सोमवार, 25 अक्तूबर 2021

जब षड्यंत्र का शिकार होते-होते बचा


बनारस नामा – 6 

  पायलट बाबा के समाधि न लेने की घटना के बाद वित्त अधिकारी के कुछ खास चहेते अब मुझे फ़साने का षड्यंत्र रचाने लगे, छात्र राजनीति में सक्रीय था ही , छात्रसंघ में संस्कृति सचिव का चुनाव हार ही चूका था, हरा क्या था ,जमानत तक जब्त हो गई थी. ख़ैर अगले साल निर्विरोध चुना गया था. हाँ उन चहेतों में एक हमारे प्रोफ़ेसर साहब भी होते थे.उन दिनों बनारस शहर के तीनो विश्व विद्यालय (काशी विद्यापीठ , बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय एवं डॉ संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय) अराजकता के केंद्र भी होते ही थे,मार-पीट,दबंगई आदि आम बात थी. हुआ यूँ कि एक शाम विद्यापीठ परिसर मैं आचार्य नरेंद्र देव छात्रावास में मेरे कुछ सहपाठी रहते थे,उन्हीं के पास बैठा हुआ था, सुबह तीन बजे की पसेंजर गाड़ी (बनारस-लखनऊ ) से अपने घर फैजाबाद (अरे भाई अब अयोध्या,आगे से अयोध्या केंट कहियेगा) जाना था, लगभग रात के 11 बजे वहां से उठा अपने घर गया और सुबह की गाड़ी से फैजाबाद चला गया. 

  इधर सुबह हुई ,दिन के लगभग 11 से 12 बजे के बीच उसी हास्टल में पुलिस का छापा पड़ा और उसी कमरे से कुछ देशी असलहे जमीन के नीचे से बरामद हुए. उधर क़ानूनी प्रक्रिया चल रही थी, इसी बीच हास्टल  के सहपाठी भागने में सफल हो गए. यह खबर उन प्रोफेसर साहब तक पहुंची,और उन्हें यह पता चला कि रात मैं भी उसी कमरे में बैठा था, फिर क्या मेरी खोज जोर-शोर से शुरू हो गई . उधर मेरे कुछ सहपाठी जो हरदम साथ रहते थे उनको उन प्रोफेसर साहब ने पकड़ लिया . और उनसे मेरे बारे मैं जानकारी लेने का दिन भर प्रयास किया,लेकिन सही मैं उन सहपाठियों को भी कुछ पता नहीं था, और मुझे भी. दोपहर बाद कुछ लोग मेरे बनारस वाले घर भी गए तो कालोनी के लोगों ने बताया कि वह तो रात ही अपने घर फैजाबाद चले गए हैं.तब जा कर उन सहपाठियों को प्रोफ़ेसर साहब ने आज़ाद किया. सही बताऊँ छात्रावास की उस घटना के बारे में मुझे भी कोई जानकारी नहीं थी. ख़ैर साहब एक बड़ी मुसीबत से बाबा बोले नाथ के आशीर्वाद से बच गया. नहीं नो जिंदगी भर का कलंक लग जाता. 

जब कुलपति जी ने मीठी डांट पिलाई ....

जुलाई-अगस्त का महिना रहा होगा ,सभी पाठ्यक्रमों में प्रवेश प्रक्रिया लगभग बंद हो चुकी थी. तभी एक दोपहर की बात है ,मैं अर्थशास्त्र विभाग के परिसर में नीम के पेड़ की छाँव में मित्रों के साथ बैठा,तभी मिर्ज़ापुर जिले कि दो छात्राएं वहां आईं और पूछा कि गाँधी जी कौन हैं, दोस्तों ने मेरे तरफ ईशारा करते हुए कहा कि यहीं हैं. इस पर उन छात्राओं ने कहा कि ‘लेखा विभाग’ में प्रवेश शुल्क नहीं जमा कर रहें हैं, अगर आप चाहेंगे तो हो सकता है,इस पर मै ने भी अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए अपना पीछा छुड़ाना चाहा लेकिन वे मानाने को तैयार ही नहीं हो रही थी. उनका कहाँ था की सभी ने यही कहा है कि आप चाहोगे तो हो जायेगा. इतने में एक छात्रा के दोनों नयनों से गंगा-जमुना की धारा अविरल बह चली ,अब आप ही सोचे इन गंगा-जमुनी धारा के चलते जब हमारे ऋषि मुनियों ने अपनी प्रतिज्ञा तक तोड़ दी थी,तो मेरी क्या बिसात. उधर मित्रों का उकसाना जारी ही रहा.

  ‘मरता क्या न करता’ वाली कहावत को चरितार्थ करता हुआ उनके साथ ‘भारत माता मंदिर ‘के बगल वाले भवन में पहुंचा, उन दिनों विद्यापीठ का प्रशासनिक कार्यालय वहीँ होता था. वहां पर क्लर्क महोदय ने फार्म लेने से साफ इंकार कर दिया. काफी अनुनय-विनय किया,लेकिन वे अपनी सीमा की बाध्यता के चलते अपने को असमर्थ पा रहे थे. तभी किसी ने कहा कि इस पर कुलपति महोदय अपनी चिड़िया(हस्ताक्षर) बैठा दें तो मुझे लेने में कोई परेशानी नहीं होगी. कुछ राह दिखी ,उन महिलाओं को ले कर कुलपति जी के कार्यालय पहुंचा,जो परिसर में ही था. उनके पी.ए. से काफी अनुरोध करने के बाद मिलाने की अनुमति मिली .(एक बात बताता चलूँ,उन दिनों छात्रों और कुलपति जी के बिच इतनी दुरी नहीं होती थी,जितनी अब होने लगी है)

कुलपति साहब पहले तो मुझे देखते ही आग-बबूला हो उठे,कारन था कि उनके खिलाफ एक पत्रिका में एक आलेख लिखा था “मनमाने कुलपति की दास्तान”. बस उसी को लेकर वह नाराज़ थे ही. 

 हमारी संस्कृति मैं बड़ों के चरण स्पर्श का बड़ा अहम् महत्त्व होता है, जैसे ही मैं ने उनके चरण स्पर्श किये ,उन्हों ने आशीर्वाद तो दिया ही होगा, बोले कि क्या बवाल ले कर आये हो ,मैं ने उन्हें सारी बात बताई ,इस पर कुलपति जी ने कहा की अंतिम तिथि भी निकल गई है. नहीं हो सकता . काफी अनुरोध करने पर किसी तरह उन्होंने ने अपने हस्ताक्षर कर दिए. इस तरह से उन दोनों छात्रों का प्रवेश हो गया. 

(अगली श्रंखला में बनारस से विश्व मानव करनाल (हरियाणा) वाया सहारनपुर की यात्रा)        

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