आज नहीं तो कल विश्व क्षितिज
पर चमकेगा "हिंदी का सूर्य "
सविंधान का जैसा उल्लंघन भारत में होता है ,दुनिया में कहीं नहीं होता.14 सितम्बर 1949 को सविंधान में हिंदी को राजभाषा बनाया गया और कहा गया कि धीरे-धीरे अंग्रेजी को हटाया जायेगा,लेकिन सविंधान को लागु हुए आज 61 वर्ष हो गए हैं , इन 61 सालों में हुआ क्या?यही न कि अंगरेजी को जमाया जाय.और अंग्रेजी जम गयी.ऐसी जमी कि राष्ट्रपति ,प्रधान मंत्री तक हिंदी में बोलने से कतराते हैं.उन्हें अंग्रेजी का लफ्ज प्रयोग करने में जरा सी भी शर्म नहीं आती है.वे जरा भी नहीं सोचते कि हम आजाद भारत देश के जनप्रतिनिधि हैं.जब वे अंग्रेजी में बोलते हैं तो उन्हें देश कि लगभग सौ करोड़ गूंगी -बहरी जनता सुन रही होती है?क्यों कि वे तो केवल पॉँच से सात प्रतिशत जनता के लिये रेडियो व टेलीविजन पर बोल रहे होते हैं.
में यह नहीं कहता कि अंग्रेजी का विरोध होना चाहिए,अंग्रेजी का विरोध बेईमानी होगा.क्यों कि किसी भी भाषा व साहित्य का विरोध तो कोई मुर्ख ही करेगा.जो जितनी अधिक भाषा जानेगा,उसके दिमाग कि उतनी अधिक खिड़कियाँ खुलेंगी.उसकी दुनिया उतनी अधिक बड़ी होगी.उसके संपर्कों की,अनुभूतियों क़ी व सूचनाओं का व्यापक क्षेत्र होगा.लेकिन आज अपने देश में कुछ अजीब सा खेल खेला जा रहा है,जिसके चलते स्वभाषाओं के सारे दरवाजे खिड़कियाँ बंदहोते जा रहे हैं.जो काम सारे दरवाजे व खिड़कियाँ कर सकती हैं ,उसे केवल एक खिड़की से किया जा रहा है,उस खिड़की का नाम है " अंग्रेजी".कहते हैं की अगर आप अंग्रेजी नहीं जानते तो कुछ नहीं जानते.आज मुझे यह कहने में जरा सा भी संकोच नहीं हो रहा है कि राष्ट्र भाषा के साथ जैसा छल-कपट भारत में हो रहा है,वैसा दुनिया के किसी भी देश में किसी भी भाषा के साथ नहीं होता है. अगर देखे तो आज देश में हिंदी का स्थान "महारानी" जैसा है,लेकिन उससे काम नौकरानी जैसा लेते हैं.आज पूरे देश में "हिंदी दिवस "मनाया जा रहा है,सभी जगह हिंदी कि आरती उतारी जाएगी,लेकिन तिलक तो अंग्रेजी के माथे पर लगाया जाएगा.सयुंक्त राष्ट्र में हिंदी हमारी नाक है, लेकिन स्वराष्ट्र में हम अंग्रेजी के जूठन को चाटने में जरा सा भी शर्म महसूस नहीं करते.
यह सही है कि अंगरेजी दुनिया के सिर्फ चार-पॉँच देशों क़ी भाषा होते हुए भी आज सौ से अधिक देशों में इस्तमाल कि जाती है.लेकिन हिंदी भी दुनिया के लगभग दर्जन भर देशों में बोली जाती है.आज विश्व में सौ से अधिक देश ऐसे हैं जहाँ पर आप को कुछ न कुछ हिंदी भाषी जरुर मिल जाएँगे . आप मारीशस जाएँ,सूरीनाम जाये या फिर फिजी जाएँ,वहाँ हिंदी का ही अधिपत्य है ,हाँ यह जरुर है कि वहाँ कि हिंदी भाषा में बदलाव आ गया है.वह भी क्षेत्रीय भाषा के चलते .हाल में जर्मन सरकार कि एक रिपोर्ट मीडिया में आयी है,जिसके मुताबिक वहाँ पर हिंदी को लेकर लोंगों में दिलचस्पी बहुत बड़ी है.वहाँ के जर्मन हाईडेलबर्ग ,लोवर सेक्सोनी के लाइपजिंग ,बर्लिन के हम्बोलडिट एवम बान विश्विधालय में हिंदी पड़ने वालों कि संख्या में बहुत इजाफा हुआ है.
अगर हम कहें कि हिंदी आज ग्लोबल भाषा है तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. नाइन -इलेवन कि घटना के बाद अमेरिका ने भी हिंदी भाषा को महत्त्व देना शुरु कर दिया है. कयोंकि उस घटना के बाद सुपर कम्पूटर में सारी दुनिया से आये सभी भाषाओँ के ई.मेलों को खगालना पड़ा .तभी से अमेरिका ने निर्णय लिया कि वह भी अपने देश में स्कूलों में चीनी,रुसी के साथ -साथ हिंदी भाषाओँ के पठन - पाठन में कि खास व्यवस्था करेगा.आज उस पर वहाँ काफी ध्यान दिया जा रहा है.संचार तकनिकी ने हिंदी के क्षेत्र को और व्यापक बना दिया है.आज दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने में हिंदी के ई-मेलों का आदान-प्रदान हो रहा है.हिंदी के वेब साईट एवम पोर्टल खुलते जा रहे हैं अगर कहें कि हिंदी के पीछे संस्कृत का अपर शब्द भंडार है ,करोड़ों लोंगों का वयवहार कोष है,और सैकड़ों वर्षों कि अनवरत अभ्यास है तो कोई नई बात नहीं होगी.कयोंकि आज हिंदी अपने दम-ख़म पर आगे बढ रही है.आज नहीं तो काल हिंदी का सूर्य विश्व के आकाश पर चमकने वाला ही है.
प्रदीप श्रीवास्तव
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