डॉ प्रदीप श्रीवास्तव
लगभग बीस साल पहले स्व चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’जी की सौ साल पुरानी एक कहानी पढ़ी थी जिसका शीर्षक था”तेरी कुड़माई हो गई क्या? जिसकी संरचना आज तक मेरे मस्तिष्क अपनी अमिट छोड़ राखी है । इन दिनों पूरा विश्व एक गंभीर आपदा से जूझ रहा है ,सो मुझे भी घर में रहना ही है। समय भी काटना है, जिसे काटने का सबसे सुंदर तरीका है ,अन्य कामों के साथ पुस्तकें,कहानियाँ पढ़ना । कल यानी 28 मार्च ,दिन शनिवार की अल-सुबह नींद खुल गई ,काफी देर तक लेटा रहा । फिर मोबाइल उठाया और फेसबुक खोल लिया , तभी एफबी के वाल पर किसी की एक कहानी पर निगाह पड़ी ,दो लाइने ही पढ़ी थी कि इतनी अच्छी लगी की पूरा पढ़ डाला । कहानी का शीर्षक याद नहीं ,क्यों कि उसके बाद वह एफबी के वाल पर कहाँ गुम हो गई ,पता ही नहीं चला ,बहुत खोजा पर मिली नहीं। खैर साहब आप भी सोच रहे होंगे कि इसमे कहने वाली क्या बात है ,सही भी है आप का कहना। पर बात है । कहानी की पृष्ठभूमि ही ऐसी है । जिसका लबोलुआब कुछ इस तरह है ।एक युवती रक्षाबंधन में अपनी परमपराओं को निभाने दिल्ली में रह रहे भाई के कलाई में रक्षाबंधन बांधने पास जाती है,भाई-भाभी सम्पन्न है । दूसरे दिन वह वहाँ (दिल्ली)से अपने घर लौटती है ,दिल्ली रेलवे स्टेशन पर पहुँचती है,और कानपुर जाने वाली पहली गाड़ी का साधारण क्लास का टिकट लेती है ,और जर्नल डिब्बे में सवार हो जाती है ,त्योहारों पर भीड़ इतनी होती है कि वह अपना रिज़र्वेशन शायद नहीं करा सकी होगी? गाड़ी चलाने को होती है तभी एक सज्जन (यही कहना उचित होगा) आते हें और उसके बगल में बैठ जाते है। वह युवती उसे देख कर चौंकती है,लेकिन कनखी से उसे देखती रहती है। सोचती है क्या वह उसे पहचान नहीं रहा है या फिर न पहचानने का नाटक कर रहा है? इसी उधेड़ बुन में गाड़ी एक लंबा सफर तय कर लेती है,इसी बीच वह अपनी सीट पर अपना हैंड बैग रख कर टाइलेट चली जाती है,जब वह लौटती है तो देखती है कि खिड़की वाली सीट पर उसका बैग हटा कर वह सज्जन बैठ गए हैं । लेकिन वह कुछ बोलती नहीं ,थोड़ी देर बाद वही सज्जन अपनी सफाई देते हुए उससे कहते हैं कि गर्मी अधिक लग रही थी इसी लिए इधर बैठ गया हूँ। फिर भी वह युवती कुछ नहीं बोलती,और मन में सोचती रहती है कि क्या वाकई वह उसे नहीं पहचान रहा है। तभी टिकट चेकर आ जाते हैं ,युवती अपना टिकट उन्हें दिखती है । जब टिकट चेकर उससे टिकट मांगते हैं तो वह बोल पढ़ता है कि टिकट नहीं है? इस पर टिकट चेकर फ़ाईन सहित टिकट बनाने की बात कहता है ,जिस पर वह सज्जन कहते हें कि जितना भी लगता है ,लगे । बना दीजिये। टिकट चेकर स्टेशन का नाम पूछता है तो वह बोलदेता है कानपुर तक का। टिकट देकर वह चला जाता है। इधर कानपुर का नाम सुनकर युवती और परेशान हो उठती है, कि हो या न हो यह जरूर न पहचानने का नाटक कर रहा है। गाड़ी अपनी रफ्तार से दौड़ती रहती है । गाड़ी की गति से युवती के मन की गति बढ़ती जाती है, वह खुद पहल कर उससे पूछती है कि ,क्या आप भी कानपुर में रहते हैं ? इस पर उनका कहना होता है कि नहीं । वह फिर पूछती है तो फिर घूमने जा रहे होंगे,इस पर फिर वही उत्तर उसे मिलता है कि नहीं? वह चौंकती है ,और पूछ पढ़ती है तो फिर क्यूँ जा रहे हैं ? इस पर उसका सीधा सा जवाब होता है ,आप को छोड़ने । इतना सुनते ही उस युवती शरीर में एक कंपन्न सी होती है,और पूछ बैठती है क्यूँ,मुझे क्यों छोड़ने जा रहे है,में तो न आप को और न ही आप मुझे जानते हैं ,फिर क्यूँ?इस पर वह सज्जन पूछ बैठते हैं कि आप दिल्ली क्यूँ आई थीं ,इस पर वह उन्हें दिल्ली आने का प्रयोजन बताती है। इस पर वह कहते हैं कि क्या भाई कानपुर छोड़ने नहीं आ सकते थे । जिस बात प्रा वह युवती कोई बहाना बना कर टाल देती है।
बातों का सिलसिला चल पड़ता है। आखिर वह पूछ पढ़ती है कि उसे कैसे पता कि वह कानपुर ही जा रही है ,इस पर वह सज्जन बताते कि जब वह टिकट चेकर को अपना टिकट दिखा रही थी तो उसने उस पर कानपुर पढ़ लिया था । इस पर उसने पूछा कि आप ने पहचाना मुझे ,जिस पर वह सज्जन बोले कि मैं ने तो दिल्ली में ही पहचान लिया था ,दिल्ली से ड्यूटी पर जा रहा था तो देखा कि आप अकेली कहीं जा रही हैं तो आप के साथ हो लिया कि जमाना कितना खराब है उस पर आप अकेली जा रही हो,सोचा कि जहां तक जा रही हैं तो वहाँ तक छोड़ आता हूँ। अपना समान अपने सहयोगियों के हवाले कर दिया और आप के साथ चला आया। इतने में गाड़ी कानपुर पहुँच चुकी थी , वे गाड़ी से उतरे और उन सज्जन ने उसे उसके घर तक छोड़ा ,घर पहुँचने के बाद उस युवती ने घर के अंदर आने और चाय पीने का बहुत आग्रह किया ,लेकिन अगली बार आने का आश्वासन दे कर चला गया । एक सप्ताह बीतने के बाद एक दिन अचानक अखबार के एक समाचार पर उसकी नज़र पड़ी तो हवाक रह गई, उसके दोनों नेत्रों से गंगा-यमुना की अविरल धारा बह चली ,काफी देर बाद अपने को संयम किया, खबर थी सीमा पर दुश्मनों के साथ देश की रक्षा के लिए मेजर …. शहीद हो गाए । इसके बाद उसके मन में छात्र जीवन की गतिविधियां चलचित्र की भांति चल पड़ी । जब वे दोनों साथ-साथ पढ़ते थे ,किस तरह वह उसके प्यार के लिए दीवाना था,परंतु कभी भी अपनी सीमा को नहीं लांघा। इस बीच उसके पिता जी का कहीं और तबादला हो गया ,और परिवार वालों ने उसका हाथ कहीं और पीले कर दिये। इसे ही तो कहते हैं “निश्चल प्रेम”।
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