रविवार, 7 जून 2009

मैं और मेरी पत्रकारिता


मैं ने अपनी आंखे उत्तर प्रदेश के एक छोटे से अंचल फैजाबाद(अयोध्या ) में खोली ,जिसे मर्यादा पुरुषोतम भगवान श्री राम की नगरी से जानते हैं ,वहीं उसे अवध के नवाबी शाशन का पहला शहर भी कहा जाता है.जिसमे वे सारे शौक मौजूद थे , जिनके लिए लखनऊ मशहूर था.आज भी उनके अवशेष वहां मौजूद हैं .फैजाबाद की फिंजा में बेगम अख़तर के स्वर आज भी गूंजते हैं। वहीं से मनोहर लाल मोती लाल इंटर कॉलेज से प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की.उसके बाद की पढ़ाई के लिए बाबा भोले नाथ की नगरी वाराणसी (काशी) चला गया .जहाँ से हरिश्चंद्र इंटर कॉलेज से इंटर की परीक्षा पास की। फ़िर काशी विद्या पीठ विश्व विधालय से स्नातक (१९८२) उसके बाद १९८५ मैं वहीं से अर्थशास्त्र विषय से परास्नातक (ऍम . ) किया .१९८६ मैं पत्रकारिता से बी. जे .(स्नातक ) किया . १९७६ में मेरा पहला बनाया कार्टून उन दिनों की लोकप्रिय बच्चों की पत्रिका मधु मुस्कान में प्रकाशित हुई थी , जिसके लिए मुझे पाचं रुपये का मानधन प्राप्त हुआ था ,बस उसी समय से लेखन का चस्का लग गया जो आज तक जारी है और जीविका का साधन भी .१९७८ में देश भर में फैले आरक्षण आन्दोलन के दौरान आरक्षण की लपटे वाराणसी में भी लगी थी, जिसकी कवरेज कुछ साप्ताहिक अख़बारों के लिए में ने भी किया था.जिसका एक शीर्षक देखें "बिहार धू-धू कर के जल उठा , आरक्षण विरोधी आन्दोलन की हवा का रुख - उतर प्रदेश की ओर भी ....".इस बीच उन दिनों की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं मसलन धर्मयुग ,साप्ताहिक हिंदुस्तान ,रविवार ,दिनमान के साथ-साथ हिन्दी देनिक आज ,देनिक जागरण ,जनमोर्चा ,जन्मुख ,जनवार्ता ,सन्मार्ग अदि में भी स्वतंत्र लेखन करता .कत्थक की पहली देन श्रीमती अलकनंदा जी का अन्तिम बातचीत में ही की थी ,जिसे धर्मयुग ने -१२ मई १९८४ के अंक में उनकी फोटो सहित प्रकाशित की थी.वह उन दिनों वाराणसी के सरकारी अस्पताल में इलाज करवा रहीं थीं। उनका गुर्दा खराब हो गया था ,ख़बर छपने के साथ ही ततकालीन संपादक जी श्री धर्मवीर भारतीजी मुझे एक टेलीग्राम भेज कर अपनी ओर से आर्थिक सहायत देने की सूचन देने का संदेस दिया था ,जब में वह संदेश ले कर १२ मई की शाम कबीर चौरा स्थित उनके निवास पर पहुँचा तो पता चला की उसी सुबह उन्होंने अन्तिम साँस ली थी ,यह ख़बर तुंरत मुंबई में श्री भरती जी को दी (उन दिनों टेलीग्राम ही संपर्क का साधन होते थे ),जिन्होंने धर्मयुग के अगले अंक में उनके निधन की ख़बर भी प्रकाशित की थी .वाराणसी से प्रकाशित हिन्दी साप्ताहिक जन्मुख के जुलाई १९८३ के अंक में मेरी एक वयंग्य रचना "मोसम कवि समेलन" का छपीजिस पर कला साहित्य विद्यापीठ मथुरा ने "साहित्य सरस्वती "की उपाधि से सम्मानित किया था।
सन १९८६ में पत्रकारिता की परीक्षा पास करने के बाद काफी समय तक खाली था कि एक दिन वाराणसी के वयस्त बाजार लहुराबीर में मेरे पत्रकारिता के गुरु (जो उन दिनों दैनिक आज के संयुक्त सम्पादक होने के साथ ही विद्या पीठ पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष हुवा करते थे ,मैं भी आज के लिए स्वतंत्र लेखन करता था ) डॉ . राम मोहन पाठक जी मिल गए , और दुसरे दिन आज कार्यालय मे बुलाया .उनके निर्देश पर मैं निश्चित समय पर आज कार्यालय पहुँच कर डॉ साहेब से मिला। बस उसी दिन से मैं सड़क से सम्पादकीय डेक्स पर पहुँच गया। उस दिन डॉ साहेब ने एक बात कही थी कि पत्रकरिता मैं घर का मोह छोड़ना होगा ,तभी कुछ कर पाओगे उनकी बात को मैं ने गाठंबाँध ली थी,आज जो कुछ भी हूँ , डॉ पाठक जी कि वजह से हूँ ।उसके बाद आगरा संस्करण भेज दिया गया ,जहाँ मैं लगभग डेड वर्ष तक कम किया ,किन्ही कारणों से बाद मैं संपादक जी (उस समय के )से नहीं बनी ,उन्हों ने पुनः वाराणसी भेज दिया .लेकिन वहां पर फ़िर बात नहीं बनी ,बनती क्यों ,सम्पादकजी से खटपट हुई थी .इसी दोरान दिल्ली मैं श्री माधव कान्त मिश्रा जी संपर्क हुआ ,उन्हों ने बरेली ,सहारनपुर करनाल (हरियाणा) से प्रकाशित
हिन्दी देनिक विश्मनांव के सहारनपुर संस्करण में भेज दिया ,बाद मैं मैं करनाल संस्करण चला गया .युवा होने की वजह से इधर -उधर छलांग लगाने लगा ,इसी क्रम मैं गुवाहाटी से प्रकाशित दैनिक उत्तरकाल मैं जा पहुँचा ,
माह तक वहां रहा लेकिन फ़िर वापस विश्मानव मैं वापस लौट आया .कुछ समय बाद उस अख़बार को उस समय के हरियाणा के मुख्य मंत्री ओम प्रकाश चौटाला ने खरीद लिया था। लगभग दो वर्षो के बाद वह भी बंद
हो गया .बंद होने का कारन था उनके पार्टी समर्थको का हस्तक्षेप था .अखबार बंद होने के बाद लगभग ३५ पत्रकार
सड़क पर गए .लोग जहाँ जगह मिली चले गए.मैं लखनऊ चला गया , उन दिनों वहां पर दैनिक जागरण मैं समाचार संपादक श्री दिनेश दीनू जी हुवा करते थे ,जिनके मार्ग दर्शन मैं ने सम्पादकीय विभाग मैं कम सुरु किया लेकिन वहां के संपादक स्व विनोद शुक्लजी होते थे ,लेकिन सायद मैं उन्हें पसंद नहीं आया ,इस लिए कुछ समय तक ही वहां पर टिका.कारन था .....,

'इंग्लैंड-आयरलैंड' और 'अंटाकर्टिका एक अनोखा महादेश'

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