बनारस नामा -1
वैसे मेरी पत्रकारिता का यह 45 वां साल है, पहली रचना 1976 में
नंदन एवं मधु मुस्कान में छपी थी,बस इसी वर्ष से लेखन कहें या पत्रकारिता,जो भूत सर पर सवार हुआ तो आज तक उतरा नहीं ,आपातकाल की पत्रकारिता
रह हो या जे.पी आन्दोलन की या फिर आरक्षण विरोधी आन्दोलन की .उस दौरान खूब लिखा .कारण था कि किशोरवय से युवावस्था की ओर अग्रसर था.लिखने-पढ़ने
से अधिक छपने की लालसा भी कह सकते हैं. 1976 से 1986 तक यानी दस साल स्वतंत्र लेखन
,पत्रकारिता भी जमकर
की.इन दस सालों में बिहार के बाबी हत्या कांड
का मामला रहा हो या काशी विश्वनाथ मंदिर के गर्भगृह से 22 किलो चांदी के गायब होने
की घटना.इसी बीच कशी विद्यापीठ में एक साथ 35 नए पाठ्यक्रमों का विश्व विद्यालय अनुदान आयोग की अनुमति के साथ खुलना
. जिनमें एक पाठ्यक्रम था पत्रकारिता में स्नातक का. पत्रकारिता के साथ-साथ छात्र राजनीति में सक्रिय होने के कारण
बिना आवेदन किये ही पत्रकारिता के प्रवेश सूची में पहले नम्बर नाम का होना,लेकिन दोनों साल आर्थिक
स्थिति अच्छी (आज भी नहीं है) न होने के कारण दाखिला नहीं ले सका . विद्यापीठ के कुलपति
थे डॉ डी.एन.चतुर्वेदी साहब ,जो अर्थशास्त्र विभाग के अध्यक्ष भी हुआ करते थे, उनका मुझ पर बहुत स्नेह
रहा. एक दिन कुलपति कार्यालय के एक कर्मचारी मुझे खोजते हुए अर्थशास्त्र विभाग आये
और बोले गाँधी जी आप को कुलपति साहब ने बुलाया है.विद्यापीठ में मुझे मेरे नाम से न
जान कर 'गाँधी' के नाम से जानते थे ,उसका कारण था कि बहुत
दुबला -पतला सा (शर्मीला तो नहीं कह सकता) लड़का था.
कुलपति जी का आदेश मिलते ही उनके कार्यालय ,जो विद्यापीठ के भारत
माता मंदिर की और जाने वाले रस्ते में हुआ करता था, पहुंचा और मिला. कुलपति
साहब ने जो डांटना शुरू किया कि मत पूछिए ? उनका कहना था की दो
बार तुम्हारा नाम पत्रकारिता के प्रवेश की सूची में दिया जा रहा है, एडमिशन क्यों नहीं
लेते ? इस पर मैं ने उन्हें
अपनी स्थिति से अवगत कराया तो ,वे बोले कि बस प्रवेश शुल्क जमा कर औपचारिकता पूरी करो ,आगे देखा जायेगा. डॉ
चतुर्वेदी साहब की ये बातें शाम को बाबू (पिता जी)को बताई. उन्होंने ने तुरंत स्वीकृति
दे दी . इसके पहले उनसे इस बारे में नहीं बताया था,क्यों की अर्थशास्त्र
से परास्नातक कर चुका था,नौकरी नहीं मिली थी. ख़ैर साहब पत्रकारिता में एडमिशन लिया,और द्वितीय श्रेणी
में पास भी कर ली .
जुलाई 1986 की बात है, पत्रकारिता का रिजल्ट
आ चूका था, शाम का समय था ,हर रोज की तरह लहुराबीर
पर क्वींस कालेज के किनारे चाय के ठेले पर जमघट लगी थी,तभी उधर से गुजरते
हुए उत्तर भारत के सर्वाधिक प्रतिष्ठित अखबार 'आज ' के संयुक्त संपादक
एव पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष डॉ राम मोहन पाठक जी गुजर रहे थे कि अचानक उनकी नज़र
मुझ पर पढ़ी ,बस तुरंत उन्हों ने अपनी स्कूटर रोकी, उन्हें रुका देख कर
में तुरंत उनके चरण स्पर्श किया ,आशीर्वाद के साथ-साथ उन्होंने प्रश्न दागा कि रिजल्ट आ गया है,यहाँ क्या कर रही हो? जी ,बस इतना ही बोल पाया
था की ,उनका आदेश हुआ कल
सुबह ग्यारह बजे ऑफिस में मिलो.
दूसरे दिन ठीक ग्यारह
बजे उनके 'आज' कार्यालय के चेंबर में पहुंचा . जहाँ पर डॉ साहब ने तत्कालीन
समाचार संपादक जी के हवाले कर दिया. रात 9 बजे तक सम्पादकीय विभाग में समाचारों को
समझने व बनाने की प्रक्रिया में लगा रहा ,इसी बिच समाचार संपादक
जी आये और कहने लगे कि ,अरे .. अभी तक तुम घर नहीं गए ? मैं कुछ बोलता कि उन्होंने
ही कह दिया कि किसी ने बोला नहीं होगा,तो जाओगे कैसे . ख़ैर उनके आदेश पर 'आज'कार्यालय से निकला
और घर के लिए रवाना हो गया .
(शेष कल )
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