स्वरुप वर्मा , जिन्हें वर्मा मास्टर के नाम से सारा शहर जनता था. मास्टर चाचा मनोहर लाल मोती लाल इंटर कालेज (एम्.एल.एम्.एल.इंटर कालेज) में भौतिक विज्ञानं के प्रवक्ता थे.उस विषय पर उनकी गहरी पकड़ थी , दूर-दूर से लोग उस समय उनसे ट्यूशन पढ़ने आते थे.उनमे से एक वर्तमान अयोध्या राजा भी थे. उन्ही के माध्यम से छठवीं में नाम लिख गया.

    उस समय छठवीं से आठवीं तक सभी विषयों के साथ एक अनिवार्य विषय भी लेना पड़ता था.मनोहर लाल में इसके लिए दो विषय थे पहला - सिलाई एवं दूसरा था कताई-बुनाई .सिलाई में कपडे में काज़ बनाना ,रफू करना,बटन टाकना आदि सिखाया जाता था ,जिसके मास्टर थे रस्तोगी मास्टर साब ,जो बाबू के सहपाठी भी थे. कताई-बुनाई वाले मास्टर साब का नाम ठीक से याद नहीं आ रहा है ,पर शायद बारी मास्टर साब नाम था उनका. में ने कताई-बुनाई विषय लिया था. जिसमे हाथ सूत कातना,खादी के कपडे बनाये जाने की प्रक्रिया के साथ-साथ चरखों के प्रकार आदि की शिक्षा दी जाती थी. उस कक्षा में जमीन पर ही बिछे टाट-पट्टी पर बैठना होता था ,तब हम लोगों को यरवदा चरखा आदि के बारे में पढाया गया था ,और तो आज तक ठीक से याद भी नहीं है.

     उन्ही दिनों दो अक्टूबर को गाँधी जयंती पर कोई विशेष आयोजन हुआ था, मेरा एक विषय 'आर्ट' भी था,जिसके मास्टर साब थे प्रेम शंकर श्रीवास्तव. उन्हों ने उस समय मुझे गाँधी जी का एक पोस्टर बना कर लाने को कहा था. मेरे सामने एक बड़ी समस्या खड़ी हो गई कि  बनाऊ तो कैसे ,विषय तो केवल पास होने के लिए ले रखा है. ख़ैर साहब कहावत है न कि 'मरता तो क्या न करता' वाली बात को सिद्ध करते हुए घर के बगल में रहने वाले एक बढे भाई साहब के शरण में पहुंचा. जिन्हें हम लोग लल्लू दद्दा (उनका घर का नाम था) संबोधित करते थे. वह जल-निगम में किसी पद पर सेवारत थे.उनकी आर्ट देखने वाली थी. उनके बनायी पेंटिंग मानो बोल उठेगी की बात को चरितार्थ करती थी. उन्होंने ने मात्र एक घंटे में महात्मा गांधी का एक चित्र लाठी के सहारे पीछे से जाते हुए बनाया था. जिसके नीचे मेरा नाम प्रदीप कुमार, कक्षा -आठ ,अ लिख दिया था .उस पोस्टर को कालेज में जमा कर दिया. बाद में वह पोस्टर प्रिंसपल साहब (उन दिनों स्व रामहेत सिंह जी हुआ करते थे) के कमरे मैं काफी दिनों तक लगा रहा.

 कहाँ अयोध्या,कहाँ वर्धा यानी सेवाग्राम महात्मा गांधी की कर्म भूमि. श्री राम मर्यादा के लिए पुरुषोत्तम कहलाये तो गाँधी जी ने अहिंसा के लिए महात्मा बना दिए गए. वर्धा की यही भूमि जहाँ से 23 सितंबर 1933 को महात्मा गाँधी के पांव पड़े थे,और 16 जून 1936 से यहीं रहने लगे थे. इसी भूमि से विनोद भावे ने 1951 में भूदान आन्दोलन की शुरुआत की थी. (शेष अगले रविवार को)

 

"मामा शकुनी और उनकी शव यात्रा"

 अयोध्या और मैं /अल्हड़ नादानियाँ -3

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     महाभारत के  एक प्रमुख पात्र हैं मामा शकुनी,जिनकी कहानियां सर्व प्रचलित हैं ही . जिन्हों ने अपने व अपने परिवार के प्रतिशोध के चलते 'महाभारत ' की संरचना ही कर डाली ,यह सभी को मालूम ही है . आज भी हर परिवार में जब कोई सदस्य नाराज़ होता है तो उसे यह संज्ञा बड़ी आसानी से दे दी जाती है,चलो ,'बहुत मामा शकुनी' मत बनो. मामा शकुनी के बाद 'कंस मामा' की उपाधि मिलना कोई कठिन बात नहीं है ... ख़ैर यहाँ पर जिन मामा शकुनी की बात कर रहा हूँ उनका व  उनके परिवार का उपरोक्त वर्णन से कोई सम्बन्ध नहीं है.

  बात सत्तर के दशक की है,बाबू का तबादला गोरखपुर से फैज़ाबाद (अब अयोध्या) हो गया , परिवार क्या नाते रिश्तेदारों में ख़ुशी की लहर . ददिहाल से परिवार में बाबू सबसे बड़े उधर ननिहाल में अम्मा तो पांच नानाओं के बच्चों में सबसे बड़ी. शहर के बीचो बीच अपना मकान, बाबा ,दादू , चाचा -चाची तो रहते ही थे ,मोहल्ले में दो बुआ का परिवार भी रहता था. उधर अम्मा के दो चाचा यानी मेरे नाना का घर भी था, दोनों नाना स्व सूर्य भान लाल श्रीवास्तव एवं स्व  रुद्र्भान लाल श्रीवास्तव अपने समय के फैजाबाद  दीवानी के प्रसिद्ध वकील थे . अम्मा उस परिवार की सबसे बड़ी या यूँ कहें लाडली बेटी जो थीं.

 हम लोग गोरखपुर से अपने गृह नगर आ गया ,गोरखपुर में गोलघर के पीछे जुबली मानटेन्शसरी  से पांचवी कक्षा पास कर जिला अस्पताल के सामने के एम. एल एम एल इंटर कालेज में छठवीं कक्षा में प्रवेश मिल गया. गोरखपुर में सिविल लाइन जैसे सभ्रांत ईलाके में रहते थे,अब ठेठ पुराने मोहल्ले में आ बसे. वही बात न कि 'असमान से गिरे खजूर पर अटके' वाली कहावत को चरितार्थ हो गई. मोहल्ले के परिवेश में रच-बस गया. मोहल्ले की हर गतिविधियों में बचपन से ही भाग लेना एक शगल सा था.

 हमारे मोहल्ले में एक वयोवृद्ध बाबा ,जिन्हें सभी मामा शकुनी के नाम से बुलाते थे, जहाँ तक मुझे याद है की वह इसका बुरा भी नहीं मानते थे.वह अविवाहित थे . एक छोटे सी कोठरी (कमरा) में वह रहते थे ,उसी में सोना ,खाना बनाना आदि सब कुछ. हाँ फ्रेश (निपटान )के लिए खेतों में चले जाते . पीने का पानी 'सरकारी कल' मतलब नगर पालिका के 'सार्वजानिक नल' से ले कर काम चलाते. उस समय उनकी उम्र रही होगी सत्तर से अधिक,सांवला , सामान्य कद ,लेकिन दिमाग से कहीं तेज. कभी भी वह न तो शांति से बैठे और न ही मोहल्ले वालों को बैठने दिया. आये दिन उनके घर के पास दिन में किसी न किसी मामले में उल्हाना देने वालों का जमावड़ा लगा ही रहता. उस समय उनके शांति भाव को देखने वाला होता. जैसे कुछ हुआ ही नहीं ,न ही उनकी उसमे कोई भूमिका रही हो .फिर भी मोहल्ले भर के बच्चे-बूढ़े ,महिलाएं उनका बहुत आदर करते थे.उसका जो भी कारण रहा हो ,लेकिन मुख्य था उनके आगे-पीछे कोई नहीं था .एक कहावत है न 'आगे नाथ न पीछे पगहा.' बस वाही वाली हालत. एक रात वह जो अपने कमरे में सोये तो फिर उठे ही नहीं. सुबह चार - पांच बजे उठाने वाले मामा के कमरे का किवाड़ नहीं खुला तो अगल-बगल वालों को चिंता हुई, ख़ैर साहब दरवाजे को खोला गया तो अन्दर 'मामा शकुनी' (उनका असली नाम आज तक किसी को भी नहीं मालूम है)चिर निंद्रा में सोये हुए थे. यह बात जंगल में लगे आग की तरह पूरे ईलाके में  फैल गई. मामा उम्रदराज भी थे,मोहल्ले वालों ने गाजे-बाजे के साथ उनकी शव यात्रा निकलने का निर्णय लिया.

    दिन के तीसरे पहर , यही लगभग तीन बजे का समय रहा होगा... उनके शव को एक सजीधजी कुर्सी पर बैठा कर अयोध्या में (तब अयोध्या एक छोटा सा क़स्बा ही था) सरयू के किनारे अंतिम संस्कार के लिए निकला ,वह भी पैदल.जिसकी दूरी लगभग पांच किलोमीटर थी,आज भी उतनी ही है.उस यात्रा में मोहल्ले के बहुत सारे बच्चे भी शामिल थे,जिनमे एक में भी था. फैजाबाद से अयोध्या तक रस्ते भर अंतिम यात्रा में बोले जाने वाले शब्दों ... राम नाम सत्य है के बाद सभी एक अपशब्द का प्रयोग करते हुए .... बड़ा मस्त है ,कहते हुए ले गए. रस्ते में जिस ने भी उस दिन उनकी अंतिम यात्रा को देखा होगा वह आज तक नहीं भुला होगा. हम बच्चों का उसमें जाने का कोई और कारण नहीं था. बस इतना था कि सारी क्रियाएं  पूरी होने के बाद एक घाट पर एक पेड़ा या कोई और मिठाई के साथ एक कुल्ल्हड चाय मिलेगी .

    जाने में तो चला गया ,लेकिन वापसी की बात तो पूछिएगा ही मत.बड़े लोग तो निकल लिए ,बचे तो हम दो -तीन बच्चे . किसी तरह अँधेरा होने के बाद घर पहुंचे.उधर अम्मा-बाबू को खबर हो गई थी कि घाट पर गया है. भाई फिर तो जैसे घर में घुसने के पहले की जो विधि-विधान की प्रक्रिया करनी थी ,वह निर्बाध रूप से संपन्न करवा दी गई, अभी कुछ सम्हला ही था कि पीछे से बाबू का जो थप्पड़ पड़ा तो आँखों के सामने अधेरा छा गया. भाई साहब ! उसके बाद तो पूछिए नहीं ... अभी भी उधर की ओर जाने से डर लगता है. आखिर एक दिन जाना तो है ही . न  चेतन मन से अवचेतन मन से ही सही. यही प्रक्रति का नियम है या यह कहें विधि का विधान है,जो शास्वत है,जिसे झुठलाया नहीं जा सकता.   

(अगले रविवार को एक और रोचक नादानियो के साथ मिलते हैं.)   

 

 

 

मंगलवार, 16 नवंबर 2021

उपेक्षित पड़ा अस्सी वर्ष पुराना सिल-बट्टा

अयोध्या -2

आप यह सिल-बट्टे की जो फोटो देख रहे हैं न ,यह नहीं तो कम से कम अस्सी साल पुराना तो होगा ही, साठ साल से तो मैं ही देखता आ रहा हूँ , जिस पर अम्मा मसाला व तरह-तरह की चटनियां  पिसती थी. उसके पहले मेरी दादी (जिन्हें हम सभी लोग 'दादू' कह कर बुलाते थे) ने भी इसी पर मसाला व चटनी पीसी थी . जो आज भी मेरे पैतृक घर की शान में , आँगन में एक किनारे पड़ा अपनी उपेक्षा के दंश को झेल रहा है. क्यों की उसकी  जगह अब मिक्सर ग्राइंडर ने जो ले ली है ,तो अब कोई इस बेचारे को पूछता भी नहीं है. क्यूँ कि आधुनिकता का आवरण जो हम ने अपने ऊपर ओड़ लिया है,बस कारण इतना कि लोग क्या कहेंगे,अरे कितने पुरातन विचारों वाले लोग हैं ये सब,अभी भी सिल बट्टे का उपयोग करते हैं.
लेकिन उन्हें नहीं पता कि इस सिल-बट्टे का वैज्ञानिक महत्व भी है. सबसे पहली बात तो सिल-बट्टे पर पीसी जाने वाली  सामग्री बहुत धीमी गति से पीसी जाती है,जबकि मिक्सर में में अत्यधिक तेजी व कम समय में पिस जाती है. धीमी गति से पीसी गई सामग्री चाहे वह मसाला हो,चटनियाँ हो या फिर नमक . कुछ भी हो जब वह सामग्री सिल-बट्टे से होकर गुजरती है तो उसके स्वाद में पौष्टिकता भी बढ़ जाती है. इसलिए सिलबट्टे पर पिसी हुई चटनी का स्वाद आप को मिक्सी वाली चटनी से कहां मिलेगा , बोलो न?
   दूसरी अहम् बात यह की सिल-बट्टे पर पिसने के लिए आप को उसके सामने उकडू हो कर बैठाना होता है फिर दोनों हाथों से सिल पर बट्टे से जो भी चीज पिसनी होती है उसके लिए हाथों को आगे पीछे करना पड़ता ही है. इस लिए यह स्वस्थ के लिए लाभ दायक भी है. दादू बताती थीं कि इससे औरतों का पेट नहीं निकलता है. तीसरी अहम् बात इसका उपयोग करने वाली महिलाओं को प्रसव के समय आज की तरह सिजिरियन डिलवरी की जरुरत नहीं पड़ती थी.सीधा सा मतलब जच्चा व बच्चा दोनों स्वस्थ-मस्त.
      वैज्ञानिक के साथ-साथ सिल-बट्टे का धार्मिक महत्व भी है. आज भी हर गाँव के हर घर में जरूर एक सिल-बट्टा मिलेगा,जिसके घर में शादी होगी तो वह जरूर खरीदता है.चाहे वह कितना भी गरीब क्यों न हो. पाणिग्रहण के समय शिला रोहण के लिए इसकी जरूरत होती ही है. क्योंकि इसे माता पार्वती का प्रतीक माना जाता है,जिसे बिटिया की सखी के रूप में उसके साथ ससुराल भेजा जाता है. इसके अलावा यज्ञों में भी सिल-बट्टे के उपयोग की कहानिया मिलती हैं.
    सिल-बट्टे के साथ एक मान्यता यह भी जुडी है कि सिल और बट्टे को एक साथ नहीं ख़रीदा जाता है.क्यों कि 'बट्टे' को  'भगवन शिव' का जबकि 'सिल' को 'माँ पार्वती' स्वरुप माना जाता है. दोनों चीजों में से एक को पहले लेना होता है.सिल -बट्टे के शिल्पकार कभी भी आप को एक साथ इसे नहीं देंगे.क्यों की इन दोनों चीजों को मूर्त रूप देने वाला शिल्पकार पिता समान होता है ,इसलिए वह दोनों को एक साथ देगा ही नहीं.
   
 सिल -बट्टे के इतिहास का कोई ठोस प्रमाण तो नहीं मिलता लेकिन ,लेकिन कहते हैं कि हजारों-हज़ार साल पहले मिश्र की सभ्यताओं का भी एक अहम् हिस्सा हुआ करता था यह. मिश्र की सभ्यताओं में जिन सीलोन का उल्लेख मिलाता है वह सिल बीच में थोडा सा गहरापन लिए होता था,जो आज भी आप देख सकते हैं. इसके भी कई पर्यायवाची नाम हैं ,जैसे शिला, सिलोटु, सिल्वाटु, सिळवाटू, सिलौटा, सिलोटी, सिला लोढ़ी ,सिल और लोहडा या  सिलबट्टा । सिलबट्टा को रखने की एक  नियत जगह होती थी जिसे हमेशा साफ सुथरा रखा जाता था. सिलबट्टा को इस्तेमाल से पहले और बाद में अच्छी तरह से धोया और पोछा जाता था और बाद में दीवार के सहारे से शान से खड़ा कर दिया जाता था.
   सिलबट्टे के पीछे मेरी नानी एक छोटी सी कहानी बताती थीं,वह यह कि एक दादी के मरने के बाद कुछ ना मिला सिवाय एक संदूक के। लालची बहुओं ने खोला तो उसमें था ‘सिलबट्टा ‘. दादी का संदेश साफ था लेकिन बहुओं ने उसे फेंक दिया और संदूक को चारपाई के नीचे रख दिया। तब से यही होता आ रहा है.. “सेहत फेंक दी गयी और कलह को चारपाई के नीचे जगह मिल गयी.”

रविवार, 14 नवंबर 2021

मेरे मुहं से निकला था पहला शब्द "बाबू"

 अयोध्या और मैं /अल्हड़ नादानियाँ -1

         संस्कृति एक सागर है .देश के कोने-कोने से कई तरह की पतली और मोटी  धाराएँ आकर इसमें मिलती हैं ,यही तो 'अयोध्या' है . हमारा अतीत ,हमारा वैभव ,बड़ों की थाती ,हमारी धरोहर ,यही है अयोध्या . जिसके बारे में श्री रामचरित मानस के अयोध्या काण्ड  में गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं की-

कही न जाई कछु नगर विभूति ,

जनु एतनिश्र विरंची करतूती|

(अर्थात नगर का ऐश्वर्य कुछ कहा नहीं जाता.ऐसा दिख पड़ता है ,मानो  ब्रह्मा जी कारीगिरी बस इतनी ही है ,इससे परे संसार में कुछ भी नहीं है.)

वहीँ  कवि आचार्य केशव की कल्पना देखिये -

'अति चंचल जहं चल दलै , / विधवा बनी न नारी |'

     ऐसा ही हमारा एक छोटा सा अंचल है ,फैजाबाद ,जिसको अब अयोध्या के नाम से जाना जाता है.पहले अयोध्या एक उपनगर ही हुआ करता था ,अब पूरे जिले को अयोध्या का नाम मिल गया . फैजाबाद का एक अंग होता था अयोध्या ,अवधपुरी ,राम की नगरी ,मिली-जुली संस्कृति की नगरी ,सीता की नगरी,हमारी संस्कृति वैभव की नगरी . तीन कस्बो यानी अजोध्या या अयोध्या ,फैजाबाद ख़ास एवं फैजाबाद छावनी (जिसे अब नाम मिल गया है अयोध्या छावनी)को मिलाकर बना था यह शहर . इस शहर के इतिहास को जानने के  लिए सरकारी  गजेटियर के पन्ने पलटने  होंगे . 1908 के गजेटियर के मुताबिक उत्तर प्रदेश का पूर्वी हिस्सा क्षेत्रफल 121.134 वर्ग मील. सीमा नेपाल की तराई से लेकर गंगा तक. पूर्व में गोरखपुर एवं बनारस ,पश्चिम में लखनऊ  डिवीजन .

     "अयोध्या 'शब्द के कई अर्थ लगाये जाते हैं .कुछ लोग कहते हैं कि इसका अर्थ है अविजित तो कुछ का मानना है वचन ,इसलिए इसे वचन की पूर्ति वाली भूमि भी कहा गया है. जिसका सम्बन्ध मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के उस वचन से है,जिसके अनुसार उन्होंने चौदह वर्ष का वनवास भोग. इसके आलावा अयोध्या का अर्थ 'युद्ध' से भी लगाया जाता है,मतलब अयोध्या में आकर बसने वाले अधिकाशं राजा क्षत्रिय थे,योद्धा थे,इस लिए इस भूमि का नाम अयोध्या पड़ा. (अयोध्या के इतिहास पर फिर कभी)

 इसी छोटे से अंचल अयोध्या कैंट (छावनी ,जो कभी फैजाबाद शहर के नाम से जाना जाता था) के मुख्य बाज़ार चौक के निकट  तेली टोला नामक मोहल्ले में आज से 62 साल पहले ,दिन मंगलवार की सुबह 8.30 बजे मै ने अपने पैतृक घर के एक छोटे से कमरे में आँखे खोली थीं.अम्मा (स्व.उमा श्रीवास्तव) एवं बाबू (स्व जगेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव) की तीसरी संतान था, सब कुछ सामान्य ढंग से रहा होगा ,मुझसे बड़े एक भाई श्री प्रभात कुमार एवं उनसे बड़ी बहन जिज्जी श्रीमती मंजू श्रीवास्तव.मुझसे छोटा एक भाई अतुल श्रीवास्तव एवं सबसे छोटी बहन अमिता श्रीवास्तव,मतलब पांच भाई बहन सहित सात लोगों का एक छोटा सा परिवार (छोटा इस लिए कि उस समय परिवार में बच्चों की संख्या की कोई गिनती नहीं थी. मेरे बाबा दो भाई थे ,बाबा को दो लड़कियां एवं दो लड़के ,मेरे पिता जी एवं चाचा स्व दुर्गा प्रसाद श्रीवास्तव . बड़े बाबा को तीन लड़के एवं पांच लड़कियां . सबसे बड़े ताऊ स्व गोमती प्रसाद श्रीवास्तव ,उनके बाद स्व हरिहर प्रसाद श्रीवास्तव एवं परिवार में सबसे छोटे चाचा स्व नन्द प्रसाद  श्रीवास्तव. बड़े ताऊ जी का उल्लेख इस श्रृंखला में करूँगा,क्यों कि उनके उल्लेख के बिना यह श्रृंखला अधूरी होगी.उन्हें आज भी लोग  गोमती बाबू के नाम से अयोध्यावासी जानते हैं.

      हाँ तो जन्म लेने के बाद कुछ दिनों तक आम नवजात शिशु की तरह, शायद हाँ -हूँ ही करता रहा हूंगा ,साल भर बाद भी जब मैं नहीं बोला ,मतलब मेरे गले से शब्द नहीं निकले तो घर वालों को चिंता सतानी शुरू हो गई . यह सब बातें अम्मा बताती थीं. कई डाक्टरों-हकीमों  को दिखाया , झाड़ -फूंक कराये ,पर शायद कोई निष्कर्ष नहीं निकला. न जाने कितनो शहरों  के कौवों के जूठे खिलाये गए,क्या कुछ नहीं किया गया मेरे बोलने के लिए .लेकिन सब 'ढ़ाक के तीन पात' वाली कहावत को ही चरितार्थ करते रहे. जब और थोडा सा बड़ा हुआ तो आम बच्चों की तरह शायद मेरे मन में भी बिस्कुट,लेमन चूस खाने की ललक उठती रहती रही होगी. जिसके लिए अधन्नी ,चवन्नी (उस समय की मुद्रा) की जरुरत पड़ती रही होगी,बोल पता नहीं था ,तो मांगूं कैसे ? अम्मा बताती थीं कि उसके लिए ' मैं अपने अंगूठे एवं बीच की उंगलियों को एक-दूसरे के ऊपर रख कर ट्विस्ट (टास की तरह ) करता तो वह समझ जातीं कि पैसा चाहिए . अगर भूख लगी हो या दूध मांगना होता तो मैं अपने अंगूठे एवं उसके बगल की अंगुली को फैला कर थोडा गैप बना देता तो वह जान जाती कि इसे दूध चाहिए. यह आदत तो जब तक वह रहीं तब तक रहा,बदल गया  तो केवल पेय पदार्थ ,दूध की जगह चाय ने ले ली थी . बाल-बच्चे वाला होने के बाद भी अम्मा से इसी तरह चाय की मांग करता था.

   अब आप सोच रहें होंगे कि बस बकबक ही किये जा रहा है ,आखिर बोला कब ? इसका भी मज़ेदार वाक्या है, बाबू का तबादला बनारस हो गया ,बात सन 62 की है ,हम लोग नदेसर क्षेत्र के घौसाबाद में एक स्टेशन मास्टर चाचा के घर मैं किराये पर रहते थे .उसी दौरान मेरे दाहिनी तरफ सीने के नीचे एक फोड़ा सा हो गया ,जो जहर के रूप में पूरे शरीर मैं फैल गया ,जिसका एक मात्र ईलाज था,आपरेशन . अम्मा ने बताया था कि जब डाक्टर साहब ने उस फोड़े का आपरेशन किया था तो मैं दर्द से बिलबिला उठा ,और मेरे मुंह से जोर से निकला "बाबू ". सच कह रहा हूँ दुनिया का शायद पहला बच्चा रहा हूँगा जिसके मुहं से निकला कोई शब्द 'पहली बार' किसी ने सुना होगा (ह ह ह हा). यह खबर पोस्ट कार्ड के माध्यम से पूरे परिवार को भेजी गई थी. उसके बाद से जो बोलना शुरू किया तो आज 57 साल से  निरंतर ही बोलते जा रहा हूँ, चाहे जुबान से या फिर कलम से. तभी तो मेरी छोटी बेटी कहती रहती है ,पापा पांच साल तक तो बोले नहीं ,इस लिए उसकी भरपाई अब पूरी कर रहे हैं. आज बस ...

बुधवार, 10 नवंबर 2021

धमकियों के बीच 'गुंडा' एवं 'बेबी' का मंचन

   बनारस नामा-7

       साल 1982 - 83 का था,उन दिनों को काशी यानी बनारस में रंगमंच का स्वर्णिम युग कहा जा सकता है .सप्ताह में लगभग कम से कम पांच नाटकों का मंचन तो होता ही था, जिनमें टिकट भी बिकते थे. शहर के बीचो-बीच में एक मात्र प्रेक्षागृह था , मुरारी लाल मेहता प्रेक्षागृह' जिसे नागरी नाटक मंडली के नाम से जाना जाता है . बी.एच .यू का भी अपना प्रेक्षागृह भी था ,लेकिन शहर से बाहर होने की वजह से नाट्य प्रेमियों का वहां पहुंचना कठिन होता था,इस लिए नागरी नाटक मंडली को प्राथमिकता मिलती थी. साहित्य ,संस्कृति से जुड़े होने की वजह से नाटकों की ओर झुकना भी स्वाभाविक ही था. कई संस्थाओं से जुड़ा हुआ भी था. इस बीच काशी के वरिष्ठ पत्रकार पुरोषत्तम मिश्र जी के संपर्क में आया. मिश्र जी का पत्रकारिता क्षेत्र के साथ-साथ संगीत घरानों में भी गहरी पैठ थी . रंगकर्मियों के साथ तो उनका रिश्ता भी बहुत गहरा रहा ही . उन दिनों वह एक साप्ताहिक अख़बार 'शांति मार्ग' के नाम से निकलते थे,मैं भी उस अख़बार से जुड़ा हुआ था.शांति मार्ग का कार्यालय वाराणसी कैंट स्टेशन के ठीक सामने निगम के बनाये शापिंग काम्प्लेक्स के प्रथम तल पर था.

एक दिन काशी के वरिष्ठ रंगकर्मी एवं नाट्य निर्देशक स्व राम सिंह आज़ाद 'शांति मार्ग'के कार्यालय में आये ,बात-चीत के दौरान यह तय हुआ कि पचास साल (उस समय-1983 में) पहले इसी काशी में जय शंकर प्रसाद जी द्वारा लिखित ऐतिहासिक कृति "गुंडा"का मंचन हुआ था ,लेकिन उसके बाद आज तक नहीं हुआ. यह बात मिश्र जी को जम गई ,आनन-फानन में तुरंत "वसुंधरा"नामक एक साहित्यिक संस्था का गठन किया गया ,जिसमें मुझे भी एक पद दिया गया . फिर तैयारी शुरू हो गई मंचन की . नागरी नाटक मंडली को बुक भी कर दिया गया ,कार्यक्रम के मुख्य अतिथि के रूप मैं तत्कालीन विधान परिषद सदस्य चंद्रशेखर प्रसाद को बनाया गया.
'गुंडा' की संकल्पना जय शंकर प्रसाद जी ने दो सौ साल पहले 1781 में काशी के नागरिकों द्वारा फिरंगियों के विरुद्ध किये गए प्रथम 'विद्रोह' पर की थी . उन दिनों बनारसी गुंडे कोई अपराधी नहीं बल्कि गरीबों के रक्षक और देश भक्त होते थे. इन्हीं में से एक थे बनारसी गुंडा नन्हकू सिंह,जिनके नाम से फिरंगियों की रूह तक कांपती थी.इस मंचन को न करने की कई धमकियाँ भी मिलीं थीं ,लेकिन उन धमकियों के बीच नाटक को मंचित करने के निर्णय पर स्व आजाद जी एवं श्री मिश्र जी ने कर रखा था.आप कल्पना नहीं कर सकते की आज से 38 साल पहले पूरे मंच पर साईकोलमा के प्रयोग के साथ-साथ आधुनिक तकनीक के प्रयोग के बीच मंचन किया गया था. जिसमे कलात्मक इम्फेक्ट को आज भी काशी के रंगकर्मी नहीं भूल पाए हैं.
एक मज़ेदार किस्सा बताऊँ आप को , नाटक के बीच बनारसी गुंडा नन्ह्कुं सिंह अपने बल का प्रयोग दर्शाते हुए दो मुर्गों को स्टेज पर लड़वाते हैं. जिसका रिहर्सल पर्दा उठाने से पहले किया जा रहा था, सच मुच के दोनों मुर्गों को लडवाया जा राहा था,लेकिन दोनों सामने आते , हुंकार भरते फिर वापस हो लेते ,इसे देखते हुए हम आयोजकों के माथे पर शिकन आना स्वाभाविक था ही ,उधर निर्देशक की हालत तो आप समझ सकते हीं हैं . ख़ैर साहब बाबा विश्वनाथ का नाम लेकर निर्णय लिया गया की जो होगा देखा जायेगा. हाल का पर्दा उठा ,दोनों मुर्गों को मंच पर लाया गया ,उनकी लड़ाई के लिए इधर दोनों तरफ से हुंकार उठी, उधर दोनों मुर्गे स्टेज पर एक दुसरे के खून के प्यासे हो कर आक्रमण कर उठे ,लगभग तीन से चार मिनिट के इस दृश्य ने हाल मैं बठे दर्शकों को अपनी दांतों से उँगलियों को काटने पर मजबूर कर दिया. इसी तरह एक दूसरा दृश्य था काशी वासियों और फिरंगियों के बीच युद्ध का, जिसमें स्टेज पर लाठियों टकराहट एवं तमंचों की देशी गोलियों की आवाज़ से दर्शक दहल सा गए थे.
नन्हकू सिंह की भूमिका स्वयम राम सिंह आज़ाद ने अदा की थी,अन्य मुख्य पत्रों में थे बोधि सिंह गोपाल जी,कुबड़ा मौलवी बने थे अमर नाथ शर्मा उर्फ़ .... रईस की भूमिका में थे रमजान राही,मुन्नू पानवाले सुरेन्द्र झा,तवायफ की महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी उन दिनों की प्रसिद्ध कथक नृत्यांगना एवं भोजपुरी की नायिका मधु मिश्र ने.एनी कलाकारों में थे जितेन्द्र मुग्ध,अरुण शर्मा,विनय पाठक,अतुल कुमार एवं शिरीष प्रसाद. जून 1982 में जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित "गुंडा" नाटक के मंचन के बाद बनारस क्या पुरे देश में आज तक इसका दुबारा मंचन नहीं हुआ,यह भी एक ऐतिहासिक सत्य है .
तेंदुलकर की 'बेबी' और धमकी
इसी वर्ष के दौरान की बात है ,कुछ युवा लोगों ने मिल कर एक संस्था बनाई 'आईना' . जिसने मराठी नाटककार विजय तेंदुलकर के विवादास्पद नाटक "बेबी" के मंचन का मन बनया. प्रश्न यह था की इतना विवादास्पद का मंचन हो पाएगा कि नहीं. लेकिन युवाओं में जोश था ,इसमें मेरा छोटा भाई भी शामिल था. नाटक के रिहर्सल का मुहूर्त मधु मिश्रा ने ही किया था. हाल बुक हो गया ,मंचन का समय भी. तभी कुछ दबंग लोगों ने आयोजकों के पास एक धमकी भरा पत्र भेजा कि मंचन को स्थगित किया जाये,नहीं तो ठीक नहीं होगा. आयोजकों ने इसे हलके में लिया .लेकिन जब उनके पास दूसरा धमकी भरा पत्र मंचन के तीन दिन पहले मिला तो उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई. उनके सामने विकट समस्या, प्रवेश पास बंट चुके थे, काफी टिकट भी बिक गए थे. नाटक से जुड़े लोग मेरे पास आये. मेरे सामने भी विकट स्थिति. काफी सोच विचार के बाद उन लोगों से बोला कि मंचन होगा,कैसे होगा ,वह मुझ पर छोड़ दो. नाटक वास्तव मैं विवादस्पद था, जिसमें एक दृश्य में नायिका के साथ नायक जबरन ब्लात्का... करता है,इस तरह के कई अन्य दृश्य भी थे,स्वाभाविक था विरोध होना, ख़ैर .
दूसरे दिन मैं किसी को लेकर सेना के एक बड़े अधिकारी के पास पहुंचा और उसे कार्यक्रम में मुख्य अथिति के लिए आमंत्रित किया ,जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार भी लिया.उसके बाद उनको साडी स्थिति से अवगत करवा दिया कि यह परेशानी है ... नाटक के मंचन वाले दिन ,मंचन होने से पहले नागरी नाटक मंडली के प्रवेश द्वार पर छावनी के दो जवान खड़े हो गए , उधर मुख्य अतिथि जी भी पूरे मंचन के दौरान अपनी उपस्थिति बनाये रखी ,नतीज़ा यह निकला कि बिना किसी व्यवधान के बनारस में "बेबी" का मंचन संपन्न हो गया .

सोमवार, 25 अक्तूबर 2021

जब षड्यंत्र का शिकार होते-होते बचा


बनारस नामा – 6 

  पायलट बाबा के समाधि न लेने की घटना के बाद वित्त अधिकारी के कुछ खास चहेते अब मुझे फ़साने का षड्यंत्र रचाने लगे, छात्र राजनीति में सक्रीय था ही , छात्रसंघ में संस्कृति सचिव का चुनाव हार ही चूका था, हरा क्या था ,जमानत तक जब्त हो गई थी. ख़ैर अगले साल निर्विरोध चुना गया था. हाँ उन चहेतों में एक हमारे प्रोफ़ेसर साहब भी होते थे.उन दिनों बनारस शहर के तीनो विश्व विद्यालय (काशी विद्यापीठ , बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय एवं डॉ संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय) अराजकता के केंद्र भी होते ही थे,मार-पीट,दबंगई आदि आम बात थी. हुआ यूँ कि एक शाम विद्यापीठ परिसर मैं आचार्य नरेंद्र देव छात्रावास में मेरे कुछ सहपाठी रहते थे,उन्हीं के पास बैठा हुआ था, सुबह तीन बजे की पसेंजर गाड़ी (बनारस-लखनऊ ) से अपने घर फैजाबाद (अरे भाई अब अयोध्या,आगे से अयोध्या केंट कहियेगा) जाना था, लगभग रात के 11 बजे वहां से उठा अपने घर गया और सुबह की गाड़ी से फैजाबाद चला गया. 

  इधर सुबह हुई ,दिन के लगभग 11 से 12 बजे के बीच उसी हास्टल में पुलिस का छापा पड़ा और उसी कमरे से कुछ देशी असलहे जमीन के नीचे से बरामद हुए. उधर क़ानूनी प्रक्रिया चल रही थी, इसी बीच हास्टल  के सहपाठी भागने में सफल हो गए. यह खबर उन प्रोफेसर साहब तक पहुंची,और उन्हें यह पता चला कि रात मैं भी उसी कमरे में बैठा था, फिर क्या मेरी खोज जोर-शोर से शुरू हो गई . उधर मेरे कुछ सहपाठी जो हरदम साथ रहते थे उनको उन प्रोफेसर साहब ने पकड़ लिया . और उनसे मेरे बारे मैं जानकारी लेने का दिन भर प्रयास किया,लेकिन सही मैं उन सहपाठियों को भी कुछ पता नहीं था, और मुझे भी. दोपहर बाद कुछ लोग मेरे बनारस वाले घर भी गए तो कालोनी के लोगों ने बताया कि वह तो रात ही अपने घर फैजाबाद चले गए हैं.तब जा कर उन सहपाठियों को प्रोफ़ेसर साहब ने आज़ाद किया. सही बताऊँ छात्रावास की उस घटना के बारे में मुझे भी कोई जानकारी नहीं थी. ख़ैर साहब एक बड़ी मुसीबत से बाबा बोले नाथ के आशीर्वाद से बच गया. नहीं नो जिंदगी भर का कलंक लग जाता. 

जब कुलपति जी ने मीठी डांट पिलाई ....

जुलाई-अगस्त का महिना रहा होगा ,सभी पाठ्यक्रमों में प्रवेश प्रक्रिया लगभग बंद हो चुकी थी. तभी एक दोपहर की बात है ,मैं अर्थशास्त्र विभाग के परिसर में नीम के पेड़ की छाँव में मित्रों के साथ बैठा,तभी मिर्ज़ापुर जिले कि दो छात्राएं वहां आईं और पूछा कि गाँधी जी कौन हैं, दोस्तों ने मेरे तरफ ईशारा करते हुए कहा कि यहीं हैं. इस पर उन छात्राओं ने कहा कि ‘लेखा विभाग’ में प्रवेश शुल्क नहीं जमा कर रहें हैं, अगर आप चाहेंगे तो हो सकता है,इस पर मै ने भी अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए अपना पीछा छुड़ाना चाहा लेकिन वे मानाने को तैयार ही नहीं हो रही थी. उनका कहाँ था की सभी ने यही कहा है कि आप चाहोगे तो हो जायेगा. इतने में एक छात्रा के दोनों नयनों से गंगा-जमुना की धारा अविरल बह चली ,अब आप ही सोचे इन गंगा-जमुनी धारा के चलते जब हमारे ऋषि मुनियों ने अपनी प्रतिज्ञा तक तोड़ दी थी,तो मेरी क्या बिसात. उधर मित्रों का उकसाना जारी ही रहा.

  ‘मरता क्या न करता’ वाली कहावत को चरितार्थ करता हुआ उनके साथ ‘भारत माता मंदिर ‘के बगल वाले भवन में पहुंचा, उन दिनों विद्यापीठ का प्रशासनिक कार्यालय वहीँ होता था. वहां पर क्लर्क महोदय ने फार्म लेने से साफ इंकार कर दिया. काफी अनुनय-विनय किया,लेकिन वे अपनी सीमा की बाध्यता के चलते अपने को असमर्थ पा रहे थे. तभी किसी ने कहा कि इस पर कुलपति महोदय अपनी चिड़िया(हस्ताक्षर) बैठा दें तो मुझे लेने में कोई परेशानी नहीं होगी. कुछ राह दिखी ,उन महिलाओं को ले कर कुलपति जी के कार्यालय पहुंचा,जो परिसर में ही था. उनके पी.ए. से काफी अनुरोध करने के बाद मिलाने की अनुमति मिली .(एक बात बताता चलूँ,उन दिनों छात्रों और कुलपति जी के बिच इतनी दुरी नहीं होती थी,जितनी अब होने लगी है)

कुलपति साहब पहले तो मुझे देखते ही आग-बबूला हो उठे,कारन था कि उनके खिलाफ एक पत्रिका में एक आलेख लिखा था “मनमाने कुलपति की दास्तान”. बस उसी को लेकर वह नाराज़ थे ही. 

 हमारी संस्कृति मैं बड़ों के चरण स्पर्श का बड़ा अहम् महत्त्व होता है, जैसे ही मैं ने उनके चरण स्पर्श किये ,उन्हों ने आशीर्वाद तो दिया ही होगा, बोले कि क्या बवाल ले कर आये हो ,मैं ने उन्हें सारी बात बताई ,इस पर कुलपति जी ने कहा की अंतिम तिथि भी निकल गई है. नहीं हो सकता . काफी अनुरोध करने पर किसी तरह उन्होंने ने अपने हस्ताक्षर कर दिए. इस तरह से उन दोनों छात्रों का प्रवेश हो गया. 

(अगली श्रंखला में बनारस से विश्व मानव करनाल (हरियाणा) वाया सहारनपुर की यात्रा)        

बाबा पायलट ,काशी विद्यापीठ और समाधि

 

बनारस नामा-5

   आगे बढ़ने से पहले बताता चलूँ की काशी विद्यापीठ में मुझे लोग प्रदीप कुमार (शैक्षणिक दस्तावजों में मेरा यही नाम अंकित है) के नाम से न जान कर 'गांधीके नाम से जानते थे . आज भी जो पुराने मित्र व शुभचिंतक हैं ,वे इसी नाम से बुलाते हैं . यह नाम भी उन्हीं विद्यापीठ वाली 'ठकुराइन चाचीने दिया था.उन दिनों मैं बहुत दुबला-पतला हुआ करता था. उस पर से गोल फ्रेम का ऐनक (चश्मा) भी लगता था.कपड़ा मुझ पर नहीं ,शायद मैं कपडे पर  टिका होता था. इसलिए चाची ने यह उपनाम दिया होगा. ख़ैर ....

बात 1983-84 की हैविद्यापीठ के प्रांगण में महिला छात्रावास के सामने एक गड्ढा खोदा जा रहा था,जिसको लेकर सभी मैं उत्सुकता थी कि आखिर इसे क्यों खोदा जा रहा है. बाद में पता चला कि उस गड्ढे में कोई पायलट बाबा समाधि लेने वाले हैं ,वह भी विद्यापीठ परिसर मैं ,जिसका विरोध छात्र संघ के पदाधिकारी भी कर रहे थे. उन दिनों विद्यापीठ के वित्त अधिकारी हुआ करते थे दशरथ नारायण शुक्ल जी. वह बाबा पायलट के अनन्य भक्त थे. बाबा पायलट बनारस आये और शुक्ल जी के घर पर ही रुके,जहाँ तक मुझे याद आ रहा है कि यह बात नवम्बर 1983 के पहले सप्ताह की रही होगी. जवानी का जोश,उस पर पत्रकारिता का कीड़ा साथसाथ परिसर में छात्र राजनीती में सक्रियता भी.मन मैं कचोट उठ रही थी की बाबा से इंटरव्यू किया जायेवित्त अधिकारी जी सख्त मिजाज़ वाले,लिफ्ट देने का सवाल नहीं,कौन जाये उनके पास यह बात भी थी.

उन दिनों मैं अयोध्या से प्रकाशित एक हिंदी साप्ताहिक प्रेस युग’ के लिए वाराणसी से संवाददाता के रूप में  (फ़ोकट में) काम करता था. अख़बार से बस समाचार लिखने के लिए लेटर पैड मिलाता था ,जिस पर ऊपर ही अख़बार के नाम के साथ उसके नीचे ब्रेकेट में लिखा होता था (केवल समाचारों के लिए)मतल आप उस पर खबरें ही लिख सकते थे,अपनी सहेली (महिला मित्र,क्यों कि पुरुषों को कौन लिखता था/है) को नहीं.कुलपति थे डॉ.डी.एन.चतुर्वेदी साहबउनके बेटे भी हमें पढ़ाते थे. किसी मित्र ने सलाह दी कि उन्हें पकड़ो तो काम बन जायेगा. सच में बन भी गया.

     दूसरे दिन शुक्ल जी के निवास (जो परिसर में ही था) पर पहुंचावहां पर बाबा पायलट रुके थे,दोपहर का समय थाबाबा जी से लम्बी बात-चीत हुई. वहां से उठा,सीधा घर पहुंचा और उसी पैड पर बाबा पायलट से हुई बात-चीत को लिपिबद्ध किया,तब तक शाम हो गई,आब प्रश्न यह की अयोध्या कैसे भेजा जाये,फ़ोन,आदि तो दुर्लभ वाली चीज थी. टेलेक्स /टेलीग्राम के बारे मैं सोचना मतलब सपनों में ख्याली-पुलाव पकाना जैसा था. सीधा सा मतलब कि इतने पैसे नहीं होते थे कि उनका उपयोग कर सकता . लाला तो लाला (मतलब कायस्थ) ,दिमाग दिमाग पर जोर डाला तो याद आया कि रात 11 बजे बनारस से बरेली फ़ास्ट पैसेंजर गाड़ी चलती है ,जिसमें आर.एम.एस.(रेल डाक सेवा)का डिब्बा(कोच)लगता हैजिसमें शायद लिफाफे पर पंद्रह पैसे का सामान्य टिकट लगता था,यदि आर.एम.एस. से भेजना है तो बीस पैसे का अतिरिक्त टिकट चफनाना (चिपकाना) होता था.बस लिफाफा तैयार किया दस बजे वाराणसी कैंट स्टेशन पहुँच गया. यह ट्रेन समान्यतया प्लेटफार्म नम्बर तीन से चलती थी. आर.एम.एस.के डिब्बे साथ जा रहे डाक स्टाफ को लिफाफा थमाया ,पहले तो वह मुझे ऊपर से नीचे तक देखा फिर ले लियामेने उन्हें चाचा का संबोधन करते हुए आग्रह की फैजाबाद स्टेशन पर डलवा दीजियेगा.उन चाचा जी ने वाही किया,क्यों की पायलट बाबा से मेरी वह बात-चीत प्रेस युग के उसी अंक (अंक-42,16-23 नवम्बर 1983) के अंक में संपादक श्री राजेन्द्र श्रीवास्तव जी ने प्रकाशित भी कर दियाजिसकी पचास प्रतियां भी किसी के माध्यम से तुरंत भिजवाई थी. जिसका वितरण विद्यापीठ मैं मित्रों ने कर भी दिया था. वहीँ से थोड़ी लोकप्रियता परिसर मैं और बाद गई.

    बाबा पायलट मूलतः रोहतास बिहार के रहने वाले हैं,जिनकी प्रारम्भिक शिक्षा तो दार्जिलिंग एवं पटना में हुई ,लेकिन उच्च शिक्षा बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से प्राप्त की ,उसके बाद उड्डयन की शिक्षा ग्रहण कर वायु सेना में भर्ती हो गए. बकौल बाबा पायलट उनकी पोस्टिंग विंग कमांडर’ के पद पर हुई. उस इंटरव्यू में उन्होंने बताया था कि उन्होंने ने 1962 में चीन एवं 1965 में पाकिस्तान के साथ हुए युद्ध में लड़ाकू विमान से घटक बम-बारी की थी.

    ताजुब्ब यह है कि बाबा पायलट ने अपने उस इंटरव्यू में कुछ बातें भविष्यवाणी करते हुए कही थी. जैसे  कि’ 1983 से 1987 के बीच मध्य भारत का सम्बन्ध सोवियत संघ के साथ टूट जाएगा,इसके साथ यह भी कहा था कि न्यूयॉर्क,टोक्यो,लन्दन एवं मास्को जैसे शहरों पर घातक हमलों से ये शहर नष्ट हो सकते हैं. वर्ष की गणना में हो सकता है उनसे चूक हो गई हो,लेकिन 11 सितम्बर 2001 की घट्न तो सभी के मस्तिष्क में बैठी है. जब बाबा पायलट से मैं ये पूछा था कि आप सेना की नौकरी छोड़ कर बाबा कसे बन गए तो इस पर उन्होंने ने मज़ेदार किस्सा सुनाया ! उन्हीं के शब्दों में ‘’1965  में भारत-पाकिस्तान के चल रहे यौध में मैं एक लड़ाकू विमान से बमबारी कर रहा था.उस समय पूर्वोत्तर के आकाश में था,तभी मेरे विमान में तकनीकी ख़राब आ गई ,विमान का संपर्क बेस सेंटर से टूट गया ,मेरे हाथ-पांव फूल रहे थे,तभी काकपिट में मुझे पीछे से कोई ओई आवाज़ सुने दी,मुड़कर देखा तो मेरे गुरु हरी बाबा खड़े थेउसके बाद मुझे नहीं मालूम,चमत्कार सा हो गया.वह सकुशल विमान सहित बेस कैंप पर उतर चुके थे’’. उन्होंने ने आगे बताया था कि काकपिट से निकलने के बाद उन्होंने ने निर्णय लिए कि अब वह सेना की लड़ाई से दूर शांत और अध्यात्मिक जीवन व्यतीत करने के साथ-साथ पूरे विश्व को शांति के मार्ग पर ले जायेंगे. विश्व का तो पता नहीं,हाँ बाबा पायलट आजकल उत्तराखंड की एक पहाड़ी पर बने अपने आश्रम में विदेशी शिष्याओं के साथ शांत वातावरण में शांति का उपदेश दे रहे हैं.

     हां, यह तो रही बाबा के बारे मेंउसके बाद जब बाबा को छह गुणे तीन मीटर एवं छह मीटर के गड्ढे में समाधि लेने का दिन आया तो जिला प्रशासन ने रोक लगाते हुए समाधि लेने पर प्रतिबंध लगा दिया. बाबा पायलट को बैरंग वापस लौट जाना पड़ा. समाधि न लेने की खबर को जब मैं ने लिखी और वह छपी तो विद्यापीठ के कुछ लोग मेरे पीछे पड़ गएऔर मुझे अवैध असलहा रखने के मामले में फ़साने का षड्यंत्र रचे लेकिन... इसके आगे कल...

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