शुक्रवार, 30 सितंबर 2022

आज विश्व पोस्टकार्ड दिवस है भाई........

                        153 साल का हुआ पोस्टकार्ड

प्रदीप श्रीवास्तव

अगर कहें कि आज पोस्ट कार्ड दिवस है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी . अब तो हर दिन कोई न कोई दिवस मनाने की परम्परा सी चल पड़ी है. इसी श्रृंखला में आज के दिन को 'पोस्टकार्ड का दिन' मना लेते हैं .पोस्ट कार्ड हमारे अतीत का गवाह भी तो रहा है.वहीँ  शादी-ब्याह , मरनी-करनी की ख़बरोंके साथ-साथ न जाने कितने आंदोलनों का साक्ष्य भी. मज़े की बात तो यह है की अस्सीके दशक मैं प्रेम-प्रसंगों का दस्तावेज़ भी था पोस्ट कार्ड.यह वह दौर था जब 'पत्र-मित्रता' अपने चरम सीमा पर थी.युवाओं का तो पूछना ही क्या,अपनी भावनाओं को नीली या काली स्याही से इस छोटे से पोस्ट कार्ड पर उंडेल कर अपने प्रेमी-या प्रेमिका को भेज देते थे.उस समय पोस्टकार्ड की कीमत मात्र पंद्रह पैसे हुआ करती थी. तब भी अंतर्देशीय पत्र व लिफ़ाफे महंगे ही हुआ करते थे.जिसे हर कोई युवा वहन नहीं कर सकता था. 


         पत्र-मित्रता के उस दौर मैं पोस्टकार्ड एक सस्ता एवं सुगम साधन हुआ करता था. मेरे भी कई पत्र-मित्र थे ,कोई नेपाल से था तो कोई बुडापेस्ट (हंगरी की राजधानी) से.भारत के न जाने कितनो शहरों में उनकी संख्या थी.ढलती उम्र में याद नहीं. उन्ही मित्रो में से कोई आज देश के शीर्ष अख़बारके संपादक हैं तो कोई साहित्यकार ,कोई आर्किटेक्ट है तो कोई रंगकर्मी .यह सब पोस्ट कार्ड की ही देन  थी. अस्सी के दशक एवं नब्बे के पूर्वार्ध तक पोस्टकार्ड का बोलबाला हुआ करता था. पोस्ट मैंन के हाथों में डाक के बंडलों में साठ  प्रतिशत पोस्ट कार्डों की संख्या होती थी.जो अब लुप्तप्राय  सी हो चुकी है. डाक घरों में पोस्ट  कार्ड मिलते तो जरुर हैं पर खरीददार नहीं . उन दिनों  जिस पोस्ट कार्ड पर हल्दी का छींटा लगा होता तोसमझ लिया जाता की कोई शुभ समाचार वाला पोस्ट कार्ड आया है ,वहीँ अगर पोस्ट कार्ड कहीं  किनारे से कटा या फटा होता था तो यह जानने में  देरी नहीं लगाती थी कि किसी अशुभ समाचार का प्रतीकहै यह पोस्ट कार्ड .जिसे पढ़ने के तुरंत बाद फाड़ कर नष्ट कर दिया जाता था. पोस्टकार्डों के माध्यम से दशहरा, दिवाली या फिर नए वर्ष की शुभकामनाएं भी भेजी जाती थीं. यह सबसे सस्ता व सुगम साधन होता था. 


      आज से लगभग 153 साल पहले दुनिया का पहला पोस्टकार्ड सन 1869 में आस्ट्रिया में जारी हुआ था .जबकि भारत भारत में पहला पोस्टकार्ड 1 जुलाई 1879 ईस्वी में जारी किया गया था, हल्के भूरे रंग में छपे इस पहले पोस्टकार्ड की कीमत 3 पैसे थी और इस कार्ड पर ‘ईस्टइण्डिया पोस्टकार्ड’ छपा था.  बीच में ग्रेट ब्रिटेन का राजचिह्न मुद्रित था और ऊपर की तरफ दाएं कोने मे लाल-भूरे रंग में छपी ताज पहने साम्राज्ञी विक्टोरिया की मुखाकृति थी . कहते हैं कि साल की पहली तीन तिमाही में ही लगभग 7.5 लाख रुपए के पोस्टकार्ड बेचे गए थे .पता हो कि भारतीय डाकघरों में चार  तरह के पोस्टकार्ड मिलते रहे हैं - मेघदूत पोस्टकार्ड, सामान्य पोस्टकार्ड, प्रिंटेड पोस्टकार्ड और कम्पटीशन पोस्टकार्ड. ये क्रमशः : 25 पैसे, 50 पैसे, 6 रुपये और 10 रुपये में उपलब्ध हैं . कम्पटीशन पोस्टकार्ड फिलहाल बंद हो गया है  इन चारों पोस्टकार्ड की लंबाई 14 सेंटीमीटर और चौड़ाई 9 सेंटीमीटर होती है . जब कि पहला चित्रित पोस्टकार्ड फ्रांस ने 1889 में जारी किया था और इस पर एफिल टावर अंकित था .

    पोस्टकार्ड का विचार सबसे पहले ऑस्ट्रियाई प्रतिनिधि कोल्बे स्टीनर के दिमाग में आया था, उन्होंने इसके बारे में वीनर नॉस्टो में सैन्य अकादमी में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर डॉ. एमैनुएल हार्मोन को बताया।  उन्हें यह विचार काफी आकर्षक लगा और उन्होंने 26 जनवरी 1869 को एक अखबार में इसके बारे में लेख लिखा। ऑस्ट्रिया के डाक मंत्रालय ने इस विचार पर बहुत तेजी से काम किया और पोस्टकार्ड की पहली प्रति एक अक्टूबर 1869 में जारी की गई। यहीं से पोस्टकार्ड के सफर की शुरुआत हुई। दुनिया का यह प्रथम पोस्टकार्ड पीले रंग का था।  इसका आकार 122 मिली मीटर लंबा और 85 मिली मीटर चौड़ा था।  उसके एक तरफ पता लिखने के लिए जगह छोड़ी गई थी, जबकि दूसरी तरफ संदेश लिखने के लिए खाली जगह छोड़ी गई।  आस्ट्रिया में यह इतना लोकप्रिय हुआ कि इसकी देखा देखी अन्य देशों ने भी इसे अपनाने में देरी नहीं की .मालूम हो कि पोस्टकार्डों के संग्रहणऔर अध्ययन को अंग्रेजी में डेल्टियोलॉजी कहते हैं. 


 

शुक्रवार, 23 सितंबर 2022

चाय मैं गुण बहुत,जो पिए वही जाने ......


       प्रदीप श्रीवास्तव

      आज 21 सितम्बर है,कहते हैं कि आज "भारतीय चाय दिवस" है. इसका कारण मुझे अभी तक  समझ में नहीं आया .सुबह से खोज रहा हूँ,कई लोगों से पूछा भी ,लेकिन समाधान नहीं हो पाया .चाय की कथा भी भक्तिकाल के भक्त- कवि तुलसीदास के कथन हरि अनन्त, हरि कथा अनन्ताजैसी ही है. इसका इतिहास वाकई काफी रोचक है. भारत में तो चाय को लेकर एक जुनून है और इसके नाम से ही चाय पीने की तलब सी पैदा हो जाती है. सामाजिक समरसता का भी उदाहरण है चाय, क्योंकि क्या गरीब क्या अमीर, क्या राजा क्या प्रजा और क्या नेता और क्या अभिनेता, सभी चाय के तलबगार हैं. संबंधों तक में चाय ने पैठ बना ली है. किसी के घर जाओ और चाय न मिले तो उसे अनादर माना जाता है. लोग कहते मिल जाएंगे कि मैं उसके घर गया और उसने चाय तक नहीं पूछी.यानी उसकी बेज्जइती हो गई. एक समय था जब  गांव वाले अपने बच्चों को चाय नहीं पीने देते थे. वे बच्चों को डराते थे कि चाय पियोगे तो तुम्हारा कलेजाजल जाएगा. लेकिन अब चाय के साथ मसला क्रांतिकारी हो चुका है. ऐसा माना जाता है कि करीब 80 प्रतिशत भारतीयों की सुबह की शुरुआत गरमा-गरम चाय की प्याली से होती है. काम में मन न लग रहा हो, सिर या शरीर में दर्द हो, नींद को दूर रखना हो या वक्त ही बिताना हो तो चाय जैसी कोई चीज नहीं.

           चाय का मैं भी बचपन से शौकीन हूँ या यह कहिये कि 'लत' सी लगी हुई है .बिना चाय पिये रह नहीं सकता ,चाहे खाना न मिले. यह लत कैसे लगी इसका कारण आज तक नहीं पता लग पाया . बचपन से ही चाय का आदि रहा हूँ. अम्मा से चाय बनाने के लिए कभी नहीं कहा कि 'अम्मा चाय बना दो, बस एक इशारे पर अम्मा समझ जाती थीं,और बुदबुदाते हुए बिना किसी न-नुकुर के बना देती. गुस्सा भी बहुत होती थीं . ईशारा होता था ,  दायें हाथ के अंगूठे एवं बीच की अंगुली को लगभग आधे इंच की दूरी के बीच रख कर ईशारा करना ,जिसे वह समझ जाती थी की मुझे चाय की तलब लगी है. मज़े की इसका ईशारा होता था कि 'आधी कप चाय'.

          इसके लिए बाबू बहुत गुस्सा करते थे अम्मा पर , की  इतना चाय पीता है ? क्यूँ बना कर देती हो. बाबू ही नहीं भाई बहन भी उन पर नाराज़ होते .  ख़ैर जब बनारस पढ़ने गया तो ,खुद ही बना कर पीने की आदत हो गई .फिर तो रोकने-टोकने वाला था ही नहीं .पर दूध तो महंगा ही था मेरे लिए. फिर भी जो दूध आता था उसी में भरपूर चाय पीता भी और पिलाता भी .तब फ्रिज़ तो था नहीं दूध को शाम तक चलाना है,जिसके लिए एक बड़े बर्तन में पानी भर कर उसमें दूध वाला बर्तन रख देते ,ताकि वह गर्मी से फट न जाये. क्यों कि बनारस में हम दोनों भाई अकेले रहते थे ,तो दोस्तों का जमावड़ा भी रहता था. जिसका मन हुआ ,उठा और चाय बनाकर पिया और पिलाया . कभी-कभी छोटा भाई दुखी होकर दूध के बर्तन को ऊपर बने टाड छिपा कर रख देता. जब दोस्त पूछते की दूध कहाँ रखा है ,हम लोगों के कहने पर कि आज नहीं आया .इस पर वह विश्वास ही नहीं करते , पूरे घर को सी.बी.आई /सी.आई .डी. की छापे की तरह छान मारते. मिल जाने पर इतना खुश होते कि मानो कहाँ की जन्नत मिल गई हो.

         सही बोलूं तो चाय के लिए रात मैं पढ़ने का भी बहुत  नाटक किया है . चाय के लिए देर रात तक जागता  था ,उस समय हम लोगों के पास  एक छोटा सा स्प्रिट का स्टोव’ (बहुत से लोगों को इसके बारे में पता भी नहीं होगा, इसमें मिट्टी का तेल / केरोसिन नहीं,स्पिरिट डाल कर जलाया जाता था.) होता था ,जिस पर एक छोटे से पतीला या यूँ  कहें  भगौना में चाय बनानी होती थी. इस स्टोव को मेरे मामा ने अम्मा को दिया था, जब मेरी छोटी बहन का जन्म हुआ था, रात-बिरात पानी या दूध गर्म करने के लिए . सच में बहुत अद्भुत था वह स्टोव. उसके बाद से पांच दशक हो गए कहीं मुझे नहीं दिखा उस तरह का स्टोव.     

     हाँ बात चाय की हो रही थी, काफी समय बनारस में बीता,तो चाय की अड़ी पर इकठ्ठा होना , हर मुद्दे की चर्चाओं में प्रतिभागी बनना भी कोई आसान कम नहीं होता था. एक कप चाय के लिए लंका क्या रामनगर किले तक चले जाया करते थे ,तब स्कूटर /मोटर साइकिल तो होती नहीं थी,वही साइकिल ही तो था  जीवन का  आधार . सभी मित्र चाय के दीवाने ,अगर कहीं जाना होता (उन्हें या मुझे) तो ऑफर दिया जाता कि चाय के साथ समोसा भी खिलाऊंगा .फिर क्या दस-पांच किलोमीटर की साइकिल यात्रा पक्की ,चालक भी पक्का. लहुराबीर पर गायत्री मंदिर के बगल, क्वींस कालेज के कार्नर ,प्रकाश टाकिज परिसर ,कबीर चौरा पर पिपलानी कटरा के बगल ,नगरी नाटक मंडली के सामने ,मैदागिन,गोदौलिया पर बंगाली दादा की दुकान ,अस्सी,सोनारपुरा ,भदैनी ,बीएचयू गेट .सिगरा,पर चाय की अड़ी तो लगाती ही थी,जहाँ पर बुद्धिजीवियों का जमघट लगता,जिसमे कवि होते ,पत्रकार होते , विभिन्न राजनितिक पार्टियों के नेता होते ,देश दुनिया की समस्यों का समाधान चुटकी बजाते ही कर लिया जाता ,जिस अख़बार ने समाचार नहीं छपा उसके रिपोर्टरों व संपादकों को बैठे तमाम बनारसी उपाधियों  से सम्मानित कर दिया जाता. अगले दिन उसी सम्पादक के केबिन वही उपाधि देने वाले महानुभाव अपना समाचार हो या रचना लिए अनुनय-विनय करते दिख जाते. अगर उस दिन छप गई तो वह रिपोर्टर या संपादक से बड़ा पत्रकार पूरी दुनिया मैं होता था. उनकी प्रसंशा में इतने कसीदे पड़े जाते की पूछिये मत. बात जो भी हो चाय का ही कमाल होता था, सभी को जोड़ने का ,परखने का ,भाई-चारे को बनाये रखने का.

              काशी  विद्यापीठ में पढ़ता था, मुख्य गेट के सामने ठकुराइन चाची की चाय की दुकान तो थी ही,जिसके बारे मैं आपन पढ़ा ही है ,इधर समाज विज्ञानं संकाय के ठीक पीछे एक छोटी सी चाय की अड़ी (दुकान) खुली थी .वहां पर छात्रों का भरी जमघट लगता था. उन्हीं दिनों वाराणसी कैंट स्टेशन से मैमूरगंज त्रिमुहानी (तिराहे) तक सड़क के बीच  डिवाइडर (सड़क विभाजक) बना था, समाजविज्ञान संकाय किए पीछे वाली चाय की दुकान बहुत छोटी सी थी,जहाँ  खड़े होने की क्जगाह नहीं थी ,बैठने की सोचना ही छोड़ दीजिये. उस  डिवाइडर पर बैठ कर चाय पीने की परंपरा भी हमी लोगों ने की थी. अब तो शायद वह चाय की दुकान भी नहीं रही.

           बताता चलूँ  कि चाय की अड़ी पर बैठने की वजह से मुझे आजअख़बार की नौकरी मिली थी. हुआ यूँ  कि  काशी  विद्यापीठ  अर्थशास्त्र में एम.ए करने  के बाद वहीँ से पत्रकारिता में स्नातक किया ,जुलाई का महिना  था ,रिजल्ट निकल चुका था,पास भी हो गया था. रोज की तरह एक शाम लहुराबीर पर क्वींस कालेज के मोड़ वाले अड़ी  पर ऍम सभी चाय पी रहे थे ,तभी उधर से अपनी स्कूटर पर आजअख़बार के संपादक श्री पाठक जी गुजर रहे थे ,तभी उनकी निगाह मेरे आर पड़ी , वह रुके और पूछा की यहाँ क्या हो रहा है, रिजल्ट कैसा रहा . उन दिनों वह काशी विद्यापीठ पत्रकारिता विभाग के मुखिया भी हुआ करते थे. मैं रिजल्ट के बारे मैं बताया ,और उनसे चाय पिने का आग्रह भी किया,लेकिन उन्होंने मन करते हुए कहा की कल सुबह ठीक 11 बजे मुझे अख़बार के आफिस में आ कर मिलो. दुसरे दिन मैं उनके बताये समयनुसार आजअख़बार के कार्यालय में मिला ,तो आज तक वही कलम घिस रहूँ.

            चलते-चलते  चाय के इतहास पर तो नज़र डाला ही नहीं, बाबु बताते थे कि अग्रेजों ने ही भारतियों क चाय की लत  लगाई .चालीस-पचास के दशक नें हर सुबह फैजाबाद (अब अयोध्या) में पीतल के कैन मैं बनी-बनाई चाय भर कर हर मोहल्ले  मैं मुफ्त वितरित किया जाता, इस तरह से जाते-जाते अंग्रजी प्रशासन ने चाय की आदत हम भारतियों मैं लगाई .

             लेकिन ये  भारतीय पेय नहीं है ,यह तो चीन से आई है  इस संदर्भ में  यह प्रसंग काफी रोचक और अनगढ़ है. कहते हैं कि चाय की खोज ईसा पूर्व 2737 में चीन के सम्राट शेन नुंग ने की. वह उबला पानी पीते थे, एक बार लाव-लश्कर के साथ जंगल से गुजर रहे थे. रास्ते में आराम के वक्त पीने के लिए पानी उबाला जा रहा था कि बर्तन में पेड़ की कुछ पत्तियां गिर गईं, जिससे पानी का रंग बदल गया. इसे पिया गया तो ताजगी महसूस हुई. इसे ही चाय कहा गया. लेकिन उसके बाद करीब 2 हजार साल तक ये चायचीन में नदारद रही जो विस्मय पैदा करता है. वहीं दूसरी कथा के अनुसार छठवीं शताब्दी में चीन के हुनान प्रांत में भारतीय बौद्ध  भिक्षु बोधि धर्म बिना सोए ध्यान साधना करते थे.  वे जागे रहने के लिए एक ख़ास पौधे की पत्तियां चबाते थे और बाद में यह पौधा चाय के पौधे के रूप में पहचाना गया.


'इंग्लैंड-आयरलैंड' और 'अंटाकर्टिका एक अनोखा महादेश'

किताबें-2 श्रीमती माला वर्मा की दो किताबें हाल ही में मिलीं, 'इंग्लैंड-आयरलैंड' और 'अंटाकर्टिका एक अनोखा महादेश' ,दोनों ह...