इन्दिरा गांधी , 71 का चुनाव और ............
डॉ प्रदीप श्रीवास्तव
आज जब भी सोचता हूँ तो विश्वास ही नहीं होता कि कभी भारत की लौह महिला कही जाने
वाली देश की तीसरी (वैसे पाँचवी
,दो बार श्री गुलजारी लाल नन्दा कार्यवाहक प्रधान मंत्री रह चुके थे) प्रधान मंत्री श्रीमति इन्दिरा जी के साक्षात दर्शन
किए था।
बात सन 1971की है ,देश में पांचवा आम चुनाव हो रहा था ,तब तक कांग्रेस पार्टी भी दो भागों में विभाजित हो चुकी थी । एक थी कांग्रेस
(ओ ) तथा दूसरी थी
कांग्रेस (आर),जिसे इन्दिरा कांग्रेस के नाम से जाना जाता था। जिसका
चुनाव चिन्ह था 'गाय और बछड़ा'। जबकि पुरानी कांग्रेस का वही पुराना चुनाव चिन्ह था 'दो बैलों की जोड़ी '। सन 1967 के चुनाव के बाद से ही पुराने कांग्रेसियों को इन्दिरा
जी कुछ पाच नहीं रही थीं। ये व सभी लोग थे नेहरू जी के पुराने साथी थे। जीनामे प्रमुख
थे मोरारजी देसाई एवं कामराज जी। क्यों कि उस चुनाव (1967) में इन्दिरा जी ने कांग्रेस के सिंडीकेट का सुपड़ा साफ कर सत्ता पर काबिज हुई थीं। जिसे वे लोग
पचा नहीं पा रहे थे। जिसके चलते 12 नवंबर 1969 को सिंडीकेट कांग्रेस ने उन पर पार्टी में अनुशासन हीनता का आरोप लगते हुए पार्टी
से बाहर कर दिया था।
पार्टी से बाहर किए जाने के बाद उनकी
बोखलाहट देखने वाली थी। तब इन्दिरा जी ने न आव देखी न ताव ,उर एक नई पार्टी गठन कर दिया। जिसका नाम दिया कांग्रेस (आर)। उस समय कांग्रेस (ओ) का एक मात्र लक्षय था इन्दिरा जी को सत्ता से हटाना
,लेकिन इन्दिरा जी ने दूर दृष्टि अपनाते हुए अपने पार्टी का उस चुनाव में मुख्य मुद्दा बनाया था देश से 'गरीबी हटाओ' का। जिसका परिणाम यह निकाला कि 1971 के पाचवें आम चुनाव में 'गरीबी हटाओ' के नाम पर उन्होने 545 लोक सभा की सीटों में से 352 सीटों पर सीधा कब्जा कर लिया, उनके विरोधियों को मुह की खानी पड़ी । इस चुनाव में भारतीय जनसंघ को भी बहुत नुकसान उठाना पड़ा था।
167 के चुनाव में उन्हें 35 सीटें मिली थीं,जबकि इस चुनाव में वह घट कर 23 पर ही सिमट गई। कांग्रेस (ओ)को केवल 16 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा था।
सन 1971 का वर्ष दो मायनों में भी उल्लेखनीय था, पहली तो इन्दिरा जी की भरी जीत,और दूसरी भारत -पाकिस्तान युद्ध में पूर्वी पाकिस्तान को कब्जे में
लेकर 16 दिसंबर को बांग्लादेश का निर्माण कर स्वतंत्र देश बनाना ।
एक बात और इस चुनाव में इन्दिरा जी पहली बार अपने नए चुनाव चिन्ह 'गाय और बछड़ा ' पर चुनाव लड़ा था,जबकि कांग्रेस (ओ0 का चुनाव चिन्ह वही पुराना था 'दो बैलों की जोड़ी'। 18 मार्च 1971 को इन्दिरा जी ने स्वतंत्र भारत के
तीसरे प्रधान मंत्री पद की शपथ ली थी।
हाँ ,तो यह थी पृष्ठभूमि । अब आएं मुख्य
बात पर ।सन 1971 का चुनाव था इन्दिरा जी अपनी पार्टी के लिए तूफानी चुनाव प्रचार में लगीं थी
,उसी के तहत वह फ़ैज़ाबाद(अब अयोध्या) भी आईं। उनकी जनसभा शहर के पश्चिमी छोर पर स्थित
कण्टोमेंट के मैदान पर थी ,उनकी पार्टी के प्रत्याशी थे पूर्व सांसद राम कृष्ण
सिन्हा । चुनाव प्रचार के लिए फ़ैज़ाबाद पाहुचने में काफी विलंब हो चुका था। उन दिनों
मेरे छोटे चाचा श्री डी पी श्रीवास्तव , जो पी डब्लू
डी में थे, सो उनकी ड्यूटी फ़ैज़ाबाद के हवाई अड्डे पर थी । उन्होने अपने बच्चों यानि मेरे
चचेरे भाई बहन को लाने के लिए घर पर गाड़ी भेजी थी। वह लोग उसमे जा रहे थे ,तभी रास्ते में मैं उन्हें दिख गया ,और मुझे भी अपने साथ ले लिया । प्रधान मंत्री को देखने जाना ,यह बड़ी बात थी। उस समय शायद में छठवीं
कक्षा में रहा हूंगा । खैर साहब मैं
भी उन के साथ हो लिया । नाका हवाई अड्डे पहुंचे
। सारा सरकारी तामझाम ,सुरक्षा के कड़े प्रबंध। मैं ,मेरा छोटा भाई राकेश एवं चोटी बहन रेखा ,वी आई पी गाड़ी से वहाँ गए थे,इस लिए हम लोगों को हवाई अड्डे के अंदर तक ले जाया गया । हलकी सी स्मृतियों में है कि कुछ समय बाद ही हवाई अड्डे के भीतर हलचल तेज
हुई , तब बालपन या यूं कहें बालमन था। जब तक कुछ समझ पता
तब तक भारत सरकार का एक विमान हवा में उड़ता दिखाई दिया। चारों ओर शोर मच गया कि इन्दिरा जी का विमान आ गया। कुछ ही पलों
में हवाई जहाज हवाई अड्डे पर । उस दिन पहली
बार हवाई जहाज को इतनी नजदीक से देखा था ।
इसी बीच अपनी चीर परिचित पारंपरिक मुस्कराहट के साथ इन्दिरा जी हवाई जहाज से
नीचे उतरी, किन लोगों ने उनका स्वागत किया ,इस बारे में कोई जानकारी नहीं है। वहाँ उपस्थित सभी लोग एक कतार से खड़े हो गए, चाहे वे बड़े रहे हों या फिर बच्चे । इन्दिरा जी अपने
प्रोटोकाल के तहत हवाई अड्डे पर खड़े सभी लोगों का अभिवादन स्वीकारते हुए आगे बढ़ती जा
रही थी,वहाँ खड़े लोग (उस समय के नामी -गिरामी लोग रहे होंगे) उनका माला पहना कर स्वागत व अभिवादन कर रहे थे, इन्दिरा जी अपने हाथों से गले की माला उतरतीं और वहाँ आए बच्चों के गले में डाल देती। उसी शृंखला में जब हम सब के
पास पहुंची तो अपने गले की मालाओं को निकाला और हम तीनों भाई बहनो के गले में भी डाल
दिया। आज भी वह दृश्य रह-रह कर आँखों के सामने घूम जाता है । उस समय मन तो
बालपन का ही रहा ,लेकिन उनके चेहरे का लावण्य ,तेज व चलने
की रफ्तार अभी भी जेहन में बैठी है। तभी तो अटल विहारी वाजपेई जी ने उन्हे 'दुर्गा' की उपाधि दे राखी थी। इतना तो कहूँगा कि जब तक वह
थीं भारतीय राजनीति में एक सितारे की भांति चमकती रहीं ।
खैर साहब वहाँ से निकाल कर हम लोग प्रचार स्थल पर गए,चुनावी भाषण सुना, क्या बोलीं ,पता नहीं। घर लौटने में रात हो गई । इधर मेरे अम्मा-बाबू इतनी देर तक घर न पहुचने पर परेशान थे, तभी किसी ने बताया कि मैं तो इन्दिरा
जी को सुनने गया हूँ। यह सुनकर बाबू
बहुत नाराज़ हुए ,और अम्मा से
कहा कि आने पर आज उसे (मुझे)खाना मत देना। हुआ भी वही । देर शाम यही लगभग रात
दस बजे घर पहुंचा , पहुँचते ही
तो श्रद्धा के साथ बाबू ने स्वागत (अब आप समझ ही गए होंगे कि 'वह श्रद्धा'क्या रही होगी) किया । घर में मुझसे किसी ने बात तक
नहीं की , खाना तो दूर। बाद में पता चला कि बाबू को गुस्सा इस बात पर था कि बिना बताए कहीं क्यूँ गया
था। ठीक है चाचा के साथ गया था, लेकिन बताना तो चाहिए था ,बात सही थी। आप को बता दूँ उसके बाद कहीं भी जाना होता ,तो बता कर ही जाता । दस वर्षों तक बाहर रह कर लिखाई पढ़ाई की ,लेकिन हर जानकारी उनको दे देता था । अब वह लोग रहे नहीं , आप समझ ही रहें होंगे कि अब किसको देता हूंगा।
(कल एक और प्रधान मंत्री के साथ का ब्यौरा।)
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