बनारस नामा-7
साल 1982 - 83 का था,उन दिनों को काशी यानी बनारस में रंगमंच का स्वर्णिम युग कहा जा सकता है .सप्ताह में लगभग कम से कम पांच नाटकों का मंचन तो होता ही था, जिनमें टिकट भी बिकते थे. शहर के बीचो-बीच में एक मात्र प्रेक्षागृह था , मुरारी लाल मेहता प्रेक्षागृह' जिसे नागरी नाटक मंडली के नाम से जाना जाता है . बी.एच .यू का भी अपना प्रेक्षागृह भी था ,लेकिन शहर से बाहर होने की वजह से नाट्य प्रेमियों का वहां पहुंचना कठिन होता था,इस लिए नागरी नाटक मंडली को प्राथमिकता मिलती थी. साहित्य ,संस्कृति से जुड़े होने की वजह से नाटकों की ओर झुकना भी स्वाभाविक ही था. कई संस्थाओं से जुड़ा हुआ भी था. इस बीच काशी के वरिष्ठ पत्रकार पुरोषत्तम मिश्र जी के संपर्क में आया. मिश्र जी का पत्रकारिता क्षेत्र के साथ-साथ संगीत घरानों में भी गहरी पैठ थी . रंगकर्मियों के साथ तो उनका रिश्ता भी बहुत गहरा रहा ही . उन दिनों वह एक साप्ताहिक अख़बार 'शांति मार्ग' के नाम से निकलते थे,मैं भी उस अख़बार से जुड़ा हुआ था.शांति मार्ग का कार्यालय वाराणसी कैंट स्टेशन के ठीक सामने निगम के बनाये शापिंग काम्प्लेक्स के प्रथम तल पर था.
एक दिन काशी के वरिष्ठ रंगकर्मी एवं नाट्य निर्देशक स्व राम सिंह आज़ाद 'शांति मार्ग'के कार्यालय में आये ,बात-चीत के दौरान यह तय हुआ कि पचास साल (उस समय-1983 में) पहले इसी काशी में जय शंकर प्रसाद जी द्वारा लिखित ऐतिहासिक कृति "गुंडा"का मंचन हुआ था ,लेकिन उसके बाद आज तक नहीं हुआ. यह बात मिश्र जी को जम गई ,आनन-फानन में तुरंत "वसुंधरा"नामक एक साहित्यिक संस्था का गठन किया गया ,जिसमें मुझे भी एक पद दिया गया . फिर तैयारी शुरू हो गई मंचन की . नागरी नाटक मंडली को बुक भी कर दिया गया ,कार्यक्रम के मुख्य अतिथि के रूप मैं तत्कालीन विधान परिषद सदस्य चंद्रशेखर प्रसाद को बनाया गया.
'गुंडा' की संकल्पना जय शंकर प्रसाद जी ने दो सौ साल पहले 1781 में काशी के नागरिकों द्वारा फिरंगियों के विरुद्ध किये गए प्रथम 'विद्रोह' पर की थी . उन दिनों बनारसी गुंडे कोई अपराधी नहीं बल्कि गरीबों के रक्षक और देश भक्त होते थे. इन्हीं में से एक थे बनारसी गुंडा नन्हकू सिंह,जिनके नाम से फिरंगियों की रूह तक कांपती थी.इस मंचन को न करने की कई धमकियाँ भी मिलीं थीं ,लेकिन उन धमकियों के बीच नाटक को मंचित करने के निर्णय पर स्व आजाद जी एवं श्री मिश्र जी ने कर रखा था.आप कल्पना नहीं कर सकते की आज से 38 साल पहले पूरे मंच पर साईकोलमा के प्रयोग के साथ-साथ आधुनिक तकनीक के प्रयोग के बीच मंचन किया गया था. जिसमे कलात्मक इम्फेक्ट को आज भी काशी के रंगकर्मी नहीं भूल पाए हैं.
एक मज़ेदार किस्सा बताऊँ आप को , नाटक के बीच बनारसी गुंडा नन्ह्कुं सिंह अपने बल का प्रयोग दर्शाते हुए दो मुर्गों को स्टेज पर लड़वाते हैं. जिसका रिहर्सल पर्दा उठाने से पहले किया जा रहा था, सच मुच के दोनों मुर्गों को लडवाया जा राहा था,लेकिन दोनों सामने आते , हुंकार भरते फिर वापस हो लेते ,इसे देखते हुए हम आयोजकों के माथे पर शिकन आना स्वाभाविक था ही ,उधर निर्देशक की हालत तो आप समझ सकते हीं हैं . ख़ैर साहब बाबा विश्वनाथ का नाम लेकर निर्णय लिया गया की जो होगा देखा जायेगा. हाल का पर्दा उठा ,दोनों मुर्गों को मंच पर लाया गया ,उनकी लड़ाई के लिए इधर दोनों तरफ से हुंकार उठी, उधर दोनों मुर्गे स्टेज पर एक दुसरे के खून के प्यासे हो कर आक्रमण कर उठे ,लगभग तीन से चार मिनिट के इस दृश्य ने हाल मैं बठे दर्शकों को अपनी दांतों से उँगलियों को काटने पर मजबूर कर दिया. इसी तरह एक दूसरा दृश्य था काशी वासियों और फिरंगियों के बीच युद्ध का, जिसमें स्टेज पर लाठियों टकराहट एवं तमंचों की देशी गोलियों की आवाज़ से दर्शक दहल सा गए थे.
नन्हकू सिंह की भूमिका स्वयम राम सिंह आज़ाद ने अदा की थी,अन्य मुख्य पत्रों में थे बोधि सिंह गोपाल जी,कुबड़ा मौलवी बने थे अमर नाथ शर्मा उर्फ़ .... रईस की भूमिका में थे रमजान राही,मुन्नू पानवाले सुरेन्द्र झा,तवायफ की महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी उन दिनों की प्रसिद्ध कथक नृत्यांगना एवं भोजपुरी की नायिका मधु मिश्र ने.एनी कलाकारों में थे जितेन्द्र मुग्ध,अरुण शर्मा,विनय पाठक,अतुल कुमार एवं शिरीष प्रसाद. जून 1982 में जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित "गुंडा" नाटक के मंचन के बाद बनारस क्या पुरे देश में आज तक इसका दुबारा मंचन नहीं हुआ,यह भी एक ऐतिहासिक सत्य है .
तेंदुलकर की 'बेबी' और धमकी
इसी वर्ष के दौरान की बात है ,कुछ युवा लोगों ने मिल कर एक संस्था बनाई 'आईना' . जिसने मराठी नाटककार विजय तेंदुलकर के विवादास्पद नाटक "बेबी" के मंचन का मन बनया. प्रश्न यह था की इतना विवादास्पद का मंचन हो पाएगा कि नहीं. लेकिन युवाओं में जोश था ,इसमें मेरा छोटा भाई भी शामिल था. नाटक के रिहर्सल का मुहूर्त मधु मिश्रा ने ही किया था. हाल बुक हो गया ,मंचन का समय भी. तभी कुछ दबंग लोगों ने आयोजकों के पास एक धमकी भरा पत्र भेजा कि मंचन को स्थगित किया जाये,नहीं तो ठीक नहीं होगा. आयोजकों ने इसे हलके में लिया .लेकिन जब उनके पास दूसरा धमकी भरा पत्र मंचन के तीन दिन पहले मिला तो उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई. उनके सामने विकट समस्या, प्रवेश पास बंट चुके थे, काफी टिकट भी बिक गए थे. नाटक से जुड़े लोग मेरे पास आये. मेरे सामने भी विकट स्थिति. काफी सोच विचार के बाद उन लोगों से बोला कि मंचन होगा,कैसे होगा ,वह मुझ पर छोड़ दो. नाटक वास्तव मैं विवादस्पद था, जिसमें एक दृश्य में नायिका के साथ नायक जबरन ब्लात्का... करता है,इस तरह के कई अन्य दृश्य भी थे,स्वाभाविक था विरोध होना, ख़ैर .
दूसरे दिन मैं किसी को लेकर सेना के एक बड़े अधिकारी के पास पहुंचा और उसे कार्यक्रम में मुख्य अथिति के लिए आमंत्रित किया ,जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार भी लिया.उसके बाद उनको साडी स्थिति से अवगत करवा दिया कि यह परेशानी है ... नाटक के मंचन वाले दिन ,मंचन होने से पहले नागरी नाटक मंडली के प्रवेश द्वार पर छावनी के दो जवान खड़े हो गए , उधर मुख्य अतिथि जी भी पूरे मंचन के दौरान अपनी उपस्थिति बनाये रखी ,नतीज़ा यह निकला कि बिना किसी व्यवधान के बनारस में "बेबी" का मंचन संपन्न हो गया .
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