रविवार, 2 अगस्त 2020

आज ही निकला था मराठवाड़ा से

पहला हिन्दी दैनिक "देवगिरि समाचार"

आज 3 अगस्तआज से 28 साल पहले आज के ही दिन 1992 में महाराष्ट्र की पर्यटन नगरी औरंगाबाद से मराठवाड़ा का पहला हिंदी दैनिक प्रकाशित हुआ था " देवगिरि समाचार " (जहां तक मेरी जानकारी है)।जिसका शुभारंभ तत्कालीन प्रधानमंत्री  स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेई जी ने किया था , यद्यपि यह अखबार  अधिक समय तक तो नहीं चल पाया (कारण प्रबंधन की राजनीति)।  अखबार का संचालन कर रहा था संघ परिवार से जुड़ा देवगिरी प्रतिष्ठान।1जून 999  मैं अखबार बंद हो गया। यद्यपि मैं अखबार के उद्घाटन के बाद जुड़ा , लेकिन इतना तो कह सकता हूं कुछ ही दिनों में अखबार ने  पूरे मराठवाड़ा में अपनी पहचान बना ली थी। खैर यह  मालिकों व  संस्थानों के हाथ में होता है जो चलाएं या न चलाएं ।  परंतु इस बात को  मैं गर्व से कह सकता हूँ कि  पत्रकारिता की बहुत सी बारीकियों को मैं ने इसी अखबार से सीखा ,समझा  और जाना ।यही वह अखबार  है  जिसके माध्यम से मुझे उस समय के प्रतिष्ठित राजनीतिज्ञों  के संपर्क में आने का मौका भी मिला, जो मेरे लिए अविस्मरणीय हैं ।जैसे प्रमोद  महाजन ,गोपीनाथ मुंडे ,रज्जू भैया आदि तमाम लोग हैं जिनके नाम तो याद नहीं आ रहे हैं पर उनका आशीर्वाद जरूर मिला ।         

  इसी अखबार के माध्यम से 1996 में  जब मैं  श्री वाजपेयी  जी ( जो उस समय भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष होते थे और राष्ट्रीय बैठक में भाग लेने जलगांव आए थे) से अपने  नियत  अनुसार उनसे  औरंगाबाद के सरकारी विश्राम गृह में साक्षात्कार लिया था ।सच वह साक्षात्कार मेरे लिए एक दस्तावेज की तरह है ।उस साक्षात्कार में मैंने  बाजपेई साहब से पूछा था की कश्मीर में धारा 370 क्यों नहीं हटाई जाती । इस पर उन्होंने बड़े संक्षिप्त में जवाब दिया कि यह तकनीकी कारण है ,जिसे हटाना बहुत मुश्किल होगा ।लेकिन उन्होंने उस तकनीकी कारण का उल्लेख सार्वजनिक ना करने के उद्देश्य नहीं बताया। इसी तरह यह  साक्षात्कार  मेरे लिए जो दस्तावेज है वह है कि जब मैं साक्षात्कार के लिए गेस्ट हाउस पहुंचा तो प्रमोद महाजन जी वहीं बैठे थे, क्योंकि वह देवगिरि  प्रतिष्ठान से  जुड़े थे और उन्होंने मेरा परिचय कराते हुए कहा कि आप प्रदीप श्रीवास्तव हैं और देवनागरी समाचार के लिए बात करना चाहते हैं ।इस पर बाजपेई साहब ने अपनी  चिर परिचित मुस्कुराहट के साथ मुझसे पूछा कि श्रीवास्तव जी अभी अखबार बंद नहीं हुआ ? मैं आश्चर्यचकित होकर उनकी ओर देखने लगा तब वह मुस्कुरा कर बोले चौकने  की बात नहीं है , क्यों कि आज तक मैं ने  जितने अखबारों का फीता काटा है ,वह जल्द ही बंद हो गया है ।लेकिन यह अखबार  चल रहा है अच्छी बात है । उस समय उन्होंने कई अखबारों के नाम भी गिनाए थे ।

  देवगिरि  समाचार में मेरा एक लंबा समय बीता, इस दौरान मुझे रिपोर्टिंग का भी भरपूर मौका मिला चाहे वह 6 दिसंबर 1992 की अयोध्या घटना हो या फिर सितंबर 1993 में लातूर जिले के किल्लारी में भूकंप या फिर औरंगाबाद की विमान दुर्घटना । पत्रकारिता के कई पहलुओं को मैंने  इसी अखबार से सीखा और जिन से सीखा उनमें महत्वपूर्ण नाम है डॉक्टर भगवान दास वर्मा (अखबार के पहले संपादक) बाद में  श्री मुजफ्फर हुसैन साहब, बड़े भाई  मित्र  सहयोगी  आदरणीय अनिल सोनी जी एवं आदरणीय मनोहर कुलकर्णी जी से।  (श्री सोनी जी एवं श्री कुलकर्णी जी की विशेषता यह है कि वह बहुत कम बोलते ,लेकिन उनकी लेखनी बोलती) ।पत्रकारिता का वह एक अलग दौर था ,तब आज की तरह की पत्रकारिता नहीं थी गला काट ।

3 अगस्त को अखबार शुरू हुआ था और मै ने 27 अगस्त को साहित्य संपादक के रूप में कार्यभार ग्रहण किया था। सितंबर के दूसरे सप्ताह में देवगिरि समाचार की पहला साप्ताहिक परिशिष्ट " खिड़की " निकाला था । चार पृष्ठ रंगीन । इसके पहले दिल्ली व सहारनपुर से प्रकाशित दैनिक ' जनसंदेश ' का साप्ताहिक भी मैं ही देखता था,इस लिए कोई दिक्कत नहीं हुई। यह जनसंदेश आज वाला नहीं था, इसके मालिक थे तत्कालीन उप प्रधानमंत्री स्व देवीलाल एवं उनके पुत्र ओम  प्रकाश चौटाला जी । बाद में यह अखबार भी राजनीति का कोपभजन बन गया ,परिवार वालों ने ही डूबो  दिया। खैर  इस अखबार की बात कभी और ...

खिड़की के पहले अंक को लोगों बहुत पसंद किया था। आप को लग रहा होगा कि अपने मुह मिट्ठू बनने वाली बात कह रहा हूँ, हो भी सकता हाए, 28 साल जो हो गए। साप्ताहिक  परिशिष्ट " खिड़की " का नाम खिड़की कैसे पड़ा इसकी भी रोचक कहानी है । उन दिनो औरंगाबाद इतना विकसित  नहीं हुआ था,जितना आज हो गया है । संपादकीय  विभाग में हम सभी 'नई उम्र के-नई फसल' की तरह थे। जहां तक मुझे याद आ रहा है सभी अविवाहित ही थे। इस लिए खाने की दिक्कत होती थी , लगभग सभी उत्तर भरतीय  । इस लिए महराष्ट्रियन खाना शुरू में पसंद नहीं आता था। अखबार का दफ्तर औरंगाबाद रेल्वे स्टेशन के पीछे ही था। सो सभी लोग पहला संस्कारण छपने के लिए जाने के बाद रेल्वे पटरी पर चलते हुए स्टेशन जाते और खाने के बाद वापस आ जाते। हमारे समाचार संपादक जी भी हमी लोगों के होते । एक दिन रास्ते में इसी बात पर चर्चा चल पड़ी कि साप्ताहिक परिशिष्ट का क्या नाम रखा जाय। बहुत सारे नामों की लिस्ट जुबान पर तैयार हुई इसी बीच यह पता चला कि औरंगाबाद का प्राचीन नाम ' खिड़की' था। बस सभी ने एक मत से इसी नाम पर अपनी मुहर लगा दी। दूसरे दिन प्रबंधन मण्डल को यह नाम सुझाया गया , जिन्होने अपनी सहमति प्रदान कर दी। इस तरह साप्ताहिक का नाम "खिड़की" पड़ा ।  

अभी तीन माह बीते भी नहीं थे कि दिसंबर का महिना आ गया , उधर गुलाबी ठंडक इधर अयोध्या क्या पूरे उत्तर भारत में कंपकापने वाली ठंड के बीच 'अयोध्या ' प्रकरण अपने उठान पर । कार सेवकों का अयोध्या मार्च । पूरे देश में इस बात की हलचल कि इस बार क्या होता है,वहाँ पर? खैर साहब 6 दिसंबर का वह दिन भी आ गया । रात में समाचार संपादक ने सभी से कह दिया था कि सुबह दस बजे तक कार्यालय पहुंचना है। तब तो इतने चैनल भी कहाँ थे, मात्र दूरदर्शन ही हुआ करता था। सभी नियति समय पर पहुँच कर अपने-अपने कामों में लग गए। तय हुआ कि अगर कुछ खास होता है तो डोफार का बुलेटिन निकाला जाएगा। यद्यपि आधी से अधिक तैयारी तो एक दिन पहले कर ली गई थी।

अभी बारह बज कर कुछ मिनिट ही हुए थे कि टीवी पर फलेश चला बाबरी मस्जिद का एक गुंबद करसेवकों के हुजूम ने गिरा दिया ई थोड़ी देर बाद ही टीवी भी बंद । देश की संचार सेवा थप कर दी गई। उधर टेलीप्रिंटर भी गड़गड़ाना बंद कर दिया। फोन सेवाएँ तो चालू थी ,लेकिन अयोध्या/फ़ैज़ाबाद की बंद। अब हम सबके सामने विकट  समस्या कि अखबार कैसे निकलेगा। तत्काल एक बैठक हुई प्रबंधन मण्डल की । जिसमें अयोध्या की खबरों का जिम्मा मुझे सौंपा गया। क्यों की मेरी भी तो जन्मभूमि हाए 'अयोध्या'। मै ने अयोध्या के पत्रकारों से संपर्क करना चाहा पर हो नहीं पा रहा था। तब किसी तरह मेरे बचपन के सहपाठी सरल ज्ञाप्रटे से संपर्क हुआ,जो उन दिनो  एक राष्ट्रीय  हिन्दी दैनिक अखबार के फ़ैज़ाबाद ब्यूरो प्रमुख थे। जिन्होने ने एक हाट लाइन का नंबर दिया, जिसके माध्यम से वहाँ की सारी खबरें हमलोगों को मिलती रही। मुझे वहाँ से पूरा आँखों देखा हाल बताया जाता रहा । कौन कहाँ खड़ा है ।

जैसे ही तीसरा गुंबद गिरा,जहां तक याद आ रहा है कि शाम के चार बजकर कुछ मिनिट हुए होंगे । पूरा विवादित स्थल मिट्टी में मिल गया । यह खबर मिलते ही देवगिरि समाचार का विशेष अंक चार पृष्ठों का बाज़ार में भेज दिया गया। कुछ ही घंटों में अहिंदी भाषी  क्षेत्र में हिन्दी का दस हज़ार अखबार एक रुपये में बिक गया। जो मराठवाडा के पत्रकारिता के इतिहास में दर्ज है आज भी। इधर औरंगाबाद की पूरे देश कर्फ़्यू तो लग ही गया था। इस बीच बहुत सी बातें भी हुईं जिन्हें सार्वजनिक नहीं किया जा सकता। क्यों कि पत्रकारिता का अपना भी एक मापदंड है।चलिए बहुत सी बातें हैं उस दौर की जिन्हें  एक पुस्तक के रूप में लिपिबद्ध करने का प्रयास करूंगा।  आज की और तब की पत्रकारिता में कितनी भिन्नता होती थी । एक बार पुनः आप सभी का आभार।



शनिवार, 27 जून 2020

34 साल पहले ...

"केसी होगी 21 वीं सदी की नारी ?" आज के संदर्भ में 
 डॉ प्रदीप श्रीवास्तव 
बात लगभग 34 साल पहले की है , मैं  काशी विद्यापीठ विश्व विद्यालय (महात्मा गांधी जुड़ गया है )  में पत्रकारिता का छात्र था , फाइनल परीक्षा दे चुका था ,बस रिजल्ट आने वाला था । उन दिनों प्रदेश क्या पूरे देश का सर्वाधिक लोकप्रिय दैनिक अखबार "आज " हुआ करता था ,जिसमें छपना अपने आप में एवरेस्ट की चोटी पर चढ़ने के समान होता था। जिसकी आधारशिला बाबू शिव प्रसाद गुप्त ने राखी थी , सम्पादन बाबु राव विष्णु राव पराड्कर, लक्ष्मी नारायण गर्दे जी जैसी विभूतियों ने किया था। तब 'आज' के सयुंक्त संपादक डॉ राम मोहन पाठक जी (आज कल दक्षिण हिन्दी प्रचार सभा चेन्नई के उप कुलपति हैं )हुआ करते थे । जो  विद्यापीठ पत्रकारिता विभाग के निदेशक भी थे। अचानक एक दिन उन्होने ने मुझे लहूराबीर अड़ी (मुंशी प्रेमचंद जी की प्रतिमा के सामने) पर देख लिया, जहां मैं अपने कुछ (उस समय के) उभरते साहित्यकारों,पत्रकारों के साथ खड़ा था, पास बुलाया, उनके पास पहुँचते ही परंपरा का निर्वाह करते हुए उनके चरण स्पर्श किए। एक बार तो उन्होने ने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा ,फिर वहाँ खड़े होने का कारण पूछा , सामने गुरु जी ,बस इतना ही निकाला की 'सर चाय पी रहा था'। इतनी बात पर जो डांट  पिलाई कि पूछिये मत ,और वह आप को बता भी नहीं सकता ।
खैर साहब उसके बाद डॉ साहब ने कहा कि कल आफिस ( 'आज' के )में  मिलो । दूसरे दिन मैं निश्चित समय पर मिलने आज कार्यालय पहुंचा। उन्हो ने 'मुझे' आज के लिए एक परिचर्चा करने का निर्देश दिया। विषय था "केसी होगी 21वीं सदी की नारी"। इसके साथ ही काशी की कुछ संभ्रांत महिलाओं के संपर्क पते भी , और कहा कि मेरा नाम लेकर मिल लेना। इस परिचर्चा को तैयार करने में करीब-करीब  दो माह का समय लग गया । बाद में यह परिचर्चा "दैनिक आज" में ( 4मईएवं 11मई 1986 )दो भागों में प्रकाशित हुई थी । परिचर्चा को पढ़ें तो आप सोच भी नहीं सकते कि उस समय की विदुषी महिलाओं ने जो भी अपने विचार व्यक्त किए थे , वे आज 34 साल बाद भी हु-ब-हू सटीक बैठ रहें हैं । उन कल्पनाओं को में नमन करता हूँ। 

गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

दस्तावेज़


अलकनंदा : 
उन्हीं के शहर के आबो हवा में उनका नाम नहीं
डॉ प्रदीप श्रीवास्तव
     संगीत हो या नृत्य ,कला में जब तन्मयता का समावेश हो जाता है तब उसकी संप्रेषणीयता कई गुना बढ़ जाती है । नृत्यांगना के घुंघुरुओं की झंकार अपने प्रभाव से श्रोताओं और दर्शकों के चेहरों पर प्रतिक्षण चढ़ते-उतरते भाव से स्पष्ट कर देते हैं । फिर कत्थक की थिरकन पर तो मन भी थिरकने लगता है । 'कत्थक' का शाब्दिक अर्थ होता है 'कथा' कहने वाला । 'कत्थक' शब्द का उल्लेख ब्रह्म पुराण में भी मिलता है। यही नहीं महाभारत एवं महर्षि भरत द्वारा रचितग्रंथ 'नाट्य शास्त्र 'में भी कत्थक शब्द का उल्लेख है। अगर देखें तो "कत्थक नृत्य संपूर्ण जीवन को चित्रित करता हुआ सौंदर्य की सृष्टि करता है। नृत्य और नाट्य के सम्मिश्रण, कत्थक के सृजन ,संरक्षण और विनाश , इन तीनों के पहलुओं का प्रतिविम्ब दिखाता है ।

    कला,साहित्य एवं सांस्कृतिक की राजधानी कही जाने वाली काशी या बनारस जिसे आज कल वाराणसी कहा जाता है,’ की थीं अलकनंदा । लेकिन आज वही अलकनंदा अपनी ही काशी की गलियों में न जाने कहाँ गुम हो गईं है,जिन्हें लोग जानते तक नहीं हैं । इतना ही नहीं अब तो वे इतिहास के पन्नों से भी मिटती जा रही हैं । यहाँ तक कि विकिपीडिया या फिर गूगल बाबा के पास भी कोई जानकारी उनके बारे में उपलब्ध नहीं है। बात केवल हिन्दी में ही नहीं अँग्रेजी में भी एक शब्द आप को नहीं मिलेगा। मिलेगा तो केवल इतना कि वह कत्थक नृत्यांगना सितारा देवी की बड़ी बहन थीं।
   19 वीं सदी के आरंभ में वाराणसी के कबीरचौरा मोहल्ले में उस समय के कत्थक नृत्य असाधारण मर्मज्ञ पंडित सुखदेव महराज के यहाँ अलकनंदा का जन्म हुआ था।अलकनंदा,तारा एवं सितारा तीन बहनें थीं । सुखदेव महराज स्वयं राजाओं- महाराजाओं के दरबार में नाच-गाकर अपनी कला का प्रदर्शन किया         करते थे। उनकी बड़ी इच्छा थी कि वह राजाओं के दरबारों में अपनी बेटियों के कला का भी प्रदर्शन करें । परिवार में नृत्य का माहौल होने के कारण अलकनंदा का इस ओर आकर्षित होना स्वाभाविक था ही ।छोटी सी उम्र में ही अलकनंदा के पाँव स्वत: थिरकने लगे थे। जिसे देख कर पंडित सुखदेव महराज ने लखनऊ के अच्छन महराज से गण्डा’ (गुरु-दीक्षा) बँधवा दिया। इस तरह कत्थक से जुड़ गई छह वर्षीय फूल सी कोमल अलकनंदा ।
   उम्र के साथ-साथ अलकनंदा के नृत्य में निखार आता गया । वह अपने समय की दादरा एवं भाव नृत्य की सिद्धहस्त नृत्यांगना साबित हुईं । जब वह अपना नृत्य प्रस्तुत करती थीं तो दर्शक सकते में आ जाते थे । नृत्य में उनकी सलामी का तरीका ,भाव-भंगिमाएँ और अंगविन्यास आज के कत्थक शैली से एकदम भिन्न थे। बताते हैं कि उनके दो नृत्य,”तलवार की धारएवं थाली की बारीपर नृत्य की तुलना में आज तक कोई कलाकार हुआ ही नहीं। अर्थाभाव, लोगों तथा सरकारी उपेक्षा के चलते आज से 36 साल पहले कत्थक की बेजोड़ कोहिनूर गुमनामी के अँधेरों में ऐसा गुम हुईं कि उन्हीं के शहर के आबो हवा में उनका नाम  नहीं ।80 वर्ष की उम्र में  वाराणसी के शिव प्रसाद गुप्त जिला चिकित्सालय के महिला वार्ड में 12 मई 1984 की शाम लगभग 8.30 बजे उन्हें दिल का दौरा पड़ा और घुंघुरुओं की छन-छन के साथ पैरों की थाप सदा के लिए थम गई । जहां पर उनके गुर्दे का ईलाज चल रहा था । ताज्जुब तो इस बात का है कि उस समय उनके अगल-बगल के मरीजों तक को यह नहीं मालूम था कि उनके बगल में नृत्य की एक धरोहर जीवन मृत्यु से संघर्ष कर रही है ।
अलकनंदा जी की मृत्यु से ठीक दस-बारह दिन पहले में उनसे मिलने अस्पताल गया था । यह भी एक संयोग ही था । हुआ यूं कि उन दिनों की प्रसिद्ध कत्थक नृत्यांगना एवं भोजपुरी की लोकप्रिय अभिनेत्री मधु मिश्रा से मिलने उनके राम कटोरा वाले घर पर गया, मुझे देख वह चिहंक उठी और बोलीं कि अच्छे समय पर आए प्रदीप । आओ चलते हैं जिला अस्पताल ,अलकनंदा बुआ वहाँ भर्ती हैं । इसी के साथ पूरा विवरण बता दिया मुझे। जिनकी देख-रेख उनके छोटे भाई दुर्गा प्रसाद जी कर रहे थे । रात यही आठ बजे होंगे हम लोग अस्पताल पहुंचे। उनका हाल-चाल लिया, काफी देर तक बातें होती रहीं। अगले दिन बातचीत करने की बात कर के वापस लौट आया ।

  दूसरे दिन दोपहर में मित्र छायाकार जितेंद्र के साथ पुनः अस्पताल पहुंचा । काफी देर तक बात होती रही । थोड़ी देर तक वह भावुक हो कर ऊपर छत की ओर देखती रहीं , शायद अपनी स्मृतियों में खो गईं थीं ,अचानक बोल उठी कहाँ नहीं नाचा ,दक्षिण पूर्व एशिया के लगभग सभी देशों सहित पूरे भारत में। बड़ा दुख सहा है बेटा,इस नाच के पीछे । क्या-क्या नहीं सुना ,पिता जी से कहा जाता था कि देखो अपनी लड़कियों को नचवा रहा है । इतना ही नहीं ,हम लोगों को बिरादरी से बाहर तक कर दिया गया । पर हम कला के सच्चे उपासक ,धुन के पक्के ,बेपरवाह आगे बढ़ते गए।
  यह पूछने पर कि आपने के शिष्यों के बारे में कुछ बताएं? इस पर वह बोलीं,नाच,पता नहीं कितनों को सिखाया। नाम तो याद नहीं है ,अरे अब वो  ही भूल गए। सही बोलूँ, तो कभी साज-साजिन्दों की तरफ ध्यान ही नहीं दिया।जब देखती किसी को काम नहीं मिल रहा है तो उससे कहती कि बस तू थप-थप करता जा ,मैं नाच लूँगी। इससे मुझे खुशी मिलती कि उसे काम मिल गया।
   उम्र आते ही पिता जी ने शादी कर दी ,पर जिंदगी ही मात दे गई । मुझसे कोई बच्चा नहीं हुआ तो पति उसी के गम में भटक गए। पर अलकनंदा जी ने पति का नाम नहीं बताया, इतना कह कर चुप हो गईं कि ,अब बताने से क्या मिलेगा। फिर आगे बोलीं हाँ मैं ने जिंदगी में कभी गम नहीं किया । अगर किया होता तो तबेदिक (टीबी)की मरीज हो जाती।इसी के साथ उनके ओठों पर एक दर्द भरी मुस्कान तैर गई, जिसने  उनके दर्द को स्वयं बयां कर दिया।
अलकनंदा ने फिल्मों में भी काम किया था । जिसके बारे में पूछने पर वे कह पड़ीं फिल्म,हाँ याद आया ,शंकर भट्ट की फिल्म सूर्य कुमारीमें हीरोइन थी। सोहराब मोदी की फिल्म हुमायूँमें नृत्य किया था। महबूब भट्ट की भी एक फिल्म में काम किया था ,नाम याद नहीं आ रहा । सोहराब मोदी और भट्ट साहब के काम लेने के तरीके से मैं बहुत संतुष्ट थी। 
        जिला अस्पताल का महिला वार्ड ,जहां वह अपने एक खराब गुर्दे का इलाज़ करवा रही। शोरगुल के बीच बातचीत का सिलसिला जारी, मैं  उनके चेहरे को निरंतर देखे जा रहा था । चेहरे पर झुरियों की जवानी ,उस पर तैश में निकलती कर्कश आवाज़ में वह बोलती जा रही थीं। सच पूछो तो कत्थक का पहला नाच हम ने ही नाचा है । हमी लोगों के बदौलत बनारस घराना चला । इसे कोठे से नीचे उतारने का सारा श्रेय पिता जी को ही जाता है।दोनों छोटी बहनें तारा एवं सितारा के बदौलत ही तो आज कत्थक को लोग जान रहें हैं । मुझसे छोटी बहन तारा तो असमय ही चली गई । अब सितारा ही तो इस परंपरा को आगे बढ़ा रही है।
 अब मेरे पास इतनी ताकत कहाँ कि नाच सकूँ, अभी दो साल पहले ही दिल्ली के आइपेक्स हाल में पैतालीस मिनट तक नाची थी। बस अब कुछ दिन ही तो और रहना है। भावुक हो कर बोलीं कि कलाकार मरता है,उसकी कला नहीं।

  अस्पताल से लौटने के बाद उनके साथ हुई बातचीत की रिपोर्ट तैयार की और धर्मयुग के लिए भेज दी ,इस उद्देश्य से कि छप जाएगा तो ठीक नहीं तो कोई बात नहीं। भेजे हुए तीनचार दिन ही हुए थे। उन दिनों काशी विद्यापीठ वाराणसी से अर्थशास्त्र में परास्नातक भी कर रहा था । दोपहर  का समय था, मेरे एक मित्र विध्यापीठ आए और बोले कि पहले मुह मीठा कराओ, मै ने उनसे जानना चाहा कि किस बात के लिए भाई ,वह कुछ बताने से इंकार करते रहे । उन दिनों छात्रों के बीच मुह मीठा करने का मतलब होता था एक पूरी या आधी कप चाय। खेर साहब ,बेरोजगार था ,किसी तरह कुछ पैसों का वहीं इंतजाम किया और चाची के चाय की दुकान पर उन्हें (इसी बीच कई और मित्र भी आ गए वहाँ) लेकर गया ,जब चाची (जिनकी विध्यापीठ के ठीक सामने दुकान थी ,वही चाची जिनका छात्र जीवन का कर्ज प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी भी नहीं उतार पाये थे, चाची पर फिर कभी चर्चा करूंगा) को चाय पिलाने का आर्डर दिया ,तब जा कर मित्र ने मुझे धर्मयुगदिखाया। जिसमें एक छोटा  बाक्स आइटम अलकनंदा जी पर मेरा छपा था,जिसका शीर्षक था अलकनंदा देवी: उपेक्षित कलानेत्री  । उस समय धर्मयुगमें छपना बहुत बड़ी बात हुआ करती थी। देश के प्रतिष्ठित लोग ही उसमें स्थान पाते  थे। धर्मयुग का वह अंक था 6-12 मई 1984 का। मुझे भी विश्वास नहीं हो रहा था कि यह मेरा ही है। क्योंकि लगभग एक सप्ताह पहले ही तो साधारण डाक से भेजा था। जो उसी सप्ताह के अंक में आ भी गया था। यह बात होगी 10 मई की । इधर इस खबर (यही कहूँगा) के छपने के बाद बनारस की स्थानीय संस्थाओं व जिला प्रशासन को पता चली तो लोग अस्पताल की ओर दौड़ पड़े। इस बीच बनारस शहर में मेरी भी पहचान बन गई । 13 मई 1984 के शाम की बात है, यही सात बज रहे होंगे, तभी पोस्टमैन एक तार (टेलीग्राम) लेकर मेरे घर आए, तार का नाम सुनते ही उस समय सभी के होश उड़ जाया करते थे। अम्मा ने रिसीव किया। मेरे नाम से था, इस लिए उन्हें और जिज्ञासा थी कि इसमे क्या लिखा है। तत्काल मेरी खोज शुरू हुई ।लहुराबीर स्थित प्रकाश टाकीज़ पर खबर पहुंची कि तुरंत घर पहुँचो ,कोई टेलीग्राम मेरे नाम आया है। मैं तुरंत घर पहुंचा। तार को पढ़ा तो खुशी का ठिकाना नहीं रहा,वह तार था धर्मयुग के संपादक श्री धर्मवीर भारती जी का। जिसमें उन्हो ने अलकनंदा जी के इलाज के लिए धनराशि भेजने के हेतु उनके घर का पता लौटते तार से मांगा था। तार मिलते ही मैं भागा-भागा अस्पताल के महिला वार्ड में पहुंचा तो पता चला कि कल शाम ही उनका हृदयगति रुक जाने से निधन हो गया था। वहाँ से निकल कर सीधे कबीरचौरा स्थित उनके घर पहुंचा ,जहां पर उनके छोटे भाई दुर्गा प्रसाद जी ने सारी जानकारी दी।
  दुर्गाप्रसाद जी से मिलकर तुरंत नदेसर पहुंचा, वहाँ पर मुख्य डाकघर हुआ करता था , वहीं से श्री भारती जी को तार के माध्यम से अलकनंदा जी के निधन की भेजी। दूसरे दिन 14 मई को एक रजिस्टर्ड पोस्ट से धर्मयुग का एक लिफाफा मिला ,जिसमे एक बड़ी राशि का चेक उनके नाम का भारती जी ने भेजवाया था। जिसे उसी तरह लिफाफे में रख कर लौटती रजिस्टर्ड डाक से वापस भेज दिया था। आज के समय में कोई इस बात पर विश्वास ही नहीं करेगा कि इतनी तेज गति से कभी काम भी हुआ करते थे।
(यहाँ पर सभी चित्र उनके प्रपौत्र विशाल कृष्णा ने उपलब्ध करवाए हैं।)  


                        


शनिवार, 25 अप्रैल 2020

जन्म शताब्दी वर्ष

बहुगुणा जी के ठीक पीछे दाढ़ी व चश्में में मैं । 
हेमवती नंदन बहुगुणा के साथ दस मिनट की रेल यात्रा 
डॉ प्रदीप श्रीवास्तव 
बात सन 1987 की है ,उन दिनो मैं आगरा के एक हिन्दी दैनिक में कार्यरत था, शाम का समय यही कोई सात बजे होंगे,तभी हमारे समाचार संपादक जी ने मुझे अपने पास बुलवाया और निर्देश दिया कि अभी नौ बजे की गाड़ी से हेमवती नंदन बहुगुणा जी भोपाल जा रहे हैं ,तुम उनसे मिल कर एक छोटी सी बातचीत कर लो ,साथ में फोटोग्राफर भी रहेगा। आदेश मिलते ही हम लोग आगरा के 'राजा की मंडी' स्टेशन पहुंचे । तय हुआ कि किसी तरह उस डिब्बे में प्रवेश कर लिया जाए और उनके साथ वहाँ से 'आगरा कैंट' तक चला जाएगा। क्यों की इस बीच की दूरी को तय करने में गाड़ी को लगभग दस मिनिट तो लग जाएगा। बस इसी दौरान उनस जो भी बात हो सकेगी ,वह पर्याप्त होगी। गाड़ी स्टेशन पर पहुंची ,बहुगुणा समर्थकों का जमावड़ा देखने ही वाला था ,बहुगुणा जी वातानुकूलित डिब्बे से बाहर निकले ,समर्थकों ने उनका फूल -मालाओं से स्वागत कारण शुरू कर दिया । इसी बीच मैं में चुपचाप डिब्बे में घुस गया । सच बताऊँ पहली बार वातानुकूलित डिब्बे में घुसा था,यह कहने में कोई परहेज नहीं है । अपने निर्धारित समय से कुछ अधिक समय तक गाड़ी वहाँ रुकी रही। खैर साहब गाड़ी चली,बहुगुणा जी अपनी सीट पर आए ,उन्हें अपने अखबार के बारे में बताया और फिर बातचीत का सिलसिला चल पड़ा। राजनीति पर,प्रदेश की  वर्तमान परिदृश्य पर बात हुई (जिसका उल्लेख फिर कभी)। गाड़ी 'आगरा कैंट' पहुंची, उनसे बिदा लेकर स्टेशन से बाहर आया। अब विकत संकट की कार्यालय कैसे जल्दी से जल्दी पहुंचा जाए। याद आ रहा है कि दो-तीन आटो बदल कर कार्यालय पहुँचते -पहुँचते रात के ग्यारह बज गए थे। दूसरे दिन वह खबर बनाम बातचीत आगरा के शहर पेज पर छपी थी। उसी समय का यह चित्र है । जिसमें में बहुगुणा जी के पीछे दाढ़ी में दिखाई दे रहा हूँ।
आज बहुगुणा जी होते तो पूरे सौ साल के होते। यह उनका जन्म शताब्दी वर्ष है ,जो आज से शुरू हो रहा है। भारतीय माटी से जुड़े इस राजनीति के महानायक का जन्म 1919 को आज के ही दिन (25अप्रैल)  उत्तराखंड राज्य के पौड़ी जिले के बुधाणी गाँव हुआ में था। उनके पूर्वज पश्चिम बंगाल के थे। बताते हें कि वे लोग वहाँ से बद्रीनाथ दर्शन के लिए आए थे । परिवार वेधकीय था ,जिस पर वहाँ की तत्कालीन रानी ने उन्हें 'बहुगुणा' उपाधि से अलंकृत किया,जो बाद में सभी के नाम के साथ जुड़ गया । बहुगुणा जी 1936 से 1942 छात्र आंदोलन से जुड़े रहे बाद में 1942 से वह भारत छोड़ो आंदोलन के सक्रिय सहयोगी हो गए। किसी बात को लेकर उनसे इन्दिरा जी से मतभेद हो गई तो उन्होने 1977 में कांग्रेस का साथ छोड़ दिया,लेकिन बाद में वह फिर 1980 में वापस भी लौट आए । 1974-75 में वे उत्तर परदेश के मुख्यमंत्री भी रहे, केंद्र में भी वह कई बार मंत्री भी रहे। उनकी पढ़ाई इलाहाबाद (अब प्रयागराज)में हुई थी। और बातें फिर कभी ।
     

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2020

प्रधानमंत्री-3

प्रधानमंत्री  राव ,बिहार विधान सभा चुनाव और मैं 
बात सन 1995 की है ,देश के कई राज्यों में विधान सभा के चुनाव हो रहे थे ,चारों ओर गहमा-गहमी थी। उन दिनों मैं महाराष्ट्र के औरंगाबाद से प्रकाशित तरुण भारत समूह के हिन्दी दैनिक 'देवगिरि समाचार' में कार्यरत था। तरुण भारत का मुख्यालय नागपुर में था । जिसके प्रबंधन मण्डल में स्व प्रमोद महाजन ,गोपीनाथ मुंडे ,आबा साहब देशपांडे ,संघ परिवार के सभी वरिष्ठ जन के अलावा महाराष्ट्र प्रदेश के बड़े-बड़े उद्योगपति भी हुआ करते थे । इस समूह की एक बड़ी विशेषता यह भी थी कि अखबार से जुड़े लोगों को समाचार संकलन का पूरा मौका दिया जाता था। जिसके लिए बकायदा सभी संस्करणों के संपादकों एवं ब्यूरो प्रमुखों की एक बैठक नागपुर या मुंबई में आयोजित की जाती,जिसमे सभी को समाचारों के संकलन की ज़िम्मेदारी सौंपी जाती। चुनाव सर पर था ,नागपुर में बैठक हुई । उसमें मुझे ओड़िसा ,बिहार एवं उत्तर प्रदेश के चुनाव का दायित्व दिया गया,इसी तरह अन्य  सभी वरिष्ठ संपादकों व ब्यूरो प्रमुखों को भी दायित्व दिये गए।
इस दौरान पंद्रह दिन में तीनों राज्यों को कवर करना था। औरंगाबाद से चल कर मैं सीधे भुवनेश्वर पहुंचा । तीन दिन रुक कर बीजू पटनायक, नवीन पटनायक ,सहित तमाम प्रत्याशियों से साक्षत्कार लिए एवं चुनावी रिपोर्टिग की। वहाँ से सात मार्च की दोपहर  चल कर आठ मार्च की सुबह पटना पहुंचा । अभी स्टेशन से निकाल कर होटल के लिए चला  ही  था तो प्रचार के तहत सुनाई दिया कि शाम को गांधी मैदान में प्रधानमंत्री (तब वह थे) पी॰ वी ॰ नरसिंह राव की जनसभा है । खैर होटल में फ्रेश होने के बाद चुनावी माहौल जानने के लिए पटना की सड़कों पर निकाल पड़ा । एक दो पत्रकार मित्रों से भी मुलाक़ात हुई । होते -होते तीन बज गए। पाँच बजे से पटना के गांधी मैदान में प्रधान मंत्री की जन सभा । इसी उधेड़बुन में कि गांधी मैदान  जाऊँ  या दानापुर हवाई अड्डा । सोचते-सोचते कदम कुआं के एक रेस्तरा में चाय पीने बैठ गया । फिर वही चाय कि चुस्कियो  के साथ फिर दिमाग मैं उधेड़बुन । चाय खत्म होते-होते यह निर्णय लिया कि यहाँ से सीधे हवाई अड्डा चला जाए। क्यों कि गांधी मैदान के सभा की खबर समाचार एजेंसियां तो देंगी ही, यदि प्रधानमंत्री जी से चलते-चलते दो मिनिट बात भी हो गई तो ,वह खबर कुछ अलग से होगी ।
हवाई अड्डा पहुंचा , सुरक्षा के कड़े प्रबंध । प्रधान मंत्री के विमान आने में थोड़ा विलंब , अभी हवाई अड्डे पर मेरे एक संपादक मित्र दिख गए। फिर क्या बात आसानी से बन गई ,अधिक माथा -पच्ची नहीं करनी पड़ी । प्रधान मंत्री आए और एक विशेष कक्ष में चुनिन्दा पत्रकारो के साथ लगभग बातचीत की ,इस दौरान सवालों -जवाबों का दौर भी चला । बाद में वे चुनावी सभा को संबोधित करने गांधी मैदान चले और में वापस होटल लौट आया । अब दिक्कत समाचार भेजने की । हर जगह फैक्स या टेलेक्स तो होते नहीं थे। एक मात्र सहारा था पोस्ट आफिस । खोजते-खोजते पोस्ट आफिस पहुंचा तो वहाँ भी लंबी लाईन । हो भी क्यों न ,देश-विदेश के पत्रकारों का जमघट ,हर एक को समाचार अपनी-अपनी  डेट लाइन से भेजने के व्याकुलता । उस समय पोस्ट आफिस सूचना विभाग के माध्यम से मान्यता प्राप्त पत्रकारों एक कार्ड जारी करता थे ,जिससे वह अपनी खबर टेलेक्स या टेलीग्राम के माध्यम से कम दर पर भेजता था,जिसका भुगतान कंपनी के द्वारा हो जाता था। वहाँ से अगला पड़ाव उत्तर प्रदेश की ओर ।     
डॉ प्रदीप श्रीवास्तव 

बुधवार, 22 अप्रैल 2020

प्रधानमंत्री-2



इन्दिरा गांधी , 71 का चुनाव और ............
डॉ प्रदीप श्रीवास्तव
आज जब भी सोचता हूँ तो विश्वास ही नहीं होता कि कभी भारत की लौह महिला कही जाने वाली देश की तीसरी (वैसे  पाँचवी ,दो बार श्री गुलजारी लाल नन्दा कार्यवाहक प्रधान मंत्री रह चुके थे) प्रधान मंत्री श्रीमति इन्दिरा जी के साक्षात दर्शन किए था।
बात सन 1971की है ,देश में पांचवा आम चुनाव हो रहा था ,तब तक कांग्रेस पार्टी भी दो भागों में विभाजित हो चुकी थी । एक थी कांग्रेस () तथा दूसरी थी  कांग्रेस (आर),जिसे इन्दिरा कांग्रेस के नाम से जाना जाता था। जिसका चुनाव चिन्ह था 'गाय और बछड़ा'। जबकि पुरानी कांग्रेस का वही पुराना चुनाव चिन्ह था 'दो बैलों  की जोड़ी '। सन 1967 के चुनाव के बाद से ही पुराने कांग्रेसियों को इन्दिरा जी कुछ पाच नहीं रही थीं। ये व सभी लोग थे नेहरू जी के पुराने साथी थे। जीनामे प्रमुख थे मोरारजी देसाई एवं कामराज जी। क्यों कि उस चुनाव (1967) में इन्दिरा जी ने कांग्रेस के सिंडीकेट का  सुपड़ा साफ कर सत्ता पर काबिज हुई थीं। जिसे वे लोग पचा नहीं पा रहे थे। जिसके चलते 12 नवंबर 1969 को सिंडीकेट कांग्रेस ने उन पर पार्टी में अनुशासन हीनता का आरोप लगते हुए पार्टी से बाहर कर दिया था।
 पार्टी से बाहर किए जाने के बाद उनकी बोखलाहट देखने वाली थी। तब इन्दिरा जी ने न आव देखी न ताव ,उर एक नई पार्टी गठन कर दिया। जिसका नाम दिया कांग्रेस (आर)। उस समय कांग्रेस () का एक मात्र लक्षय था इन्दिरा जी को सत्ता से हटाना ,लेकिन इन्दिरा जी ने दूर दृष्टि अपनाते हुए अपने पार्टी का उस चुनाव में मुख्य  मुद्दा बनाया था देश से 'गरीबी हटाओ' का। जिसका परिणाम यह निकाला कि 1971 के पाचवें आम चुनाव में 'गरीबी हटाओ' के नाम पर उन्होने 545 लोक सभा की सीटों में से 352 सीटों पर सीधा कब्जा कर लिया, उनके विरोधियों को मुह की खानी पड़ी । इस चुनाव  में भारतीय जनसंघ को भी बहुत नुकसान उठाना पड़ा था। 167 के चुनाव में उन्हें 35 सीटें मिली थीं,जबकि इस चुनाव में वह घट कर 23 पर ही सिमट गई। कांग्रेस ()को केवल 16 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा था।
सन 1971 का वर्ष दो मायनों  में भी उल्लेखनीय था, पहली तो इन्दिरा जी की भरी जीत,और दूसरी भारत -पाकिस्तान युद्ध में पूर्वी पाकिस्तान को कब्जे में लेकर 16 दिसंबर को बांग्लादेश का निर्माण कर स्वतंत्र देश बनाना । एक बात और इस चुनाव में इन्दिरा जी पहली बार अपने नए चुनाव चिन्ह 'गाय और बछड़ा ' पर चुनाव लड़ा था,जबकि कांग्रेस (0 का चुनाव चिन्ह वही पुराना था 'दो बैलों की जोड़ी'18 मार्च 1971 को इन्दिरा जी ने स्वतंत्र भारत के  तीसरे प्रधान मंत्री पद की शपथ ली थी।  

हाँ ,तो यह थी पृष्ठभूमि । अब आएं  मुख्य बात पर ।सन  1971 का चुनाव था इन्दिरा जी अपनी पार्टी के लिए तूफानी चुनाव प्रचार में लगीं थी ,उसी के तहत  वह फ़ैज़ाबाद(अब अयोध्या) भी आईं। उनकी जनसभा शहर के पश्चिमी छोर पर स्थित कण्टोमेंट के मैदान पर थी ,उनकी पार्टी के प्रत्याशी थे पूर्व सांसद राम कृष्ण सिन्हा । चुनाव प्रचार के लिए फ़ैज़ाबाद पाहुचने में काफी विलंब हो चुका था। उन दिनों मेरे छोटे चाचा श्री डी पी श्रीवास्तव , जो   पी डब्लू डी  में थे, सो उनकी ड्यूटी फ़ैज़ाबाद के हवाई अड्डे पर थी । उन्होने अपने बच्चों यानि मेरे चचेरे भाई बहन को लाने के लिए घर पर गाड़ी भेजी थी। वह लोग उसमे जा रहे थे ,तभी रास्ते में मैं उन्हें दिख गया ,और मुझे भी अपने साथ ले लिया । प्रधान मंत्री को देखने जाना ,यह बड़ी बात थी। उस समय शायद में छठवीं  कक्षा में रहा हूंगा ।  खैर साहब मैं भी उन के साथ  हो लिया । नाका हवाई अड्डे पहुंचे । सारा सरकारी तामझाम ,सुरक्षा के कड़े प्रबंध। मैं ,मेरा छोटा भाई राकेश एवं चोटी बहन रेखा ,वी आई पी गाड़ी से वहाँ गए थे,इस लिए हम लोगों को हवाई अड्डे के अंदर तक ले जाया  गया । हलकी सी स्मृतियों में है  कि कुछ समय बाद ही हवाई अड्डे के भीतर हलचल तेज हुई , तब बालपन या यूं कहें बालमन था। जब तक कुछ समझ पता तब तक भारत सरकार का एक विमान हवा में उड़ता दिखाई दिया। चारों ओर शोर  मच गया कि इन्दिरा जी का विमान आ गया। कुछ ही पलों में हवाई जहाज हवाई अड्डे पर । उस दिन पहली  बार हवाई जहाज को इतनी नजदीक से देखा था ।
इसी बीच अपनी चीर परिचित पारंपरिक मुस्कराहट के साथ इन्दिरा जी हवाई जहाज से नीचे उतरी, किन लोगों ने उनका स्वागत किया ,इस बारे में कोई जानकारी नहीं है। वहाँ उपस्थित सभी लोग एक कतार से खड़े हो गए, चाहे वे बड़े रहे हों या फिर बच्चे । इन्दिरा जी अपने प्रोटोकाल के तहत हवाई अड्डे पर खड़े सभी लोगों का अभिवादन स्वीकारते हुए आगे बढ़ती जा रही थी,वहाँ खड़े लोग  (उस समय के नामी -गिरामी लोग रहे होंगे) उनका माला पहना कर स्वागत व अभिवादन कर रहे थे, इन्दिरा जी अपने हाथों से गले की माला उतरतीं और वहाँ आए बच्चों  के गले में डाल देती। उसी शृंखला में जब हम सब के पास पहुंची तो अपने गले की मालाओं को निकाला और हम तीनों भाई बहनो के गले में भी डाल दिया। आज भी वह दृश्य रह-रह कर आँखों के सामने घूम जाता है । उस समय मन तो बालपन  का ही रहा ,लेकिन उनके चेहरे का लावण्य ,तेज व  चलने की रफ्तार अभी भी जेहन में बैठी है। तभी तो अटल विहारी वाजपेई जी ने उन्हे 'दुर्गा' की उपाधि दे राखी थी। इतना तो कहूँगा कि जब तक वह थीं भारतीय राजनीति में  एक सितारे  की भांति चमकती रहीं ।

खैर साहब वहाँ से निकाल कर हम लोग प्रचार स्थल पर गए,चुनावी भाषण सुना, क्या बोलीं ,पता नहीं। घर लौटने में रात हो गई । इधर मेरे अम्मा-बाबू इतनी देर तक घर न पहुचने पर परेशान थे, तभी किसी ने बताया कि मैं तो इन्दिरा  जी को सुनने गया हूँ। यह सुनकर बाबू  बहुत नाराज़ हुए ,और अम्मा से  कहा कि आने पर आज उसे (मुझे)खाना मत देना। हुआ भी वही । देर शाम यही लगभग रात दस बजे घर पहुंचा , पहुँचते ही  तो श्रद्धा के साथ बाबू ने स्वागत (अब आप समझ ही गए  होंगे कि 'वह श्रद्धा'क्या रही होगी) किया । घर में  मुझसे किसी ने बात तक नहीं की , खाना तो दूर। बाद में पता चला कि बाबू को  गुस्सा इस बात पर था कि बिना बताए कहीं क्यूँ गया था। ठीक है  चाचा के साथ गया था, लेकिन बताना तो चाहिए था ,बात सही थी। आप को बता दूँ उसके बाद कहीं भी जाना होता ,तो बता कर ही जाता । दस वर्षों तक बाहर रह कर लिखाई पढ़ाई की ,लेकिन हर जानकारी उनको दे देता था । अब वह लोग रहे नहीं , आप समझ ही रहें होंगे कि अब किसको देता हूंगा। 
(कल एक और प्रधान मंत्री के साथ का ब्यौरा।)

'इंग्लैंड-आयरलैंड' और 'अंटाकर्टिका एक अनोखा महादेश'

किताबें-2 श्रीमती माला वर्मा की दो किताबें हाल ही में मिलीं, 'इंग्लैंड-आयरलैंड' और 'अंटाकर्टिका एक अनोखा महादेश' ,दोनों ह...