रविवार, 1 अक्तूबर 2023
'इंग्लैंड-आयरलैंड' और 'अंटाकर्टिका एक अनोखा महादेश'
'कबाड़ी का सिक्का' बनाम 'शालीन कटाक्ष'
मंगलवार, 16 मई 2023
अवध की हिंदी पत्रकारिता के पितामह थे बाबू शीतला सिंह
प्रदीप श्रीवास्तव
फैजाबाद अब अयोध्या से सहकारिता पर आधारित हिंदी दैनिक जनमोर्चा के संस्थापक संपादक बाबू शीतला सिंह जी आज दोपहर बाद जिला चिकित्सालय में बीमारी से जूझते हुए उस जहां चले गए ,जहां से आज तक कोई लौट कर नहीं आया है. 94 वर्ष के थे बाबूजी . जनमोर्चा वही अख़बार है जिससे अख़बार पढ़ने की ललक बचपन में पड़ी .शायद छठवीं में पढता रहा हूँगा,घर के पास रिकाबगंज-चौक रोड पर एक मैकू नामक हलवाई की दुकान होती थी(अभी भी है),वहीँ पर जनमोर्चा आता था तब छोटे आकार में निकलता था जिसे टैबलाइड कहते हैं ,जहाँ तक याद आ रहा है कि तब उसकी कीमत दस नए पैसे होती थी. वहीँ अख़बार पढ़ने सुबह पहुच जाता था. जब बड़ा हुआ तो उसकी लत इतनी लग गई कि उसमें संपादक के नाम पत्र लिखने लगा. सन 76 के बाद तो बनारस से प्रतिनिधि के रूप में जुड़ गया.नहीं तो कम से कम सौ से अधिक रचनाये,रिपोर्ट तो छपी ही होंगी जनमोर्चा.इस दौरान बाबू शीतला सिंह जी का मुझ पर बहुत स्नेह भी रहा,यद्यपि मैं ने जनमोर्चा में नौकरी तो नहीं की ,लेकिन लगाव बना ही रहा बाबू जी का .
लगाव के दो कारण और भी थे,लेखनी को छोड़कर ,पहला बाबू जी का घर मेरे छोटे नाना जी के घर के समीप ही है,जहन से आना जाना निरंतर रहा,दूसरा मेरे बड़े फूफा जी बाबू त्रिभुवन दत्त जनमोर्चा के अकाउंट विभाग में विशेष पद पर थे.
सन 1996 की बाद है ,मैं औरंगाबाद के एक अख़बार में कम कर रहा था. एक दिन अचानक दोपहर में अख़बार के प्रबंधक के केबिन में फोन की घंटी बजी,बात करने के लिए मुझे बुलाया गया,दूसरी तरफ से उस समय के बनारस के सर्वाधिक लोकप्रिय सांध्य दैनिक 'गांडीव'के संपादक राजीव अरोड़ा जी की आवाज़ थी कि 'प्रदीप ,बनारस में उपजा का वार्षिक सम्मलेन हो रहा है,आप को हर हालत में आना है. में अभी कुछ बोल पता कि राजीव भैया ने कहा कि बाबू शीतला सिंह जी ने तुम्हे बोलने के लिए कहा है.बस आना है.
समय पर बनारस पहुंचा,ट्रेन लेट हो गई थी,सीधे नगरी नाटक मंडली प्रेक्षागृह पहुँच गया .कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे तत्कालीन राज्यपाल महामहिम मोती लाल वोहरा जी.इसी बीच प्रदेश के पत्रकारों के सम्मान का सिलसिला शुरू हुआ,तभी अचानक मेरे नाम की घोषणा कर दी गई,जिसे सुनकर तो मैं भौचक्का रह गया ,तभी मंच पर बैठे बाबू शीतला सिंह जी जी ने मुझे देख लिया और मंच पर आने का ईशारा किया.
इस बीच जब भी फैजाबाद जाता तो बाबू जी के दर्शन करने उनके ऑफिस जरुर जाता,घंटों बाते करते.हाल ही में लखनऊ जनमोर्चा के वर्धापन दिन पर आये थे. मुलाकात हुई थी,बहुत बीमार थे ,फिर भी किसी तरह वह आये,शायद उन्हें पता था की उनके हाथों रोपा गया पत्रकारिता का यह पौधा 'जनमोर्चा ,लखनऊ उनकी अंतिम वाणी सुनने के लिए बेचैन है. पिछले साल नहीं आ पाए थे.
वह बताते थे कि उन्होंने सहकारिता के आधार पर उस समय मात्र 75 रुपये की राशि से 'जनमोर्चा' को शुरू किया था.देश का यह पहला अख़बार है जो 70 साल से निरंतर निकल रहा है.जब से खबर मिली है बाबू जी के चले जाने से ,मन व्याकुल है ,पर विधि के विधान को कोई टाल तो सका नहीं है,उम्र भी हो गई थी ,यही कहकर संतोष करना पड़ेगा .नमन बाबू जी .
बुधवार, 5 अप्रैल 2023
'माँ सम्मे महारानी' जो करती हैं अपने भक्तों की मुराद पूरी
मेरे गाँव का मंदिर .....
पहले गोंडा ,अब अयोध्या जनपद में सरयू नदी के उस पर अयोध्या से गोंडा की ओर जाने वाले मार्ग पर नवाब गंज नामक एक छोटा सा बाज़ार पड़ता है,जिसका कुछ भाग अयोध्या तहसील में तो कुछ अभी भी गोंडा जनपद के अंतर्गत आता है . नवाबगंज बाज़ार से लगभग दो किलो मीटर पहले बाएं हाथ पर एक सड़क जाती है ,इसी सड़क पर चार किलोमीटर जाने पर एक गाँव पड़ता है 'नगवा कल्याणपुर'. गाँव के बीच उत्तर दिशा की ओर काले पत्थर से निर्मित एक विशाल प्रवेश द्वार है,जिसके भीतर स्थित है 'माँ सम्मे' महारानी का मंदिर. विशाल पेड़ के नीचे ऊँचे चबूतरे पर स्थित इस मंदिर में दर्शन के लिए केवल आस-पास के ही नहीं विदेशों से भी माँ के भक्त आते हैं. कहते हैं कि इस मंदिर मैं जो भी भक्त माँ से कुछ भी मांगता है तो ,माँ सम्मे महारानी उसकी मनोकामना पूरी जरुर करती हैं.केवल इतना ही नहीं लोग झाड़ फूंक के लिए भी यहाँ आते हैं.उन्हें कितना इसका लाभ मिलता है इसकी कोई जानकारी नहीं है. मंदिर लगभग डेढ़ सौ साल
पुराना बताया जाता है,लेकिन मंदिर का कोई
विधिवत इतिहास उपलब्ध नहीं है, जो भी जानकारी है वह
केवल एक दुसरे से सुनी-सुनाई बातों के आधार पर ही. हाँ मंदिर का
जीर्णोद्धार सन 2005 में गाँव के लोगों ने
मिलकर कराया था. मंदिर परिसर में माँ दुर्गा का भी एक मंदिर है ,जिसकी स्थापना मेरे बड़े पिता जी (ताऊ) स्व
हरिहर प्रसाद श्रीवास्तव एवं चाचा स्व दुर्गा प्रसाद श्रीवास्तव जी ने की है. 'माँ सम्मे महारानी' हमारे परिवार की कुलदेवी हैं. इस लिए हर साल पूरा परिवार अप्रैल माह की चार तारीख को मंदिर परसर में
एकत्र होता है ,पूजा पाठ,हवन के बाद एक विशाल
भंडारे का आयोजन किया जाता है.जिसमें पूरा गांव शामिल
होता है.जिसका आयोजन छोटे भाई राकेश उर्फ़ पप्पी एवं
संदीप की अगुवाई में परिवार के सभी लोग करते
हैं.
हाँ तो मंदिर के इतिहास के बारे में बता रहा था कि 'माँ सम्मे महारानी' के इस मंदिर का कोई लिखित इतिहास नहीं है. जो कुछ गाँव वालों ने बताया उसी के मुताबिक,आज से लगभग डेढ़ सौ साल पहले ब्रिटिश हुकूमत में गाँव के दो लोगों को किसी अपराध के मामले अपराधी घोषित कर दिल्ली की एक जेल में बंदी बना कर भेज दिया गया .जहां पर माँ का एक मंदिर था .दोनों बंदी सगे भाई थे,काफी दिन गुजर जाने के बाद किसी भाई को एक रात देवी ने सपने में दर्शन दे कर कहा कि मंदिर में माँ के दर्शन के साथ उनसे सज़ा मुक्ति की याचना करो, जब तुम्हें यहाँ से मुक्ति मिल जाए तो जाते समय मंदिर से थोड़ी मिटटी ले जा कर अपने गाँव में मुझे स्थापित कर देना.. कहते हैं कि ऐसा करने के बाद कुछ ही दिनों में दोनों भाई ब्रिटिश हुकूमत से निर्दोष करार दिए गए .जिसके बाद उन्हों ने सपने माँ के द्वारा दिए गए आदेश का पालन करते हुए जब वापस अपने गाँव 'नगवा कल्याणपुर' लौटे तो गाँव के उत्तर दिशा बाग़ में माँ की स्थापना कर दी ,जिनका नाम 'माँ सम्मे महारानी' पड़ गया .एक ऊँचे जबुतारे पर स्थित इस मंदिर के नाम के पीछे की जानकारी किसी भी गांव वालों के पास नहीं है. हाँ इतना जरूर गावं वालों का कहना है कि इस मंदिर में आप 'माँ सम्मे महारानी' से जो भी याचना करते हैं ,माँ उसे पूरा अवश्य करती हैं. मंदिर के प्रवेश द्वार पर पवन पुत्र हनुमान जी की बैठी प्रतिमा स्थापित है ,जो भक्तों की रक्षा करते हैं .मंदिर परिसर लोगों को आकर्षित करता है. आये दिन इस मंदिर परिसर भागवत कथा के साथ विभिन्न धार्मिक आयोजन भी होते रहते हैं. जब कभी आप उधर से गुजरे तो 'माँ सम्मे महारानी' का दर्शन जरूर करें.
बुधवार, 15 मार्च 2023
'अरहर' की दाल और दाली का 'दूल्हा'
'ये, मूंह और मसूर की दाल' यह कहावत आप सब ने बहुत सुनी होगी .जिसका सीधा सा मतलब कि 'मसूर' की दाल का महंगा होना ,जब महंगा होगा तो उसका 'ओहदा' भी ऊँचा ही होगा .लेकिन अवध में शाकाहारी खाने में 'अरहर' की 'दाल' को 'दालों की महारानी ' कहा जाता है.जब कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 'अरहर की दाल 'की जरा सी भी पूछ नहीं है .दक्षिण भारत की बात ही छोड़ दीजिये ,वहां तो इसकी बात करना मतलब की हिंदी की बात करना है. वैसे तो दाल बहुत सी हैं. मूंग की दाल (छिलके वाली एवं बिना छिलके वाली),उर्द की दाल (जिसमें धोई ,मतलब बिना छिलकों वाली) ,चने की दाल लेकिन अरहर की दाल की बात ही कुछ अलग और निराली सी है. क्योंकि रोज खाने पर भी इससे मन नहीं भरता .इसके आगे छप्पन भोग भी फेल है. अंग्रेजीदां वाले व उनके बच्चे इसे 'यलो दाल' बोलते हैं ,वहीँ कुछ नासमझ लोग इसे 'पीली दाल भी कहने में जरा सा भी नहीं हिचकते.
अरहर की दाल के बारे
में एक किस्सा मशहूर है कि 'अपनी
पहेलियों व मुकरियों के लिए लोकप्रिय अमीर ख़ुसरो साहब एक बार अवध आये तो अवध की महिलाओं
ने उनसे एक पहेली बुझने को दे दिया,लेकिन
जनाब अमीर ख़ुसरो उस पहेली को बुझ नहीं सके .वह पहेली थी ...
सुन्दर पीली
छरहरी,काली केहरी
रंग
,
ग्यारह देवर
छोड़ के चली जेठ के संग.
आज तो यह दाल प्रेशर कुकर में ही पकाई जाती है,लेकिन कभी यह दाल बटुली या हंडे में ही पकती थी
.पकने के बाद देशी घी में जीरा,लहसुन सुखी लाल मिर्च एवं हींग डाल कर छौंकी जाती . छौंक लगाते ही बटुली का ढक्कन बंद कर दिया जाता ,ताकि उसकी सुगंध दाल में जज्ब हो जाये. अरहर की दाल में जब
खटाई डाली जाती तो उसके स्वाद का कोई मुकाबला नहीं होता ,जो मज़ा खटाई से आती है वह नीबू के रस
के मिलाने से नहीं मिलती .खटाई के डालने से अरहर की दाल गाढ़ी हो जाती है,फिर इसे जब कटोरी में परोसा जाता तो वह
रबड़ी सी महसूस होती है. उस पर एक चम्मच जामुन या गन्ने का सिरका मिला दें तो,जनाब क्या कहने का.पेट भर जायेगा ,लेकिन मन नहीं .
लेकिन हमारे अवध में मांगलिक कार्यों
में अरहर की दाल कहीं नहीं टिकती ,उस दौरान उड़द और चने के दाल की बहार सी आ जाती है.
दक्षिण भारत के सर्वाधिक लोकप्रिय 'सांबर' में इसी अरहर की दाल का ही प्रयोग होता है. पिछले
कुछ वर्षों में इस देवतुल्य दाल में टमाटर,प्याज और दुसरे अनाप-सनाप जिचों के मिलाने का सिलसिला चल पड़ा है,यहं तक कि लोग-बाग अब पनीर के छोटे-छोटे टुकड़े भी डालने लगे हैं .अरे भाई यह
दाल है सब्जी नहीं ,जो चाहा मिला दिया.
चलते-चलते बताता चलूँ कि कितनी भी दालें हों,लेकिन एक मात्र अरहर की दाल ही है ,जिसका 'दूल्हा' भी है,जिसे शकाहारी भी बड़े चाव से खाते हैं. उसके लिए बहुत
कुछ नहीं करना पड़ता है. बस गेहूं के आटे की लोई में अजवायन,जीरा,पीसी मिर्च हिंग,हल्दी एवं स्वादानुसार नमक मिलाकर सान लेते हैं.
फिर उसको रोटी की तरह छोटे-छोटे बेल कर,पके दाल में डाल कर फिर से पका लेते और छौंक मेहमान के सामने परोस देते . तभी तो अवध मैं यह
कहा जाता है कि ....
दाल अरहर की,खटाई आम की ,
तोला भर घी,रसोई राम की.
रविवार, 15 जनवरी 2023
संवरने के नाम पर उजडती अयोध्या
हमारा एक छोटा सा अंचल है अयोध्या जो कभी फैजाबाद का छोटा सा अंग हुआ करता था. अब अयोध्या के नाम से जाना जाता है . अयोध्या जिसके विभिन्न नाम थे ,जैसे अयोध्या, अवधपुरी, राम की नगरी, वैभव की नगरी आदि. तभी तो तुलसीदास जी ने श्री राम चरित मानस के अयोध्या कांड में लिखते हैं कि-
कहीं न जाई कछु नगर विभूति,
जनु एतनिअ विरंची करतूती |
(जिसका भावार्थ है कि 'नगर का एश्वर्य कुछ कहा नहीं जाता ,ऐसा दिख पड़ता है कि मनो ब्रह्मा जी की कारीगिरी बस इतनी ही है.इससे परे संसार में कुछ भी नहीं है .)
आचार्य केशव के शब्दों में देखिये-
अति चंचल जहं चल दले ,
विधवा बनी न नारी|
हिंदू परम्परा के अनुसार अयोध्या वह पहली नगरी है जिस पर ब्रह्मा ने अपना आसन जमाया . उन्होंने मनु से कहा कि इसे अपनी राजधानी बनाओ. यह सभी को मालूम है कि ब्रह्मा की उत्पत्ति कमल से हुई .वह एक हज़ार वर्ष तक अपने सृष्टा की आराधना में लीन रहे. उनकी इस घोर तपस्या से नारायण हिल उठे ,ख़ुशी के मारे उनके गलों पर अशुओं की कुछ बुँदे ढुलक पड़ीं.जिसे ब्रह्मा जी ने तत्काल अपनी हथेली पर लेकर कमंडल में संजो लिया. जब मनु ने राजसिंहासन सम्हाला और अयोध्या को अपनी राजधानी बनाई तो उनके पुत्र ने ब्रह्मा जी से याचना की कि 'प्रभु अयोध्या को एक नदी से विभूषित करें'. ब्रह्मा जी उनसे प्रसन्न तो थे ही .उन्होंने कमंडल में संजोकर रखे अश्रुओं के इन बूंदों को अयोध्या की पवन भूमि पर बिखेर दिया ,इस तरह पतित पावनी सरयू का इस पृथ्वी पर आगमन हुआ .
देख लो, साकेत नगरी है यही,
स्वर्ग से मिलने गगन में जा रही।
केतु-पट अंचल-सदृश हैं उड़ रहे,
कनक-कलशों पर अमर-दृग जुड़ रहे।
सोहती हैं विविध-शालाएँ बड़ी;
छत उठाए भित्तियाँ चित्रित खड़ी।
गेहियों के चारु-चरितों की लड़ी,
छोड़ती है छाप, जो उन पर पड़ी!
स्वच्छ, सुंदर और विस्तृत घर बनें,
इंद्रधनुषाकार तोरण हैं तनें।
देव-दंपति अट्ट देख सराहते;
उतर कर विश्राम करना चाहते।
फूल-फल कर, फैल कर जो हैं बढ़ी,
दीर्घ छज्जों पर विविध बेलें चढ़ीं।
कहते हैं कि अयोध्या कई बार उजड़ी,फिर बसी. हिन्दुओं का पवित्र धाम,जिसे तीर्थ भी कह सकते हैं , मर्यादा पुरषोत्तम भगवन की जन्म स्थली .जिसे फिर से सजाया संवारा जा रहा है. सजाने-संवारने के चक्कर में अयोध्या के पुरातन स्वरूप के साथ खिलवाड़ हो रहा है.जिस रूप के लिए अयोध्या को जाना जाता था,उसे नष्ट कर नई अयोध्या को बसाया जा रहा है. जिसके आधुनिकीकरण के नाम पर नए घाट से लेकर श्री राम जन्मभूमि तक के प्राचीन इमारतों,मंदिरों को ढहा दिया गया.
'इंग्लैंड-आयरलैंड' और 'अंटाकर्टिका एक अनोखा महादेश'
किताबें-2 श्रीमती माला वर्मा की दो किताबें हाल ही में मिलीं, 'इंग्लैंड-आयरलैंड' और 'अंटाकर्टिका एक अनोखा महादेश' ,दोनों ह...
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किताबें-1 हिम की वादियों से प्रकाशित हिंदी के पहले अखबार 'दिव्य हिमाचल'के प्रधान संपादक अनिल सोनी जी का व्यंग्य संग्रह 'कबाड़ी...
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आप कल्पना करें कि जब आपका कोई मित्र 36 साल के बाद मिले तो आप कैसा महसूस करेंगे। ऐसा ही कुछ हुआ इस बार की बनारस यात्रा में संजय श्रीवास्तव से...