मंगलवार, 16 अगस्त 2016

जलमय हुआ लखनऊ शहर

किसी फिल्म का एक गाना है 'बरखा रानी जम कर बरसो ',सच लखनऊ में मंगलवार की दोपहर से जम  कर पानी बरस रहा  हैं .इतना बरस रहा है कि शहर की चिकनी चुपड़ी सड़कें तरबतर हो रही हैं ,जहाँ बरसात  के इस पानी से आम जन जीवन प्रभावित हो गया है ,वहीँ  प्रदेश सरकार  के विकास  कार्यों की कलई भी खुलती जा रही है.. तीन दिन पहले तक चारों  तरफ हाय हल्ला मच रहा था कि देखो देश के  कितने हिस्सों में बाढ़ आई है ,एक अपना लखनऊ है कि एक-एक बूंद पानी के लिए तरास  रहा है. लो साहब अब तरसने की बात छोड़ो अपने को सहेजने की बात करो भाई .
 बूंदा-बाँदी तो रविवार  की शाम से ही शुरू हो गई थी  ,उस दिन गोधुल बेला में जमकर पानी भी बरसा, सोमवार  को एक ओर सारा शहर स्वतंत्रता दिवस की 70 वर्षगांठ मना रहा था ,वहीँ इंद्र देवता भी प्रसन्न हो कर हलकी बूंदा बाँदी कर रहे थे .लोग सुहाने मौसम के बीच ,छुट्टी का दिन होने के कारण अपने लोगों के साथ पिकनिक मना रहे थे. लेकिन अचानक मंगलवार की दोपहर बाद इंद्र देवता शायद  इतना खुश  हुए या फिर  क्रोधित की जो पानी बरसना शुरू हुआ तो लगातार  तीन घंटे तक मुसलाधार बरसते रहे ,जिसके चलते सारा शहर  अस्त-व्यस्त हो गया ,जो जहाँ था वहीँ थम गया .शहर के हर हिस्से में पानी का जमाव लग गया ,जब शाम को लगभग 7.30 बजे बूंदा बाँदी ख़त्म हुई तो लोग बाग अपने घरों के लिए निकल पड़े ,अरे यह क्या ? जगह- जगह दो से तीन फीट तक पानी का जमाव ,महिलाये क्या, पुरुष  क्या ,सभी के दो चक्का वाहन  पानी में डूबने जैसा हो गए. कुछ के वहां तो पानी में ही बंद भी हो गये ,वहीँ दूसरी तरफ जमाव के बीच चार पहिया वाहन  वाले भी मस्ती करते दिखे ,हुआ यूँ कि सड़क पर खड़े पानी के बीच तेज गति से वे अपने वहां लेकर गुजरते, जिसके चलते बरसाती पानी के तेज छीटों से अगल-बगल वाले तो पूरी तरह भीग गए .इंद्रा नगर, गाँधी पुरम, आम्रपाली का क्षेत्र रहा हो या अलीगंज ,विकासनगर ,राम-राम बैक का एरिया ,सभी जगह चारों ओर पानी ही पानी ,मानो  गोमती नदी लखनऊ  की सड़कों पर बहने लगीं हों.विश्व प्रसिद्ध रूमी दरवाजा व बड़ा इमामबाडा के पास देखते ही बन रहा था ,दोनों तरफ सड़के पानी में डूबीं हुई  थीं.
सबसे बुरा हाल तो रिंग रोड पर बसे जानकीपुरम क्षेत्र का था ,जहाँ जाने की लिए कोई भी ऐसा मार्ग नहीं था जो जल जमाव से भरा न रहा हो.लोग  देर रत तक रिंगरोड पर अपने वाहनों को खड़े कर पानी खत्म होने का इंतजार करते रहे .सहारा इस्टेट , आकांक्षा परिसर ,साठ फीट रोड ,प्रभात चौराहा का  दृश्य तो देखने वाला था .
कुल मिला कर पानी जमाव के पीछे सरकारी तंत्र का ही दोष दिया जायेगा . अरे भाई इतने बड़े शहर में इतनी बड़ी आबादी वाले क्षेत्र में सरकार  पानी निकासी के लिए जब छह इंच व्यास का पाईप लगवायेगी, तो इसका कोप भजन तो आम जनता को ही तो बनना पड़ेगा न. यह तो हर साल का रोना है ,आप रोते रहिये , सर्कार  व उसके नुमाइंनदे  सोते रहेंगे, आप की बला से .सत्रह अगस्त की देर सुबह तक बरसात जारी  थी . देखिये क्या होता है अगर आज दिनभर भी यही हाल  रहा . साथ में एक वीडियो संलग्न है ,उसे देख कर आप मुसलाधार बारिस का अंदाज लगा सकते हैं , जिसे हिंदी मासिक 'दिव्यता' के कार्यालय परिसर ,गोयल पैलेस ,फैजाबाद रोड पर लिया गया है .

सोमवार, 15 अगस्त 2016

झाड़ू और हम
सच में अब झाड़ू का महत्व समझ में आया है . वह भी पांच दशक के बाद.अब आप कहेंगे कि वह भी इतने दिनों बाद, कैसे समझ में आया ? आज दोपहर मे छोटे परदे पर बच्चों के साथ एक फिलिम देख रहा था ,तभी एक झाड़ू बनाने वाली कंपनी का विज्ञापन देखा, किस तरह महिलाएं झाड़ू के गुणों का बखान कर खरीदने का आह्वान कर रही थी .विज्ञापन को देखने के बाद प्रधान मंत्री जी का मन ही मन आभार व्यक्त करने लगा , अगर वह झाड़ू अपने हाथ में न लेते, तो इस घर सफाई के प्राचीन यंत्र पर लोगों की कृपादृष्टि नहीं पड़ती, लोग एक वर्ग विशेष तक का ही वर्चस्व उस पर समझते.
आप कह रहें होंगे यह भी कोई बात हुई, सही भी है. याद कीजिये केवल दो दशक पहले वाले लोगों से ही पूछिए ,जब उनके घर वाले उनसे कहते की जाओ बाज़ार से झाड़ू लेते आओ ,या घर आते समय लेते आना,तो उन जनाब (हम -आप सभी ) को कितना बुरा लगता था. हूँ में झाड़ू लेकर आऊंगा ,लोग क्या कहेंगे. आज मुझे याद आ रहा है,जब हम छोटे थे तो अम्मा अक्सर कहती थी की जाओ फलां की दुकान से झाड़ू लेते आओ, तो हम कितना बहाना बनाते कि मुझे न लाना पड़े ,कोशिश होती की छोटा भाई ले आये, लेकिन वह भी हमसे दो हाथ आगे ...,कह देता की हम कैसे लायेंगे इतना बड़ा झाड़ू .कुल ले दे कर झाड़ू लाने का जिम्मा मेरे ऊपर ही पड़ता. घर में बीच (मझौला) का होने के कारण लाना ही मुझे पड़ता.जब सूर्य देवता पश्चिम की ओर विदा लेते ,तब हम झाड़ू लेने का मन बनाते. अकेले ही बाज़ार निकल पड़ते, दोस्तों तक को साथ नहीं लेते ,किराना की दुकान से झाड़ू लेने. के मोलभाव का कोई सवाल नहीं ,जितने में दिया ले लिया ,अम्मा पहले ही बता देतीं थी कि इतने में मिलेगा. लीजिये साहब अब हम झाड़ू लिए और दोनों हाथों से पकड कर पीछे पीठ से लगाकर घर की ओर चल देते ,कोशिश करते कि मोहल्ले का कोई देख न ले कि में झाड़ू लेकर जा रहा हूँ .खुदा न खस्ता बाज़ार से घर के रस्ते में कोई न कोई जरुर मिल जाता ,पहले तो वह मुझे देखता ,फिर मेरे आगे पीछे देखता .हाथ में झाड़ू देखते ही बोल जरुर देता ,का मियां हाथ में का लिए हो ? झाड़ू ,वह कहाँ सफाई करने जा रहे हो .बस इतना सुनते ही गुस्सा फूट पड़ता,कमजोर हुआ तो एकाद -दो खा जाता , अगर वह सवासेर निकला तो अपनी ख़ैर नहीं. मानो पानीपत के युद्ध से लौटा हूँ.
ख़ैर जनाब ,आज के समय में झाड़ू का महत्व कही बढ़ गया है ,लोगबाग अपने हाथों में झाड़ू लिए फोटो खिचवा रहें ,यही नहीं झाड़ू के साथ सेल्फी भी लेने से हिचकिचाते नहीं. यह प्रधानमंत्री की दूरदृष्टि का ही तो नतीजा है कि झाड़ू अब हेय की चीज नहीं शान की चीज हो गई है , तभी तो झाड़ू बनाने वाली कम्पनियां अपना ब्रांड बना कर बेच रही हैं .कहाँ पहले दो-तीन रुपल्ली में मिलने वाला झाड़ू आज सौ से डेढ़ सौ रूपये मिल रहा है .

'इंग्लैंड-आयरलैंड' और 'अंटाकर्टिका एक अनोखा महादेश'

किताबें-2 श्रीमती माला वर्मा की दो किताबें हाल ही में मिलीं, 'इंग्लैंड-आयरलैंड' और 'अंटाकर्टिका एक अनोखा महादेश' ,दोनों ह...