मंगलवार, 15 सितंबर 2009

तुम यहीं पर ......

तुम यहीं पर .....

गंगा तट
उस पार रेखा सा झुंड वृक्षों का
जाडे की सुबह के ऊपर
झुकी वह लट धुप की
पानी के नगें बदन पर ,
झुका कुहरा,
लहरों को पी जाना चाहता है
सामने दूर नभ में विचरती
पछियों का वह विशाल झुंड
माझियों की हल-हिलोरें लेतीं नावें,
जल से,
कीडा करते सैलानियों का समूह
अभी उड़कर गया कबूतर
मंदिर के कलश पर
वृक्षों का बसेरा कहाँ उसका घर,
उस दिन बैठी थी तुम
यहीं पर .......

प्रदीप श्रीवास्तव
१९८१ ,वाराणसी ( .प्र)

(यह कविता में ने जनुवरी १९८१ की ठण्ड भरी एक सुबह काशी (वाराणसी)
के मन मंदिर घाट पर बैठ कर लिखी थी .उन दिनों में स्नातक
का छात्र . जिसे सरिता मासिक पत्रिका ने प्रकाशित भी किया था .
उसी समय उपरोक्त फोटो भी में ने एक साधारण कैमरे से खिची थी। तब
की काशी और आज की काशी में काफी परिवर्तन हो गया है। )







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