बुधवार, 20 अक्तूबर 2010

                               चित्रगुप्त वंदना 

चित्र-चित्र में गुप्त जो, उसको विनत प्रणाम।
वह कण-कण में रम रहा, तृण-तृण उसका धाम ।

विधि-हरी-हर उसने रचे, देकर शक्ति अनंत।
वह अनादि-ओंकार है, ध्याते उसको संत।

कल-कल,छन-छन में वही, बसता अनहद नाद।
कोई न उसके पूर्व है, कोई न उसके बाद।

वही रमा गुंजार में, वही थाप, वह नाद।
निराकार साकार वह, उससे सृष्टि निहाल।

'सलिल' साधना का वही, सिर्फ़ सहारा एक।
उस पर ही करता कृपा, काम करे जो नेक।
-आचार्य संजीव शर्मा सलिल 
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गोत्र' तथा 'अल्ल'
'गोत्र' तथा 'अल्ल' के अर्थ तथा महत्व संबंधी प्रश्न राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद् का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष होने के नाते मुझसे भी पूछे जाते हैं.
स्कन्दपुराण में वर्णित श्री चित्रगुप्त प्रसंग के अनुसार उनके बारह पत्रों को बारह ऋषियों के पास विविध विषयों की शिक्षा हेतु भेजा गया था. इन से ही कायस्थों की बारह उपजातियों का श्री गणेश हुआ. ऋषियों के नाम ही उनके शिष्यों के गोत्र हुए. इसी कारण विभिन्न जातियों में एक ही गोत्र मिलता है चूंकि ऋषि के पास विविध जाती के शिष्य अध्ययन करते थे. आज कल जिस तरह मॉडल स्कूल में पढ़े विद्यार्थी 'मोडेलियन' रोबेर्त्सों कोलेज में पढ़े विद्यार्थी 'रोबर्टसोनियन' आदि कहलाते हैं, वैसे ही ऋषियों के शिष्यों के गोत्र गुरु के नाम पर हुए. आश्रमों में शुचिता बनाये रखने के लिए सभी शिष्य आपस में गुरु भाई तथा गुरु बहिनें मानी जाती थीं. शिष्य गुरु के आत्मज (संततिवत) मान्य थे. अतः, उनमें आपस में विवाह वर्जित होना उचित ही था.
एक 'गोत्र' के अंतर्गत कई 'अल्ल' होती हैं. 'अल्ल' कूट शब्द (कोड) या पहचान चिन्ह है जो कुल के किसी प्रतापी पुरुष, मूल स्थान, आजीविका, विशेष योग्यता, मानद उपाधि या अन्य से सम्बंधित होता है. एक 'अल्ल' में विवाह सम्बन्ध सामान्यतया वर्जित मन जाता है किन्तु आजकल अधिकांश लोग अपने 'अल्ल' की जानकारी नहीं रखते. हमारा गोत्र 'कश्यप' है जो अधिकांश कायस्थों का है तथा उनमें आपस में विवाह सम्बन्ध होते हैं. हमारी अगर'' 'उमरे' है. मुझे इस अल्ल का अब तक केवल एक अन्य व्यक्ति मिला है. मेरे फूफा जी की अल्ल 'बैरकपुर के भले' है. उनके पूर्वज बैरकपुर से नागपुर जा बसे.

 साभार :राष्ट्रीय कायस्थ महासभा 
http://kayasthamahaparishad.blogspot.com/2010/02/blog-post_20.html

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

हिंदी दिवस पर


 आज नहीं तो कल विश्व क्षितिज 
पर चमकेगा "हिंदी का सूर्य " 

सविंधान
का जैसा उल्लंघन भारत में होता है ,दुनिया में कहीं नहीं होता.14 सितम्बर 1949 को सविंधान में हिंदी को राजभाषा बनाया गया और कहा गया कि धीरे-धीरे अंग्रेजी को हटाया जायेगा,लेकिन सविंधान को लागु हुए आज 61 वर्ष हो गए हैं , इन 61 सालों में हुआ क्या?यही न कि अंगरेजी को जमाया जाय.और अंग्रेजी जम गयी.ऐसी जमी कि राष्ट्रपति ,प्रधान मंत्री तक हिंदी में बोलने से कतराते हैं.उन्हें अंग्रेजी का लफ्ज प्रयोग करने में जरा सी भी शर्म नहीं आती है.वे जरा भी नहीं सोचते कि हम आजाद भारत देश के जनप्रतिनिधि हैं.जब वे अंग्रेजी में बोलते  हैं तो  उन्हें देश कि लगभग सौ करोड़ गूंगी -बहरी जनता सुन रही होती है?क्यों कि वे तो केवल पॉँच से सात प्रतिशत जनता के लिये रेडियो व टेलीविजन पर बोल रहे होते हैं.
में यह नहीं  कहता कि अंग्रेजी का विरोध होना चाहिए,
अंग्रेजी का विरोध बेईमानी होगा.क्यों कि किसी भी भाषा व साहित्य का विरोध तो कोई मुर्ख ही करेगा.जो जितनी अधिक भाषा जानेगा,उसके दिमाग कि उतनी अधिक खिड़कियाँ खुलेंगी.उसकी दुनिया उतनी अधिक बड़ी होगी.उसके संपर्कों की,अनुभूतियों क़ी व सूचनाओं का व्यापक क्षेत्र होगा.लेकिन आज अपने देश में कुछ अजीब सा खेल खेला जा रहा है,जिसके चलते स्वभाषाओं के सारे दरवाजे खिड़कियाँ बंदहोते  जा रहे हैं.जो काम सारे दरवाजे व खिड़कियाँ कर सकती हैं ,उसे केवल एक खिड़की से किया जा रहा है,उस खिड़की का नाम है " अंग्रेजी".कहते हैं की अगर आप अंग्रेजी नहीं जानते तो कुछ नहीं जानते.आज मुझे यह कहने में जरा सा भी संकोच नहीं हो रहा है कि राष्ट्र भाषा के साथ जैसा छल-कपट भारत में हो रहा है,वैसा दुनिया के किसी भी देश में किसी  भी भाषा के साथ नहीं होता है. अगर देखे तो आज देश में हिंदी का स्थान "महारानी" जैसा है,लेकिन उससे काम नौकरानी जैसा लेते हैं.आज पूरे देश में "हिंदी दिवस "मनाया जा रहा है,सभी जगह हिंदी कि आरती उतारी जाएगी,लेकिन  तिलक तो अंग्रेजी के माथे पर लगाया जाएगा.सयुंक्त राष्ट्र में हिंदी हमारी नाक है, लेकिन स्वराष्ट्र में हम अंग्रेजी के जूठन को चाटने में जरा सा भी शर्म महसूस नहीं करते.
यह सही है कि अंगरेजी दुनिया के सिर्फ चार-पॉँच देशों क़ी भाषा होते हुए भी आज सौ से अधिक देशों में इस्तमाल कि जाती है.लेकिन हिंदी भी दुनिया के लगभग दर्जन भर देशों में बोली जाती है.आज विश्व में सौ से अधिक देश ऐसे हैं जहाँ पर आप को कुछ न कुछ हिंदी भाषी जरुर मिल जाएँगे . आप मारीशस जाएँ,सूरीनाम जाये या फिर फिजी जाएँ,वहाँ हिंदी का ही अधिपत्य है ,हाँ यह जरुर है कि वहाँ कि हिंदी भाषा में बदलाव आ गया है.वह भी क्षेत्रीय भाषा के चलते .हाल में जर्मन सरकार कि एक रिपोर्ट मीडिया में आयी है,जिसके मुताबिक वहाँ पर हिंदी को लेकर लोंगों में दिलचस्पी बहुत बड़ी है.वहाँ के जर्मन हाईडेलबर्ग ,लोवर सेक्सोनी के लाइपजिंग ,बर्लिन के हम्बोलडिट एवम बान विश्विधालय में हिंदी पड़ने वालों कि संख्या में बहुत इजाफा हुआ है.
अगर हम कहें कि हिंदी आज ग्लोबल भाषा है तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. नाइन -इलेवन कि घटना के बाद अमेरिका ने भी हिंदी भाषा को महत्त्व देना शुरु कर दिया है. कयोंकि उस घटना के बाद सुपर कम्पूटर में सारी दुनिया से आये सभी भाषाओँ के ई.मेलों को खगालना पड़ा .तभी से अमेरिका ने निर्णय लिया कि वह भी अपने देश में स्कूलों में चीनी,रुसी के साथ -साथ हिंदी भाषाओँ के  पठन - पाठन में कि खास व्यवस्था करेगा.आज उस पर वहाँ काफी ध्यान दिया जा रहा है.संचार तकनिकी ने हिंदी के क्षेत्र को और व्यापक बना दिया है.आज दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने में हिंदी के  ई-मेलों का आदान-प्रदान हो रहा है.हिंदी के वेब साईट एवम पोर्टल खुलते  जा रहे हैं अगर कहें कि हिंदी के पीछे संस्कृत का अपर शब्द भंडार है ,करोड़ों लोंगों का वयवहार कोष है,और सैकड़ों वर्षों कि अनवरत अभ्यास है तो कोई नई बात नहीं होगी.कयोंकि आज हिंदी अपने दम-ख़म पर आगे बढ रही है.आज नहीं तो काल हिंदी का सूर्य विश्व के आकाश पर चमकने वाला ही है.
 
                                                                                                                    प्रदीप श्रीवास्तव


बुधवार, 11 अगस्त 2010




          पृथक तेलंगाना राज्य का मामला

              एक बार फिर केंद्र के पाले में
हाल में तेलंगाना के 119 विधान सभा सीटों में से मात्र 12 बारह सीटों के लिये हुए उप चुनाव में ग्यारह सीटों पर तेलंगाना राष्ट्र समिति के उम्मीदवारों ने सफलता हासिल की वहीँ एक मात्र निज़ामाबाद शहर की सीट पर( तेलंगाना राष्ट्र समिति द्वारा समर्थित ) भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार वाई लक्ष्मीनारायण की झोली में फिर से जाने के बाद यह कहा जा सकता है कि इस चुनाव परिणाम से पूरे तेलंगाना क्षेत्र की जनाभिव्यक्ति नहीं है,लेकिन इस बात से इंकार भी नहीं किया जा सकता है किबारह सीटों के लिये हुए यह चुनाव केवल विधान सभा की खाली हुई बारह सीटों कों भरने का उपक्रम नहीं ,बल्कि तेलंगाना क्षेत्र में कराया गया एक जनमत संग्रह था.क्यों कि इन बारह सीटों के चुनाव से  तेलंगाना क्षेत्र की सभी 119 सीटों की जनभावनाएं सिमटी हुईं थीं प्रथक तेलंगाना की मांग के सन्दर्भ मे केंद्र सरकार द्वारा गठित श्री कृष्णा समिति के सामने पूरे क्षेत्र का यह सर्वाधिक सशक्त व प्रमाणिक दस्तावेज है.जिसे समिति अपने रिपोर्ट बना सकती है .
वैसे निराने तो केंद्र सरकार व कांग्रेस अध्यक्ष कों ही लेना है.लेकिन चुनाव परिणामों से इतना तो कहा ही जा सकता है कि इस मामले में अब संदेह कि कोई गुंजाईश नहीं रह गई है कि तेलंगाना क्षेत्र की वास्तविक आकांक्षा क्या है.सही मायने में देखा जाय तो 30 जुलाई ,दिन शुक्रवार वर्ष 2010 का दिन भी तेलंगाना के इतिहास में मील का पत्थर साबित हो गया .27 जुलाई कों मतदान तो केवल प चुनाव की औपचारिकता भर थी.इस दिन तो पूरे तेलंगाना क्षेत्र के चार करोड़ निवासियों कि पृथक राज्य कि कामना अट्टहास कर रही थी.क्यों कि प्रथक तेलंगाना एवम सयुंक्त आंध्र ,दोनों नावों पर पेर रखने वालों का सूपड़ा साफ होगया था.सबसे बुरा हाल तो तेलुगु देशम पार्टी के मुखिया नारा चन्द्र बाबू का हुआ ,जिनके प्रताशियों की जमानत तक नहीं बचा  सकी. ये वही बाबू हैं जिन्होंने तेलंगाना एवम आन्ध्र कों अपनी दोनों आखें बता रहे थे ,और ठीक चुनाव के पहले बभाली बांध परियोजना का हंगामा खड़ा कर लोंगों का ध्यान  तेलंगाना से हटा कर बभाली की तरफ बटाना चाहते थे लेकिन चुनाव में वे चौथे स्थान पर रहे. कुल  मतदान का आठवां हिस्सा भी उनकी झोली में नहीं गिरा. जिसे देख कर कहा जा सकता है कि तेलंगाना क्षेत्र में में उनकी पार्टी के लिये अस्तित्व का ही खतरा पैदा होगया है. शायद यही कारण हैकि उनकी पार्टी के कई नेता उनका साथ छोड़कर तेरास का दमन थाम रहे हैं.वहीँ कांग्रेस कों भी कोई सफलता नहीं मिली ,एक भी सीट उन्हें भी नहीं मिली .लेकिन  तेदेपा से उनकी स्थिति बेहतर कही जा सकती है.शायद कांग्रेसी नेताओं कि मज़बूरी थी कि उन्हें पार्टी हाई कमान के आदेश कों मानना मज़बूरी थी, लेकी प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष डी श्रीनिवास (निज़ामाबाद शहर से कांग्रेस प्रत्याशी) कों जनता ने कतई माफ़ नहीं किया .उन्हें लगातार दूसरी बार हर का सामना करना पड़ा.वे अंतिम chhdon  तक अपनी राजनितिक महत्वकाक्षावों  के लिये अपना स्वर  बदलते रहे.लेकिन जनता ने इस बार भी उन्हें नकार दिया.श्री श्रीनिवास कों लगा था कि इस बार जीतने के बाद वे मुख्य मंत्री न सही काम से काम उप मुख्यमंत्री तो बन ही जायेंगे. सन 2004 के चुनाव में उनहोने तत्कालीन मुख्य मंत्री वाई एस राज शेखर रेड्डी के साथ मील कर काफी मेहनत की थी ,जिसके परिणाम स्वरुप प्रदेश में काफी समय बाद कांग्रेस की सरकार बनी.अभी से डी एस की नज़र मुख्य मंत्री की कुर्सी पर टिकी हुई है.उस समय वाई एस की पदयात्रा की सफलता ने उन्हें मुख्य मंत्री बनवा दिया था ,इसी के चलते उस समय मुख्य मंत्री की कुर्सी उनके हाथ से फिसल गई.फिर आया पूरे पॉँच साल बाद चुनाव का मौका .सन 2009 के चुनाव में डी एस अंतिम चरण में अपने अल्पसंख्यकों के लिये दिए एक बयान "जो आप की तरफ उंगली उठायेगा,उसके हाथ काट दूंगा" से हिन्दू मतदाता उनके खिलाफ हो गए ,फिर क्या सभी ने भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार वाई लक्ष्मी नारायण कों जीता कर विधान सभ में भेज दिया.इसी बीच वाई एस की एक दुर्घटन में मौत हो गई,उस समय भी डी एस कों उम्मीद थी की वे ही मुख्य मंत्री बनेंगे लेकिन विधान सभा के सदस्य न होने के कारण इस बार भी वे चुक गए अपने लक्ष्य से.इसी दौरान पृथक तेलंगाना राज्य की मांग ने जोर पकड़ा ,कई छात्रों व तेलंगाना समर्थकों ने अपनी जन तक दे डाली,जिसके चलते तेलंगाना के कई विधायकोने तेलंगाना की मांग के समर्थ में इस्तीफा दे दिया,जिनमे 12 विधायकों के इस्तीफे मंजूर कर लिये गए,जिनमे निज़ामाबाद शहर विधयक लक्ष्मी नारायण भी शामिल थे.

फिर उप चुनाव की घोषणा हुई,जिसके बाद डी एस कों लगा की इस बार वह जरुर जीत जाएँगे.इस उप चुनाव में उनहोने पैसा पानी की तरह बहाया ,बताते हैं की कम से कम  तीस से चालीस करोड़ खर्च किये.लेकिन वे सफल नहीं हो पाए ,लगातार दूसरी बार हर के चलते उनके राजनैतिक जीवन पर एक प्रश्न लग गया .चुनाव के दौरान वे एक ही रात लगाते रहे की तेलंगन की मांग कों केवल कांग्रेस ही पूरी कर सकती है.इस बीच उन्हों ने यह संकेत भी देने शुरू कर दिए कि चुनाव में जीत के बाद वे मुख्य मंत्री या उप मुख्य मंत्री तो जरुर बनेंगे ,तब तेलंगाना का भाग्य पलट देंगे.लेकिन तेलंगाना कि जनता ने उनके इन वायदों  कों झुठलाते  हुए उन्हें विधान दभा में ही जाने से रोक दिया.मजे कि बात यह हैकि इस चुनाव में उनकी पार्टी के कि भी बड़े नेता ने प्रचार ही नहीं किया,यहाँ तक कि मुख्य मंत्री रोश्य्या ने भी नहीं .यही हाल टी डी पी का रहा .उनके प्रमुख बाबू ने भी प्रचार कि जहमत उठाने कि कोशिस नहीं की,उन्हें लगा की बभाली का मुद्दा उनके लिये राम बाढ़ सिद्ध होगा. लेकी पाशा ही पलट गया ,बभाली मामला उनके गले की हादी बनगया.ते.दे.पे प्रत्याशी ए.नरसा रेड्डी की जमानत ही जब्त हो गई .सभी बारह सीटों पर उनके प्रत्याशी हर गए.उल्लेखनीय है की टी.आर.एस.मुखिया के.चन्द्र शेखर राव अपने चुना अभियान में जुटे रहे उनहन ने बाबू के बभाली अभियान पर जरा सा भी धयान नहीं दिया,साया वह इस बात कों समझ रहे थे की "लक्ष्य ए भटकाव नुकसान पहुंचा सकता है.यह उनका अपना निजी अनुभव भी रहा होगा.इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि यह चुनाव उनके जीवन-मृत्यु का प्रश्न था?अगर एक भी सीट कम आती तो यही कहा जाता कि सम्पूर तेलंगाना पृथक तेलंगाना के पक्ष में नहीं है.यकीन अब किसी कों इस बात में नहीं है कि तेलंगाना की जनता स्वतंत्र राज्य नहीं चाहती.शायद राव साहेब के लिये यह चुनाव एक चुनौती थी जिसे उन्हों ने स्वीकार कर साबित कर दिया की यह चुनाव सत्ता के लिये नहीं था. तभी तो चुनाव की  घोषणा  के बाद उन्हों ने कह दिया कि जरुरत पड़ी तो उनके विधायक फिर अपनी सदस्यता से इस्तीफा दे सकते हैं.श्री राव का यह भी मानना है कि चुनाव जीतने का मतलब यह नहीं है कि वे चार साल तक विधान सभा में बैठ कर बिताएंगें.तभी तो वह कहते हैं कि "हम विधानसभा क़ी फिर से सदयस्ता प्राप्त करने के लिये चुनाव में नहीं उतारे थे,बल्कि पृथक तेलंगाना क़ी जनभावना कों प्रमाणित करने के लिये मुकाबले में उतरे थे.
 इसी लिये उनहोने केंद्र सरकार से मांग क़ी है कि वह इस चुनाव के परिणामों कों जनमत संग्रह कि तरह स्वीकार पृथक राज्य के लिये सीधे लोकसभा में प्रस्ताव पेश करे.इसके साथ ही उनहोने अपने कार्यकर्ताओं कों भी सलाह दी है कि वे बहुत उत्तेजित न हों,क्योंकि इस चुनाव परिणामों ने उनके कंधे पर एक जबरदस्त जिम्मेदारी दल डी है.बात जो भी हो इस चुनाव परिणामों से एक बात तो सिद्ध हो गई है कि तेलंगाना कि जनता अलग राज्य चाहती है ,इस लिये केंद्र सरकार कों तेलंगाना राज्य कि मांग स्वीकार कर लेनी चाहिए.इस उपचुनाव परिणामो से श्री कृष्ण समिति कों भी अब कोई खास मशक्कत करने कि कोई जरुरत नहीं है.समिति चाहे तो 31 दिसंबर के पहले ही अपनी रिपोर्ट सरकार कों सौंप दे.अगर ऐसा नहीं होता है तो तेलंगाना कि जनता एक बार फिर से आन्दोलन के लिय सड़क पर उतर सकती है,किसका परिणाम सन 1968 -69 एवम 2009 के आन्दोलन से कही भयंकर होगा.अब कुल मिला कर इतना तो जरुर कहा जा सकता है कि गेंद अब फिर केंद्र सरकार के पाले में है. परन्तु वह किस तरह खेलती है ,यह देखना होगा.
प्रदीप श्रीवास्तव

शनिवार, 3 जुलाई 2010





उसकी खिड़कियाँ व सामने का भाग भी ठीक हवाई जहाज की भांति है. सामने की ओर पंखा भी लगा है,जो हवा चलने पर तेज गति से चलता है.जिसे बनवाया है पंजाब के संत बाबा नरेंद्र सिंह एवम संत बाबा बलविंदर सिंह जी ने.जिनकी योजना है कि आगे चल कर यात्री निवास के निकट कि जमीन पर विशाल भवन बनवाया जाय और उसकी छत पर हेलीकाप्टर उतर सके . इस रपट कों नादेड से भेजी है पत्रकार रविंदर सिंह मोदी ने.फोटो हैं नरेंदर गढ़ाप्पा   के.

'इंग्लैंड-आयरलैंड' और 'अंटाकर्टिका एक अनोखा महादेश'

किताबें-2 श्रीमती माला वर्मा की दो किताबें हाल ही में मिलीं, 'इंग्लैंड-आयरलैंड' और 'अंटाकर्टिका एक अनोखा महादेश' ,दोनों ह...