रविवार, 2 अगस्त 2020

आज ही निकला था मराठवाड़ा से

पहला हिन्दी दैनिक "देवगिरि समाचार"

आज 3 अगस्तआज से 28 साल पहले आज के ही दिन 1992 में महाराष्ट्र की पर्यटन नगरी औरंगाबाद से मराठवाड़ा का पहला हिंदी दैनिक प्रकाशित हुआ था " देवगिरि समाचार " (जहां तक मेरी जानकारी है)।जिसका शुभारंभ तत्कालीन प्रधानमंत्री  स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेई जी ने किया था , यद्यपि यह अखबार  अधिक समय तक तो नहीं चल पाया (कारण प्रबंधन की राजनीति)।  अखबार का संचालन कर रहा था संघ परिवार से जुड़ा देवगिरी प्रतिष्ठान।1जून 999  मैं अखबार बंद हो गया। यद्यपि मैं अखबार के उद्घाटन के बाद जुड़ा , लेकिन इतना तो कह सकता हूं कुछ ही दिनों में अखबार ने  पूरे मराठवाड़ा में अपनी पहचान बना ली थी। खैर यह  मालिकों व  संस्थानों के हाथ में होता है जो चलाएं या न चलाएं ।  परंतु इस बात को  मैं गर्व से कह सकता हूँ कि  पत्रकारिता की बहुत सी बारीकियों को मैं ने इसी अखबार से सीखा ,समझा  और जाना ।यही वह अखबार  है  जिसके माध्यम से मुझे उस समय के प्रतिष्ठित राजनीतिज्ञों  के संपर्क में आने का मौका भी मिला, जो मेरे लिए अविस्मरणीय हैं ।जैसे प्रमोद  महाजन ,गोपीनाथ मुंडे ,रज्जू भैया आदि तमाम लोग हैं जिनके नाम तो याद नहीं आ रहे हैं पर उनका आशीर्वाद जरूर मिला ।         

  इसी अखबार के माध्यम से 1996 में  जब मैं  श्री वाजपेयी  जी ( जो उस समय भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष होते थे और राष्ट्रीय बैठक में भाग लेने जलगांव आए थे) से अपने  नियत  अनुसार उनसे  औरंगाबाद के सरकारी विश्राम गृह में साक्षात्कार लिया था ।सच वह साक्षात्कार मेरे लिए एक दस्तावेज की तरह है ।उस साक्षात्कार में मैंने  बाजपेई साहब से पूछा था की कश्मीर में धारा 370 क्यों नहीं हटाई जाती । इस पर उन्होंने बड़े संक्षिप्त में जवाब दिया कि यह तकनीकी कारण है ,जिसे हटाना बहुत मुश्किल होगा ।लेकिन उन्होंने उस तकनीकी कारण का उल्लेख सार्वजनिक ना करने के उद्देश्य नहीं बताया। इसी तरह यह  साक्षात्कार  मेरे लिए जो दस्तावेज है वह है कि जब मैं साक्षात्कार के लिए गेस्ट हाउस पहुंचा तो प्रमोद महाजन जी वहीं बैठे थे, क्योंकि वह देवगिरि  प्रतिष्ठान से  जुड़े थे और उन्होंने मेरा परिचय कराते हुए कहा कि आप प्रदीप श्रीवास्तव हैं और देवनागरी समाचार के लिए बात करना चाहते हैं ।इस पर बाजपेई साहब ने अपनी  चिर परिचित मुस्कुराहट के साथ मुझसे पूछा कि श्रीवास्तव जी अभी अखबार बंद नहीं हुआ ? मैं आश्चर्यचकित होकर उनकी ओर देखने लगा तब वह मुस्कुरा कर बोले चौकने  की बात नहीं है , क्यों कि आज तक मैं ने  जितने अखबारों का फीता काटा है ,वह जल्द ही बंद हो गया है ।लेकिन यह अखबार  चल रहा है अच्छी बात है । उस समय उन्होंने कई अखबारों के नाम भी गिनाए थे ।

  देवगिरि  समाचार में मेरा एक लंबा समय बीता, इस दौरान मुझे रिपोर्टिंग का भी भरपूर मौका मिला चाहे वह 6 दिसंबर 1992 की अयोध्या घटना हो या फिर सितंबर 1993 में लातूर जिले के किल्लारी में भूकंप या फिर औरंगाबाद की विमान दुर्घटना । पत्रकारिता के कई पहलुओं को मैंने  इसी अखबार से सीखा और जिन से सीखा उनमें महत्वपूर्ण नाम है डॉक्टर भगवान दास वर्मा (अखबार के पहले संपादक) बाद में  श्री मुजफ्फर हुसैन साहब, बड़े भाई  मित्र  सहयोगी  आदरणीय अनिल सोनी जी एवं आदरणीय मनोहर कुलकर्णी जी से।  (श्री सोनी जी एवं श्री कुलकर्णी जी की विशेषता यह है कि वह बहुत कम बोलते ,लेकिन उनकी लेखनी बोलती) ।पत्रकारिता का वह एक अलग दौर था ,तब आज की तरह की पत्रकारिता नहीं थी गला काट ।

3 अगस्त को अखबार शुरू हुआ था और मै ने 27 अगस्त को साहित्य संपादक के रूप में कार्यभार ग्रहण किया था। सितंबर के दूसरे सप्ताह में देवगिरि समाचार की पहला साप्ताहिक परिशिष्ट " खिड़की " निकाला था । चार पृष्ठ रंगीन । इसके पहले दिल्ली व सहारनपुर से प्रकाशित दैनिक ' जनसंदेश ' का साप्ताहिक भी मैं ही देखता था,इस लिए कोई दिक्कत नहीं हुई। यह जनसंदेश आज वाला नहीं था, इसके मालिक थे तत्कालीन उप प्रधानमंत्री स्व देवीलाल एवं उनके पुत्र ओम  प्रकाश चौटाला जी । बाद में यह अखबार भी राजनीति का कोपभजन बन गया ,परिवार वालों ने ही डूबो  दिया। खैर  इस अखबार की बात कभी और ...

खिड़की के पहले अंक को लोगों बहुत पसंद किया था। आप को लग रहा होगा कि अपने मुह मिट्ठू बनने वाली बात कह रहा हूँ, हो भी सकता हाए, 28 साल जो हो गए। साप्ताहिक  परिशिष्ट " खिड़की " का नाम खिड़की कैसे पड़ा इसकी भी रोचक कहानी है । उन दिनो औरंगाबाद इतना विकसित  नहीं हुआ था,जितना आज हो गया है । संपादकीय  विभाग में हम सभी 'नई उम्र के-नई फसल' की तरह थे। जहां तक मुझे याद आ रहा है सभी अविवाहित ही थे। इस लिए खाने की दिक्कत होती थी , लगभग सभी उत्तर भरतीय  । इस लिए महराष्ट्रियन खाना शुरू में पसंद नहीं आता था। अखबार का दफ्तर औरंगाबाद रेल्वे स्टेशन के पीछे ही था। सो सभी लोग पहला संस्कारण छपने के लिए जाने के बाद रेल्वे पटरी पर चलते हुए स्टेशन जाते और खाने के बाद वापस आ जाते। हमारे समाचार संपादक जी भी हमी लोगों के होते । एक दिन रास्ते में इसी बात पर चर्चा चल पड़ी कि साप्ताहिक परिशिष्ट का क्या नाम रखा जाय। बहुत सारे नामों की लिस्ट जुबान पर तैयार हुई इसी बीच यह पता चला कि औरंगाबाद का प्राचीन नाम ' खिड़की' था। बस सभी ने एक मत से इसी नाम पर अपनी मुहर लगा दी। दूसरे दिन प्रबंधन मण्डल को यह नाम सुझाया गया , जिन्होने अपनी सहमति प्रदान कर दी। इस तरह साप्ताहिक का नाम "खिड़की" पड़ा ।  

अभी तीन माह बीते भी नहीं थे कि दिसंबर का महिना आ गया , उधर गुलाबी ठंडक इधर अयोध्या क्या पूरे उत्तर भारत में कंपकापने वाली ठंड के बीच 'अयोध्या ' प्रकरण अपने उठान पर । कार सेवकों का अयोध्या मार्च । पूरे देश में इस बात की हलचल कि इस बार क्या होता है,वहाँ पर? खैर साहब 6 दिसंबर का वह दिन भी आ गया । रात में समाचार संपादक ने सभी से कह दिया था कि सुबह दस बजे तक कार्यालय पहुंचना है। तब तो इतने चैनल भी कहाँ थे, मात्र दूरदर्शन ही हुआ करता था। सभी नियति समय पर पहुँच कर अपने-अपने कामों में लग गए। तय हुआ कि अगर कुछ खास होता है तो डोफार का बुलेटिन निकाला जाएगा। यद्यपि आधी से अधिक तैयारी तो एक दिन पहले कर ली गई थी।

अभी बारह बज कर कुछ मिनिट ही हुए थे कि टीवी पर फलेश चला बाबरी मस्जिद का एक गुंबद करसेवकों के हुजूम ने गिरा दिया ई थोड़ी देर बाद ही टीवी भी बंद । देश की संचार सेवा थप कर दी गई। उधर टेलीप्रिंटर भी गड़गड़ाना बंद कर दिया। फोन सेवाएँ तो चालू थी ,लेकिन अयोध्या/फ़ैज़ाबाद की बंद। अब हम सबके सामने विकट  समस्या कि अखबार कैसे निकलेगा। तत्काल एक बैठक हुई प्रबंधन मण्डल की । जिसमें अयोध्या की खबरों का जिम्मा मुझे सौंपा गया। क्यों की मेरी भी तो जन्मभूमि हाए 'अयोध्या'। मै ने अयोध्या के पत्रकारों से संपर्क करना चाहा पर हो नहीं पा रहा था। तब किसी तरह मेरे बचपन के सहपाठी सरल ज्ञाप्रटे से संपर्क हुआ,जो उन दिनो  एक राष्ट्रीय  हिन्दी दैनिक अखबार के फ़ैज़ाबाद ब्यूरो प्रमुख थे। जिन्होने ने एक हाट लाइन का नंबर दिया, जिसके माध्यम से वहाँ की सारी खबरें हमलोगों को मिलती रही। मुझे वहाँ से पूरा आँखों देखा हाल बताया जाता रहा । कौन कहाँ खड़ा है ।

जैसे ही तीसरा गुंबद गिरा,जहां तक याद आ रहा है कि शाम के चार बजकर कुछ मिनिट हुए होंगे । पूरा विवादित स्थल मिट्टी में मिल गया । यह खबर मिलते ही देवगिरि समाचार का विशेष अंक चार पृष्ठों का बाज़ार में भेज दिया गया। कुछ ही घंटों में अहिंदी भाषी  क्षेत्र में हिन्दी का दस हज़ार अखबार एक रुपये में बिक गया। जो मराठवाडा के पत्रकारिता के इतिहास में दर्ज है आज भी। इधर औरंगाबाद की पूरे देश कर्फ़्यू तो लग ही गया था। इस बीच बहुत सी बातें भी हुईं जिन्हें सार्वजनिक नहीं किया जा सकता। क्यों कि पत्रकारिता का अपना भी एक मापदंड है।चलिए बहुत सी बातें हैं उस दौर की जिन्हें  एक पुस्तक के रूप में लिपिबद्ध करने का प्रयास करूंगा।  आज की और तब की पत्रकारिता में कितनी भिन्नता होती थी । एक बार पुनः आप सभी का आभार।



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