शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009


बुरहानपुर के जैनाबाद स्थित आहुखाना,जहाँ पर प्रसव के दोरान मुमताज की मृत्यु हुई थी. 
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दो बार दफनाया गया था मुमताज को

 विश्व के सात आश्र्चार्यों में से एक ,प्रेम का प्रतीक ताजमहल और आगरा आज एक दुसरे के पर्याय बन चुके  हैं.अब ताज भारत का गौरव  ही नहीं अपितु दुनिया का गौरव  बन चूका है.ताजमहल दुनिया की उन 165 एतिहासिक इमारतों में से एक है ,जिसे राष्ट्र  संघ ने विश्व धरोवर की संज्ञा से विभूषित किया है.इस तरह हम  कह सकते हैं की ताज हमारे दिहने का एक बेशकीमती दाँत है,जो सैलानियों एवम विदेशी पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है.प्रेम के प्रतीक इस खुबसूरत ताज के गर्भ में मुग़ल सम्राट शाहजहाँ की सुंदर प्रेयशी मुमताज महल की यादे सोयी हुई है.जिसका निर्माण शाहजहाँ ने उसकी यद् में करवाया था.कहते हैं कि इसके बनाने में कुल बाईस वर्ष लगे थे,लेकिन  यह बात बहुत कम लोगों को पता है कि सम्राट शाहजहाँ कि पतनी मुमताज कि न तो आगरा में मोत हुई थी ओर नहीं उसे आगरा में दफनाया गया था.मुमताज महल तो मध्य प्रदेश के एक छोटे जिले बुरहानपुर (पहले खंडवा जिले का एक तहसील था)के जैनाबाद तहसील में मरी थी,जो सूर्य पुत्री ताप्ती नदी के पूर्व में आज भी स्थित है.इतिहासकारों के अनुसार खान जहाँ लोदी ने जब 1631 में विद्रोह का झंडा उठाया था.

तब  शाहजहाँ  अपनी पत्नी (जिसे वह अथाह प्रेम करता था.) मुमताज महल को लेकर लेकर बुरहानपुर चला गया ,उन दिनों मुमताज गर्भवती थी ,पुरे 24 घंटे तक  प्रसव पीड़ा से तड़पते हुवे जीवन-मृत्यु से संघर्ष करती रही . सात जून ,दिन बुधवार सन 1639 कि वह भयानक रात थी,शाहजहाँ अपने कई ईरानी हकीमों एवं वैद्यों के साथ बैठा दीपक कि टिमटिमाती लौ में अपनी पत्नी के चहरे को देखता रहा ,उसी रात मुमताज महल ने एक सुन्दर बच्चे को जन्म दिया ,जो अधिक देर तक जिन्दा नहीं रह सका .थोड़ी देर बाद मुमताज ने भी दम तोड़ दिया.दूसरे दिन गुरुवार कि शाम उसे वहीँ आहुखाना के पाइन बाग में सुपुर्द -ऐ- खाक आर दिया गया .वह ईमारत आज भी उसी जगाह जीर्ण-शीर्ण अवस्था में खड़ा मुमताज के दर्द को बयां करती है.इतिहासकारों के मुताबिक   मुमताज कि मोत  के बाद शाहजहाँ का मन हरम में नहीं रम सका,कुछ दिनों के भीतर ही उसके  बाल रुई जैसे  सफ़ेद हो गए.वह अर्धविक्षिप्त सा हो गया,वह सफ़ेद कपडे पहनने लगा .

एक दिन उसने मुमताज कि कब्र पर पर हाथ रख कर कसम खाई कि मुमताज तेरी यद् में एक ऐसी ईमारत बनवाऊंगा ,जिसके बराबर कि दुनिया में  दूसरी नहीं होगी. बताते हैं कि शाहजहाँ कि इच्छा थी कि ताप्ती नदी के तट पर ही मुमताज कि स्मृति में एक भव्य ईमारत बने ,जिसकी सानी का दुनिया में दूसरी ईमारत न हो. इसके लिए शाहजहाँ ने ईरान से शिल्पकारों को जैनाबाद बुलवाया .ईरानी शिल्पकारों ने ताप्ती  नदी के का निरिक्षण किया तो पाया कि नदी के किनारे कि काली  मिटटी में पकड़ नहीं है,और आस-पास की जमीं भी दलदली है.दूसरी सबसे बड़ी बाधा ये थी कि तप्ति नदी का प्रवाह तेज होने के कारण जबरदस्त भूमि कटाव था,इस लिए वहां पर ईमारत को खड़ा कर पाना संभव नहीं हो सका उन दिनों भारत  कि राजधानी आगरा थी ,इस लिए शाहजहाँ ने आगरा में ही पत्नी कि यद् में ईमारत बनवाने का मन बनाया .उन दिनों यमुना के तट पर बड़े -बड़े रईसों कि हवेलियाँ थी ,जब हवेलियों  के मालिकों को शाहजहाँ कि इच्छा का पता चला तो वे सभी अपनी-अपनी हवेलियाँ बादशाह को देने कि होड़ लगा दी.इतिहास में इस बात का पता चलता है कि सम्राट शाहजहाँ को राजा जय  सिंह कि अजमेर वाली हवेली पसंद आ गई.सम्राट ने हवेली चुनने  के बाद ईरान ,तुर्की,फ़्रांस एवम  इटली से शिल्पकारों को बुलवाया .कहते हैं कि उस समय वेनिस से प्रसिद्ध सुनार एवम जेरोनियो को बुलवाया गया था शिराज से उस्ताद ईसा आफंदी भी आये ,जिन्होंने ताजमहल कि रुपरेखा तैयार कि थी.उसी के अनुरूप कब्र कि जगाह को तय किया गया .22 सालों के बाद जब प्रेम का प्रतीक ताजमहल बन कर तैयार हो गया तो उसमे मुमताज महल के शव को पुनः दफनाने कि प्रक्रिया शुरू हुई .बुरहानपुर  के जैनाबाद से मुमताज महल के जनाजे को एक विशाल जुलूस के साथ आगरा ले जाया गया और ताजमहल के गर्भगृह में दफना  दिया गया. इस विशाल जुलूस पर इतिहासकारों कि टिप्पणी है कि उस विशाल जुलूस पर इतना खर्च हुआ था कि  जो किल्योपेट्रा के उस एतिहासिक  जुलूस कि याद  दिलाता है जब किल्योपेट्रा अपने देश से एक विशाल समूह के साथ सीज़र के पास गयी थी.

जिसके बारे में इतिहासकारों का कहना है कि उस जुलूस पर उस समय आठ करोड़ रुपये खर्च हुवे थे.ताज के निर्माण के दौरान ही शाहजहाँ के बेटे औरंगजेब ने   उन्हें कैद कर के पास के लालकिले में रख दिया . जहाँ से शाहजहाँ एक खिड़की से निर्माणाधीन   ताजमहल  को चोबीस  घंटे  देखते रहते थे. कहते हैं कि जब तक ताजमहल बन कर तैयार होता ,इसी बीच शाहजहाँ कि मौत हो गई.मौत के पहले शाहजहाँ ने इच्छा जाहिर कि थी कि "उसकी मौत के बाद उसे यमुना नदी के दूसरे छोर पर काले पत्थर से बने एक भव्य ईमारत में दफ़न किया जाए, और दोनों इमारतों को एक पुल से जोड़ दिया जाय",लेकिन उसके पुत्र औरंगजेब ने अपने पिता कि इच्छा पूरी   करने के बजाय ,सफ़ेद संगमरमर के उसी भव्य ईमारत में दफना उसी जगाह दफना दिया,जहाँ पर उसकी माँ यानि मुमताजमहल चिर निद्रा में सोईं हुई थी.उसने दोनों प्रेमियों को आस-पास सुला कर एक इतिहास रच दिया.पाठकों बुहरानपुर पहले मध्य प्रदेश के खंडवा जिले कि एक तहसील हुआ  करती थी ,जिसे हाल ही में जिला बना दिया गया है.यह जिला दिल्ली  -मुंबई रेलमार्ग पर इटारसी-भुसावल के बीच स्थित है ,बुहरानपुर रेलवे स्टेशन भी है ,जहाँ पर लगभग सभी प्रमुख रेल गाड़ियाँ रुकती हैं.बुहरानपुर स्टेसन  से लगभग दस किलोमीटर दूर ,सहर के बीच बहाने वाली ताप्ती नदी  के उस पर  जैनाबाद (फारुकी काल),जो कभी बादशाहों कि शिकारगाह (आहुखाना) हुआ करता था, जिसे दक्षिण  का सूबेदार बनाने के बाद शहजादा दानियाल ,जो शिकार का काफी शोकिन था ,ने इस जगाह को अपने पसंद के अनुरूप महल,हौज ,बाग-बगीचे के बीच नहरों का निर्माण करवाया था.लेकिन ८ अप्रेल १६०५ को मात्र तेईस साल कि उम्र मे सूबेदार कि मौत हो गई,स्थानीय लूग बताते हैं कि इसीके बाद अहुखाना उजड़ने लगा.  स्थानीय वरिष्ठ    पत्रकार मनोज यादव कहतें है कि जहाँगीर के शासन काल में सम्राट अकबर के नौ रतनों में से एक अब्दुल रहीम खानखाना  ने ईरान से खिरनी एवम एनी प्रजतिओं के पोधे मंगवा कर अहुखाना को पुनः ईरानी बाग के रूप में विकसित करवाया.इस बाग का  नाम शाहजहाँ  कि पुत्री आलमआरा  के नाम पर पड़ा.बादशाह नामा के लेखक अब्दुल हामिद  लाहोरी  साहब के मुताबिक शाहजहाँ कि प्रेयसी मुमताज महल कि जब प्रसव के दोरान  मोत हो गई तो उसे यहीं पर स्थाई रूप से दफ़न कर दिया गया था,जिसके लिए आहुखाने के एक बड़े होज को बंद कर के तल घर बनाया गया ,और वहीँ पर मुमताज के जनाजे को छः माह रखने के बाद शाहजहाँ का  बेटा शहजादा सुजा,सुन्नी बेगम व् शाह हाकिम वजीर खान ने मुमताज के शव को लेकर बुहरानपुर के इतवारागेट -दिल्ली दरवाज से होते हुवे आगा ले गए. जहाँ पर यमुना के तट पर स्थित राजा मान सिंह के पोते राजा जाय सिंह के बाग में में बने ताजमहल में सम्राट शाहजहाँ कि प्रेयसी एवम पत्नी मुमताजमहल के जनाजे को दुबारा दफना दिया गया.यह वाही जगाह है जहाँ आज प्रेम का शास्वत प्रतीक ,शाहजहाँ -मुमताज के अमर प्रेम के बखानो को बयां करता हुवा नील गगन के नीचे विश्व के सात अजूबों में से पहला अजूबा जिसे  प्रेम की कहें या फिर पति-पत्नी के अटूट बंधन को, प्रदर्शित करता हुआ विश्व प्रसिद्ध "ताजमहल" खड़ा है.
                                                                                                 प्रदीप श्रीवास्तव

                                                                          आगरा  का ताजमहल
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रविवार, 1 नवंबर 2009

             कंक्रीट के जंगल में लुप्त होती गौरय्या

पाठको आप में से कई लोगों को याद भी नहीं होगा कि आखिरी बार गौरय्या उन्होंने कब देखा था, नई पीढी के बच्चों ने तो केवल अपनी पाठ्य पुस्तकों में ही पढ़ा होगा ,वह भी गौरय्या नहीं ,अंगरेजी में स्पयरो शब्द से ही जानते होंगें. जानेंगे भी कैसे ,महानगरों कि बात छोडें, अब तो छोटे शहरों के साथ -साथ कस्बों में भी बन रही अपार्टमेंटों के अलावा ध्वनी प्रदूषण के चलते नन्हीं सी खुबसूरत जान घबरा कर गायब हो गईं हैं.कंक्रीटों के जंगल के बीच जरुर शहरों के सोंदर्य में चार-चाँद लग गए हों,लेकिन सच्चाई ये है कि कंकरीट के इस जंगल में पेड़ गायब होते जा रहें है ,या यूँ कहें कि गायब होते पेडो के चलते इन गौरय्या का बसेरा काम हो गया है.महानगरों कि भागम -भाग कि जिंदिगी के बीच वाहनों कि चकाचोंध एवं ध्वनी प्रदुषण के चलते लोगों में इतना समय नहीं है कि वे इन नन्ही जान कि दाना पानी दें सके.

लगभग दो दशक पीछे चलें तो आप को याद आयेगा कि किस तरह यह घरेलु चिडिया गौरय्या कि चहचाहट से घर वालों कि नींद खुलते थी ,दादी हों या नानी वे अपनें हाथों में झाडू लेकर घर के बड़े आँगन को बुहारने लगाती थीं. आंगन साफ होते ही गौरय्या का झुंड चीं-चीं करती आंगन में उतर आतीं. जिन्हें देख कर हम छोटे -छोटे बच्चे किलकारी भरते हुवे उन्हें पकड़ने का प्रयास करते ,लेकिन वे नन्ही जान फुदक कर दूर जा बैठती .याद करें कि तब सुबह का आभास सूर्योदय से पहले इन गौरय्या कि चहचाहट या फिर कोवे के कावं- कावं से होता था.जिनकी आवाज सुनकर लोग अपना बिस्तर छोड़ देते थे. अब उन आवाजों वा चहचाहट कि जगह ले ली है मोबाईल कि टोन ने .आखिर क्यों, क्यों कि उनकी चहचाहट को हम-आप ने छीन ली है. क्यों कि कटते पेड ,बढते प्रदुषण के चलते यह नन्ही जान गौरय्या हमसे रूठ गई है.अब आप कि कहाँ सुने देती है इनकी कलरव.इनका रूठ जाना भी जायज है. हम अपनी आधुनिक जीवन शैली में इतने स्वार्थी हो गएँ हैं कि हमें उनके जीवन कि परवाह ही नहीं रही .
याद करें तब मकानों कि ऊँची-ऊँची दीवारे होती थी,जिन पर रोशनी वा हवा आदि आने के लिए रोशन दन बने होते थे, जिन पर वे तिनका-तिनका जोड़ कर अपना घोंसला बनती,फिर उसमें अंडा देती ,जिसका वे कितना ख्याल रखती. हम छोटे भाई-बहन कभी -कभी उनके घोसलों से अंडे हटा देते .जब वे वापस लोटती तो घोंसले अपने अण्डों को न देख कर कितनी तेज ची-ची करती,जिसे सुनकर माँ ,नानी वा दादी हम लोगों पर कितना गुस्सा करती .जब हम अंडे वापस रख देते , तो वे उन्हें देख कर कितनी खुश होतीं थी ,इस बात का पता आज चलता है,जब हम अपने बच्चों को कुछ समय बड देखते हैं.आज जो घर बन रहे हैं उनमे आदमी के लिए ही जगह नहीं होती ,तो वहाँ पर पक्षी अपना घरोंदा कहाँ बना सकते हैं. जो जगह बनाते भी हैं तो वहाँ पर शीशे या फिर लोहे कि जाली लगवा देते हैं.
कहने का मतलब आज हम अपने घरोंदों के बनवाने के फेर में इन नन्ही जान के घरोंदो को छिनते जा रहे हैं. आखिर वे जाएँ तो जाएँ कहाँ ? कालोनियों में पार्क तो बन रहें हैं ,लेकिन वहाँ पर पेडो कि जगह लोहे के खेलने के उपकरण लग गएँ हैं.शहर ही नहीं गांवो इ हालत बुरी हो चली है,खेतों कीटनाशक डालने से मरे कीट गौरेये के खाने के लायक नहीं रहे पहले घरों के आंगन में बच्चो द्वारा खाना खाते वक्त आधा खाते आधा गिराते थे ,अब वह भी नहीं रहा.बच्चे घर कि चार दिवारी के भीतर डायनिंग टेबल पर खाते हैं.तो फिर जूठन कहाँ निकलेगा,जिसे चिरिया चुग सकेगी .
बात केवल गौरय्या कि ही नहीं है,अब न तो कोवे दिखाई देते हैं न ही गौरेये कि सहेली मैना ही दिखाती है,न ही कोयल कि कूँ- कूँ सुनाई देती है.तोते कि बात ही न करें टी बेहतर होगा .
आखिर यह सब क्यों, इसी लिए न कि हम सब प्रकृति से खुलकर खिलवाड़ जो करने लगें हैं इसका फल भी तो हमें आप को ही भुगतना पड़ेगा .यह समस्या केवल भारत कि ही नहीं बल्कि पुरे विश्व कि है.इसके लिए हमें और आप को ही पहल करनी होगी .तभी हम अपने पशु पक्षियों को बचा सकें गें ,नहीं तो ये सब भी इतिहास के पन्नों में अंकित हो कर रह जायेंगें
                                                                                                                                      प्रदीप श्रीवास्तव

शनिवार, 26 सितंबर 2009

एक खबर,जो खबर न बनी

       
 


   25 सितम्बर 09 कों  नांदेड के लोहा तहसील में जनसभा कों संबोधित   करने जाते   हुवे महाराष्ट्र के सी एम अशोक राव चौहान 

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  जब महाराष्ट्र के सी. एम. पर चप्पल फेंकी गई 
मेरिका के पूर्व  राष्ट्रपति जार्ज बुश,भारत के गृह मंत्री चिदंबरम ,गुजरात के मुख्य मंत्री नरेन्द्र मोदी पर चप्पल फेंका गया था तो यह खबर पूरी दुनिया के लिए एक बड़ी खबर थी ,लकिन जब महाराष्ट्र के मुख्य मंत्री अशोक राव चौहान  के ऊपर इसी तरह चप्पल फेंकने कि घटना होती है तो वह बड़ी खबर नहीं बनती, यह बात समझ में नहीं आ रही .घटना २५ सितम्बर के दुपहर कि है,जब महाराष्ट्र के मुख्य मंत्री अशोक राव चौहान अपने गृह नगर नांदेड के लोहा नगर पालिका क्षेत्र में एक चुनावी जनसभा कों संबोधित करने जा रहे थे कि वहीँ से विधान सभा का चुनाव लड़ रहर प्रताप राव चिखलीकर के समर्थको ने उन पर चप्पल फेंक कर  अपना विरोध प्रकट कहतें हैं कि वहां से चिखलीकर कों राष्ट्रवादी पार्टी से टिकट न दिया जाना. लोहा विधानसभा क्षेत्र  से एन सी पी व कांग्रेस के सयुंक्त प्रत्याशी शंकर अन्ना घोंड़गे कों टिकट दिया गया है.इस मामले में  घोंड़गे व उनके समर्थको का कहना है कि अशोक राव ने ही उनका टिकट कटवाया है.घटन के विषय में बताया जाता है कि जब अशोक राव लोहा शहर में जनसभा कों सबोधित करने जा रहे थे कि उसी समय चिखलीकर अपने समर्थको के साथ तहसील कार्यालय से नामांकन कर लौट रहे थे, तभी मुख्य बाज़ार में दोनों लोगो का काफिला आमने -सामने आ गया ,इसी बीच चिखलीकर जिन्दा बाद के नारे लगते हुवे कुछ असामाजिक तत्वों ने उन पर चप्पल फेंक दिए ,जो अशोक राव कों न लगकर उनके ड्राइवर कों जा लगा .यह देख कर उनके सुरक्षा मैं लगे पुलिस कर्मियों ने तुंरत उन्हें अपने घेरे में लेते हुवे पास के एक घर में ले गए. इस बीच इस्थिति बिगड़ते देख कर पुलिस कों वहां पर लाठी भी भांजनी पड़ी.इन लाइनों के लिखने तक किसी कि गिरफ्तारी  नहीं हुई थी.इस सब के बावजूद  अशोक राव ने वहां पर अपना भासन दिया भी.  घटना के विषय में बताया जाता है कि प्रताप राव पाटिल चिखलीकर विधान सभा के लिए कांग्रेस से टिकट मांग रहे थे ,कांग्रेस व राष्ट्रवादी कांग्रेस के बीच समझौता होने के कारण लोहा विधान सभा से राष्ट्रवादी के शंकर अन्ना घोंडगेको प्रत्याशी बनाया गया है. जिससे पाटिल  नाराज हैं,उनका कहना है कि अशोक राव  ने ही उनका पत्ता कटवाया है.बात जो भी हो कहने का मतलब यह है कि एक मुख्यमंत्री पर इस तरह से हमला हो और उसे मीडिया गंभीरता से न ले,बात कुछ समझ में नहीं आ रही है. यही घटना दिल्ली ,मुंबई,या फिर विदेश के किसी शहर में होती तो उसे कितनी पमुखत दी जाती.के लोकतंत्र में यह सब जायज है.एक मुख्यमंत्री पर इस तरह से हमला होना खबर नहीं बनती क्या? आखिर मिडिया छोटे शहरों में घटने वाली खबरों कों क्यों प्रधानता नहीं देती? जब कि आज हम आधुनिकता के इस युग में नित नए तकनीक का प्रयोग कर रहे हैं.


प्रिये पाठको इसका उत्तर आप पर छोड़ता हूँ कि आप क्या सोचते हैं
 

                                            भीड़ कों तितर-बितर करती महाराष्ट्र की पुलिस
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बुधवार, 16 सितंबर 2009

मौसम कवि सम्मेलन का

कविवर आदरणीय श्री गोपाल दास नीरज जी के साथ1982 में
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व्यंग्य
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मौसम कवि सम्मेलन का
च कह रहा हूँ ...जनाब यह सुहाना मौसम कवि सम्मेलन का है.
होली का रंगीन माहोल ,बसंत की मादक सुगंध ,हल्की सर्दी, प्राकृत
को मोह लेने वाला रूप. पढाई का सत्र समाप्त होने को है.इस लिए
इस मौसम मे कवि सम्मेलन करवाने का कई लोग मन बना रहे हैं ,
अधिकारी,छात्र नेता व विभिन्न संस्थाओं के लोग बचे हुवे धन को
स्वाह करने के लिए कई योजनायें बना रहे हैं.इसके लिए कवि
सम्मेलन से अच्छा माध्यम ओर कोई नहीं हो सकता ,न हल्दी लगे
न फिटकरी-रंग चोखा .कोई विशेष प्रबंध की जरुरत नहीं .कुछ मंच
पछाड़ कवियों पत्र डाल दीजिये उनके लिए दुग्ध की तरह मंच
बनवाइए जिस पर बैठकर वे कुछ सम्मानित लोगों के साथ चाय
पानी का आनंद उठा सकेंओर दर्शक उन्हें देख कर.मन लीजिये आप
को कवि नहींमिल रहें हैं तो परेसान होने की कोई जरुरत नहीं ,किसी
कवि ठेकेदार कवि साहेब को पकड़लीजिये,आप का काम आसानी से हो
जायेगा .हाँ अगर आप भी कुछ लिखते हैं तो फिर क्या कहने का,
बहती गंगा में आप भी अपना हाथ धो लीजिये .नहीं तो वाही जिंदगी
भर नून-तेल - लकडी के चक्कर में रह जाएँगे.धन कमाने के लिए केवल
कविता लिखना या फिर कवि होना जरुरी नहीं है.यदि आप का गला
मधुर है,तो फिर बस समझ लीजिये कि कवि सम्मेलन के मंच पर
माँ लछमीआप का ही इंतजार कररही हैं.आप शब्ब्दो कि तुकबंदी कर सकते
हैं तो फिर काया कहने,सोनेमे सुहागा का करेगा(आज के श्रोताओं कि भी
यही पसंद है.). या फिर कुछ पत्र - पत्रिकाओं से कुछ अलग -अलग पंक्तियाँ
चुरा कर उन्हें क्रम से लिपिबद्ध कर लें,उसके अर्थ पर मत ध्यान दें,आप
तो मंच कवि हैं, साहित्यिक कवि थोडें हैं.श्रोतागण तो आप के गले कि
किसमिसी वाणी पर ही धयान देगा .मन लें अगर किसी मुर्ख श्रोता ने
अर्थ पूछ ही लिया तो पहले आप उसे कुछ देर तकएक तक देखिये ,कुछ
देर रुकने के बाद कहिये आप को पता ही नहीं है कि गीत होती क्या है, फिर
उसे देखिये ओर आगे कहिये ...गीत को पिया जाता है ,टटोला नहीं,समझे
क्या? वह बेचारा खुद झेंप जाये गा ,ओर चुप हो कर एक किनारे जा कर
बैठ जायेगा . अब अगर मन लें कि आप कि आवाज बुलंद है तो फिर क्या
कहने, आप जोशीली कवितायेँ लाईये ,उसके साथ थोडा हेर - फेर कर के
वीर रस के कवि बन जाइये. हाँ इतना ध्यान जरुर रखियेगा कि इस रस
के लिए आपका व्यक्तित्व रोबीला होना चाहिए ,तभी श्रोताओं पर आप का
प्रभाव पड़ेगा.मान लीजिये कि आप के गले में दम नहीं है तो निराश मत
होइए ,कवि बनने का कि और सरल नुख्सा आज कल प्रचलित है.बस
कुछ चुटकुले बटोर लीजिये और उन्हें तुक में बांध लीजिये फिर देखिये
मंच पर आप कि कितनी मांग होगी ."एक बार और -एक बार और " से
आप थक जायेंगे,लेकिन श्रोता नहीं. अगर आप यह भी नहीं कर पाते तो
बस ठेका ले लीजिये कवि सम्मेलन करने का.इसके लिए कोई टेंडर तो
निकलता नहीं,इसके लिए आप को इतना करना पड़ेगा कि आप अपने नगर
कि सभी साहित्यिक व गैर साहित्यिक संस्थाओं से संपर्क बनाइये ,और
उन्हें कवि सम्मेलन करवाने दबाव डालिए .कुछ प्रतिशत ले-दे कर उनके
पधाकारियों से पूरा ठेका ले लीजिये .बस अपने मन माफिक कवियों को
बुलवाइए ,उनसे भी प्राप्त कमीशन डकार जाइये.अगर इसके लिए कुछ और
भी टैक्ट अपनाना पड़े तो उसे भी अपनाने से पीछे मत होइए गा. घर आ
रही लक्ष्मी जी का अनादर मत कीजियेगा और न ही बाद में हमें गाली
दीजिये गा कि पहले पहले क्यों नहीं बताया,बता देते तो क्या चला जाता
.कोई बात नहीं अभी भी काफी समय है, नहीं समय कम है काम काफी है.
कहतें हैं न कि परिश्रम का फल मीठा होता है.दूर दृष्टि और इरादा पक्का
कर लीजिये .तुंरतअपने शहर,नगर व मोहल्ले में ही सही कवि सम्मेलन
करवा डालिए ,मोसम निकला जा रहा है.नहीं तो बाद में वाही बात होगी
कि "चिरिया चुग गई खेत ,अब पछताय होंत का" .

प्रदीप श्रीवास्तव,वाराणसी उ. प्र. (मार्च 1982)
(यह वयंग्य रचना में ने 1982में लिखी थी ,जिसका प्रकाशन एक राष्ट्रिय हिन्दी
दैनिक में हुआ था . जिस पर "अखिल भारतीय कला साहित्य परिषद् " उत्तर
प्रदेश द्वारा संचालित "कला साहित्य विद्यापीठ " मथुरा ने1983 में "साहित्य सरस्वती "
की उपाधि से नवाजा था।)

मंगलवार, 15 सितंबर 2009

तुम यहीं पर ......

तुम यहीं पर .....

गंगा तट
उस पार रेखा सा झुंड वृक्षों का
जाडे की सुबह के ऊपर
झुकी वह लट धुप की
पानी के नगें बदन पर ,
झुका कुहरा,
लहरों को पी जाना चाहता है
सामने दूर नभ में विचरती
पछियों का वह विशाल झुंड
माझियों की हल-हिलोरें लेतीं नावें,
जल से,
कीडा करते सैलानियों का समूह
अभी उड़कर गया कबूतर
मंदिर के कलश पर
वृक्षों का बसेरा कहाँ उसका घर,
उस दिन बैठी थी तुम
यहीं पर .......

प्रदीप श्रीवास्तव
१९८१ ,वाराणसी ( .प्र)

(यह कविता में ने जनुवरी १९८१ की ठण्ड भरी एक सुबह काशी (वाराणसी)
के मन मंदिर घाट पर बैठ कर लिखी थी .उन दिनों में स्नातक
का छात्र . जिसे सरिता मासिक पत्रिका ने प्रकाशित भी किया था .
उसी समय उपरोक्त फोटो भी में ने एक साधारण कैमरे से खिची थी। तब
की काशी और आज की काशी में काफी परिवर्तन हो गया है। )







सोमवार, 17 अगस्त 2009

नांदेड में सर्व भारतीय भाषा

भाषा सम्मलेन को संबोधित करते हुवे डॉ नन्द किशोर नौटियाल जी
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नांदेड में सर्व भारतीय भाषा सम्मलेन पर बहस
शिक्षा आयोग द्वारा पहली कक्षा से अंगरेजी भाषा के अनिवार्य करने से भारतीय संस्कृति को एक बार फिर से अंग्रेजियत का गुलाम बनाने का प्रयास है . इससे हमारी २४ भाषाओं को खतरा पैदा हो रहा है ,जिन्हें सविधान ने सम्मान दिया है. अंगरेजी भाषा को व्यापार व अन्य कार्यो के लिए उपयोग में लाया जाये तो ठीक है ,लकिन दैनिक उपयोग में लाना खतरनाक है. यह बात महाराष्ट्र राज्य हिंदी सहित्य अकादमी के अध्यक्ष श्री नन्द किशोर नौटियाल गत ११ व १२ ऑगस्ट को महाराष्ट्र के नांदेड में अकादमी एवं पीपल्स महाविद्यालय के सयुंक्त तत्वावधान में आयोजित दो दिवसीय "सर्व भारतीय भाषा सम्मलेन के उदघाटन अवसर पर कही. उनहोने आगे कहा कि "देवनागरी लिपि वैज्ञानिक है ,जिसे दुनिया कि कोई भाषा चुनोती नहीं दे सकती . जबकि स्वामी रामानंद तीर्थ विश्व विधालय नांदेड के कुलपति डॉ सर्जेराव निमसे का कहना था कि भू-मंडलीयकारन के इस दौर में हमें केवल एक भाषा तक आश्रित नहीं होना चाहिए . इस अवसर पर आयजित कवि सम्मलेन का शुभारम्भ करते हुवे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक राव चोहन ने कहा कि सरकार मराठी, हिंदी ,सिन्धी ,उर्दू व गुजराती भाषा के विकास के लिए सरकारी स्तेर पर सर्वोपरि प्रयास करेगी .दो दिन के इस सम्मेलन में भाषा के साथ-साथ "उत्तेर साहित्य में दलित ओर स्त्री विमर्श ,प्रचार प्रसार माध्यम ओर भारतीय भाषाएँ ,दखिनी साहित्य में कल्पना ओर यथाथ " विषय पर खुल कर चर्चा हुई .जिसमें भाग लिया पत्रकार प्रकाश दुबे ,डॉ विजय राघव रेड्डी, अलोक भट्टाचार्य ,कवित्री कुसुम जोशी ,डॉ सुधीर गव्हाने ,डॉ रमा नवले अदि लोगों ने भाग लिया.

गुरुवार, 23 जुलाई 2009

में और मेरी पत्रकारिता (भाग-२ )


श्री चंद्र प्रकाश द्रूवेदी जी के साथ
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सके बाद मैं अपने गृह नगर फैजाबाद चला गया .इसी बीच मेरे सहयोगी कमल शर्मा का एक पत्र मिला ,जिसमे उन्होंने लिखा था कि वह लोग इस समय महाराष्ट्र के औरंगाबाद से प्रकाशित हिन्दी दैनिक देवगिरी समाचार में हैं ,वहां पर साहित्य संपादक के लिए मुझे बुलाया है .पत्र मिलते ही मैं औरंगाबाद के लिए रवाना हो गया .उस समय मैं पहली बार दक्षिण में नौकरी के लिए चला .प्रबंधन मंडल से बात हुई ,दूसरे दिन से कम पर लग गया .नया- नया अख़बार ,साप्ताहिक (रविवार अंक के साथ बटने वाली )की तैयारी में लग गया .जनसंदेश मैं भी साप्ताहिक ही देखता था,इस लिए अधिक परेशानी नही हुई.अब बात आई उसके नाम रखने की, सहयोगी मित्रों ने कई नाम सुझा ,लकिन मेरा मन खिड़की रखने का था,क्योंकि औरंगाबाद का पुराना नाम खडकी था। लोगों को ना पसंद आया .उसी के नाम पर साप्ताहिक अंक शुरु हो गया.सन १९९९ तक देवगिरी समाचार मे काम किया.देवगिरी समाचार मुख्यतया संघ परिवार का अख़बार था ,लेकिन कभी भी संघ परिवार का कोई भी दबाव समाचार के लिए नहीं आया.इस दौरान मुझे सर संघ चालक माननीय राजेंद्र सिंह "रज्जू भेय्या जी " से मिलाने का भी मोका भी मिला.इस बीच३० जून १९९९ को अचानक अख़बार बंद कर दिया गया ,फ़िर अपने कुछ साथियों के साथ सड़क पर पर गया। अब एक बार फिर रोजी रोटी के जुगाड़ मैं लग गया ,पुणे से प्रकाशित हिन्दी "आज का आनंद " के संपादक श्री अग्रवाल जी से बात हुई मैं पुणे चला गया .इस बीच मेरी छोटी बेटी दृष्टि का जन्म हुआ ,इस कारन मेरा वहां मन नहीं लगा ,दूसरी बात वहां की कार्य प्रणाली भी कुछ अलग थी इस लिए वापस गया। फ़िर एक बार दो जून की रोटी के लाले पढ़ गए.इसके पहले १९९४ मैं औरंगाबाद मैं जब था तो पहली बेटी का सृष्टि का जन्म हुआ था। हाँ फिर से नौकरी की तलाश,कई जगह आवेदन भेजे लेकिन कोई जवाब कहीं से नही आया .उधर आन्ध्र प्रदेश की राजधानी हैदराबाद से स्वतंत्र वार्ता नामक हिन्दी दैनिक का प्रकाशन शुरू हो चुका था.उसके दो और संस्करण शुरू करने की योजना बनी ,वे थे निजामाबाद एवं विशाखापत्तनम मैं कभी हेदराबाद गया नहीं था, अचानक कि दी दोपहर मैं स्वतंत्र वार्ता के संपादक डॉ राधेश्याम शुक्ल जी का फोन आया ,यहाँ यह बताना जरुरी समझाता हूँ कि आर्थिक तंगी के दिनों मैं भी मैं ने अपना फोन नहीं कटवाया था,क्योंकि उन दिन वही संपर्क का एक माध्यम
हुआ करता था। फोन पर अपनों कि तरह आदेश मिला कि तुंरत हेदराबाद बाद चले आओ डॉ साहेब का फोन,मुझसे उम्र मैं काफी बड़े ,उनकी बात केसे टाल सकता था। इन्हीं डॉ साब के पास उस समय नौकरी के लिए जाता था जब वह फैजाबाद से प्रकाशित हिन्दी दैनिक जनमोर्चा मैं हुआ करते थे,बाद मैं आप मेरठ से प्रकाशित अमर उजाला मैं चले गए मैं शायद उस समय बी कर रहा था ,बात १९८२ से 1984 के बीच कि है ख़ैर डॉ सब का फोन मिलते ही मैं एक निश्चित समय पर उनसे मिला, वहां पर कम शुरू कर दिया। डेस्क पर लोगों ने परेसान करना शुरू कर दिया .और एक दिन मैं संपादक जी को बिना बताये वापस औरंगाबाद चला गया इसी बीच मेरे पिताजी का देहांत वाराणसी मैं हुआ ,ख़बर मिलते ही भागा -भागा बनारस चला गया ,वहां पर लगभग एक माह तक रहा जब लौटा तो फ़िर एक बार डॉ साहेब का फोन आया की आते हो या आऊं उसके बाद वापस हैदराबाद चल गया ,जहाँ से
कुछ समय बाद निजामाबाद संसकरण के लिए संसकरण प्रभारी बनाकर भेज दिया गया। यह बात सन २००० जून की है, तब से यहीं पर कार्यरत हूँ आगे का पता नहीं।
अपने पत्रकारिता के अब तक के जीवन
में मैं ने कई उतार - चढाव भी देखें हैं वहीं काफी कुछ सिखाने को भी मिला अपने समय की महान हस्तियों से बात करने का मौका भी। जैसे कत्थक नृत्य की जनक (यही कहें तो उचित होगा) श्रीमती अलक नन्दा जिन्हें कशी के लोग बुआ के नम से बुलाते थे ,से अन्तिम साक्षात्कार कराने का मौका मिला।वह साक्षात्कार उन दिनों की लोकप्रिय पत्रिकाओं धर्मयुग ,जनसत्ता ,जनमोर्चा ,जागरण आदि मैं प्रकाशित हुईं.
एक और
साक्षात्कार के विषय मैं बताना चाहता हूँ ,बात १९८२-८३ की है ,वाराणसी के कशी विश्वानाथ मन्दिर से काफी मात्रा मैं चांदी गायब हुई थी ,जिसकी ख़बर ने लोगों को हिला कर रख दिया था। मैं उन दिनों पटना से प्रकाशित एक मासिक पत्रिका " आनंद डायजेस्ट" के लिए वाराणसी से स्वतंत्र लेखन करता था।आनंद मैं मैंने लिख दिया कीमन्दिर ट्रस्ट के अध्यक्ष होने के बावजूद कशी नरेश डॉ विभूति नारायण सिंह बीते ३८ वर्षों (उस समय) से मन्दिर मैं क्यों नही गए ,इसका जवाब कोंन देगा ? यह ख़बर फोटो सहित जब प्रकाशित कर बाज़ार मैं आई तो तहलका सा मच गया ,कशी नरेस के एक दूत ने (कोई पंडित जी हुवा करते थे ,जो उन दिनों पी. आई.बी .वाराणसी में कम करते थे ) मुझसे संपर्क किया ,और कहा की कशी नरेश जी बात कारन चाहते हैं ,
मैंने हमीं भर दी, निश्चित समय पर नदेसर स्थित नदेसर पेलेस (अब तो वहां पर पांच सितारा होटल व् कालोनी बन गई है ) मैं पहुँचा ,मन थोड़ा सा डर भी था ,पहली बार इतने बड़े व्यक्ति से मिलने जा रहा था ख़ैर कशी नरेश जी से बात इस शर्त पर तय हुई थी किजो भी बात होगी वह टेप रिकार्ड पर होगी, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया था ,
मैं अपने एक मित्र का टेप ले कर गया, उन दिनों टेप रिकार्डर आज कि तरह छोटे से तो होते नही थे, वह भी बुश कम्पनी का था .मेरे साथ मेरे फोटोग्राफर मित्र अतुल केसरी भी थे, नदेसर पेलेस के विसाल कमरे मैं मुझे ले जाया गया ,जहाँ पर राजा साहेब कशी नरेश विराज मान थे , अनोपचारिक अभिवादन के बाद बातचीत शुरू हुई ,पहले तो वे हावी होना चाहे ,कुछ डराना भी , बात यहाँ तक पहुँच गई कि उन्होंने धमकाते हुवे कहा की एस .पी .या फ़िर जिलाधीश के सामने ही बात होगी ,जिसे मैं ने स्वीकारते हुवे कहा की आप चाहें तो पी. एम .को भी बुला सकते हैं (उन दिनों युवा था तो जोश भी था),कुछ क्षण सोचने के बाद राजा साहब ने बात करनी शुरू कर दी, उन्होंने वह कारन भी बताये कि वे क्यों नही मन्दिर में जाते हैं








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