सोमवार, 13 अप्रैल 2020

70-80 का दशक था पत्र-मित्रता का


डॉ प्रदीप श्रीवास्तव
कुछ वर्षों पहले मेरी एक मित्राणी (दोस्त ) ने रोमानिया से एक कार्टून भेजा था  ,जिसमे दो उम्र दराज लोगों को नेट सर्फिंग करते हुए दिखाया है | मजे क़ी बात यह है कि दोनों लोग ही यह सोच कर सर्फिंग कर रहे हैं कि वे नेट पर किसी युवा के साथ चैटिंग कर रहे हैं ,पर दोनों लोग बुजुर्ग हैं । |इस कार्टून को देखने के बाद मेरे  जेहन में एक बात आई कि आज बदलती टेक्नालोजी के इस दौर में हमारी मानसिकता भी कितनी बदल रही है |हम आज भी अपने को युवा देखने क़ी चाह में अपने  सारे बन्धनों को तोड़ने पर विवश हो रहे हैं क्यों ? मित्रता करना कोई गलत बात नहीं है ।
  तीन से चार दशक पहले यानि सन 70 व 80 के दशक में भी एक दौर था मित्रता का। तब उसे नाम दिया गया था pen friendship अर्थात पत्र मित्रता । शायद सदी का स्वर्णिम युग कहा जा सकता है उस दौर को । जब लोग एक-दूसरे को बिना-जाने व समझे दोस्त बन जाया करते थे । जिसमें स्वस्थ मानसिकता की बात होती थी । जहां तक मैं समझता हूँ इन लाइनों को पढ़ने वालों में से आप ने भी जरूर पत्र-मित्रता की होगी। यह बात मैं  डंके के चोट पर कह सकता हूँ । क्यों कि वह दौर ही ऐसा था।
70-80 के दशक में दोस्त बनाने का तरीका भी बहुत सरल होता था। क्यों कि उन दिनों देश में कुछ ही पत्र-पत्रिकाएँ निकलती थीं । जिनमें प्रमुख थीं धर्मयुग ,साप्ताहिक हिंदुस्तान ,(यह सब पारिवारिक पत्रिकाएँ होती थीं ,जो लगभग हर दूसरे घर में पाईं जाती थीं।)। राजनीति में रुचि लेने वाले दिनमान पढ़ते थे । फिल्मी पत्रिकाओं में माधुरी,मायापुरी (हिन्दी) एवं अँग्रेजी में फिल्म फेयर । इन पत्रिकाओं में से एक पत्रिका हर हिन्दी भाषी परिवार में जरूर पाई जाती थी।
    बच्चों का अपना संसार होता था ,उनके अपने खेल होते थे ,आज की तरह मोबाइल व कंप्यूटर तो होता नहीं था। जिस बच्चे में परिवार वालों को जरा सी भी पढ़ने-लिखने की ललक दिखाई देती, उसके घर वाले उसे बाल  पत्रिकाएँ जरूर उपलब्ध करवाते । वे पत्रिकाएँ थीं चंपक, चंदामामा,पराग एवं मधु मुस्कान आदि। जिसको पढ़ने की ललक लगभग हर बच्चे में होती थी। जब पढ़ते थे तो उनमें कुछ लिखने की ललक भी होती। जब लिखा तो सोचते कि अगर मेरी यह रचना कहीं छप जाए फिर क्या बात ? कुछ लोगों कि छपती भी थी। छपने के बाद लिखने की ललक भी बढ़ती जाती। चलते-चलते यह भी बताता चलूँ कि उस दौरान की पत्रिकाओं में तो बच्चों का कम से कम एक पन्ना तो होता ही था,वहीं साप्ताहिक ,पाक्षिक पत्रिकाओं में भी बच्चों का पूरा ख्याल रखा जाता था ।
   उन दिनों चंपक, चंदामामा,पराग एवं मधुमुस्कान आदि पत्रिकाओं में पेन-फ्रेंड का एक कालम भी छपता था। जिसमे देश के कोने-कोने में रहने वाले पाठकों की फोटो के साथ उनका पता,रुचि उम्र भी छपी होती थी। जिसे पढ़ कर बच्चा अपने हम उम्र को पोस्ट कार्ड लिख कर दोस्त बनाते । यही दोस्ती घनिष्ठता में बदल जाती । बाद में लोकप्रियता को देखते हुए कुछ अँग्रेजी की पत्रिकाओं में भी छपने लगा , जिससे उस समय के युवाओं में भी रुचि बढ़ी।
     तब मित्रता के पीछे कोई लाग-लपट नहीं होते थे। उस दौरान मैं ने  भी कई पत्र-मित्र बनाए थे ।उनमें से काइयों का तो पता नहीं ,फिर भी कुछ लोग आज भी संपर्क में हैं । उन दिनों के मित्रों में आज एक मित्र देश के एक बड़े अखबार के प्रधान संपादक भी हैं , तो एक मित्र ने  विभागाध्यक्ष पद से हाल ही में अवकाश ग्रहण किया है। खैर साहब उन दिनो जब दोपहर  में पोस्ट मैन आ कर कोई पोस्ट कार्ड या अंतर्देशीय पत्र देता तो उस वक्त की खुशी को व्यक्त नहीं किया जा सकता। घर में घुसते  ही अम्मा से पूछते कोई चिट्ठी आई है क्या?  किसी -किसी दिन तो अम्मा सामान्य सा जवाब देतीं कि आई है ,उधर मेज़ पर रखी है, लेकिन किसी-किसी दिन खीज कर कहतीं ,हाँ उस डाइन की आई है । इसका भी एक कारण था कि मेरे दोस्तों की सूची में अधिकांश महिला मित्र ही रहीं होंगी ,जिनका  उल्लेख सांकेतिक रूप में आगे करूंगा । हाँ तो कह रहा था कि कभी-कभी अम्मा का गुस्सा भी फूट पड़ता था, धमकाते हुए कहती थीं कि आने दो तुम्हारे बाबू को ,सब बताती हूँ उन्हे ,कि कितना पढ़ाई में मन लगा रहे हो। इस पर उन्हें मनाने का प्रयास करता ,उनके पैर भी दबाता …. आखिर माँ तो माँ ही होती है,मान भी जाती थीं ।
   मित्रों की सूची में बिहार , मध्य प्रदेश, राजस्थान, पश्चिम बंगाल आदि के साथ-साथ हंगरी नेपाल के भी मित्र होते थे। लेकिन कुछ ही मित्रों से अधिक दिनों क्या,सालों  तक पत्रव्यवहार भी चला । काफी घनिष्ठता भी हो गई । मेरी एक मित्र पटना से थीं, किस पत्रिका के माध्यम से दोस्ती हुई थी पता नहीं ,लेकिन इतना याद है कि सन 1978 में दोस्ती हुई थी जो सन 1986 तक चली,उसके बाद नौकरी में जो लगा तो सब कुछ इधर -उधर हो गया । वैसे इस दोस्ती को परिवार के अधिकांश लोग जानते भी थे, रह-रह कर मज़ाक भी उढ़ाया करते । मेरे एक मामा -मामी थीं (जो अब इस दुनिया में नहीं हैं), वह अक्सर अम्मा से कहती कि जिया  (अम्मा को) इसका (मेरा नाम लेकर)  ब्याह उस पटना वाली से क्यों नहीं कर देतीं ।इस पर अम्मा बड़े गर्व से कहतीं कि वहीं होगा ,जहां मैं चाहूंगी। इसका एक कारण भी था कि अम्मा के विश्वास को ठेस नहीं पहुंचाना चाहता था । उसके पीछे भी कई कारण थे,जिसका उल्लेख नहीं कर सकता । बातों -बातों में मैंने अम्मा से कह रखा था कि आप जहां चाहोगी वहीं करूंगा । इस बात को मैं ने गर्व के साथ निभाया भी। इसके अलावा अपनी दोनों बहनों एवं छोटे भाई को अधिकार दे दिया था कि आप लोग जहां चाहो कर देना । हुआ भी वही 1986 में बनारस से प्रकाशित हिन्दी दैनिक आज से नौकरी शुरू की । नौकरी के चक्कर में , युवा मन था उछल-कूद मचाते हुए कई प्रदेशों में काम  किया। उधर व्यस्तता के चलते पत्र व्यवहार में दूरिया बढ़ती गईं । लगभग समाप्त सी हो गई। यहाँ पर एक बात और बताता चलूँ कि 1992 के शुरुवात में जब मेरी इंगेजमेंट हुई तो मैं उस समय गुरुग्राम (तब वह गुड़गाव कहलाता था।)में जनसंदेश अखबार में कार्यरत था । यह जानकारी तो मुझे तब पता चली जब में 26 जनवरी के अवकाश में घर पहुंचा ।तो इस बात को बताया गया कि तुमहार शादी तय कर दी है , 27 फरवरी को होना निश्चित हुआ है ।  इस साहस के लिए मैं अपनी पत्नी के आत्म संबल का भी दाद देता हूँ, जिन्हों ने बिना मुझे देखे अपनी स्वीकृति दे दी थी, आज का समय होता तो शायद यह संभव ही नहीं होता । लगता है शायद बहक रहा हूँ …
   हाँ तो बात पटना वाली मित्र की कर रहा था , इसके पीछे भी एक मज़ेदार घटना मेरे साथ घटी ,जिसका उल्लेख भी जरूरी समझता हूँ। पत्रव्यवहार के सिलसिले को लगभग पाँच साल तो हो ही गाये थे, इधर बनारस में ही बी ए तथा एम ए भी कर चुका था, अब बच्चा तो रहा नहीं , बड़ा हो चुका था। नौकरी की तलाश शुरू हो चुकी थी, बाबू (पिता जी ) चाहते थे कि सरकारी नौकरी में जाऊँ । उसके लिए रेलवे ,बैंक के साथ-साथ प्रदेश की अधीनस्थ सेवाओं की भी परीक्षाएँ देने लगा । उसी दौरान बिहार संघ लोक सेवा आयोग का फार्म भरा , सेंटर पड़ा बिहार शरीफ (नालंदा जिला का मुख्यालय)। तब तो फोन आदि हुआ नहीं करते थे ,पत्र द्वारा मित्र को सूचित किया कि फलां तारीख को पटना आ रहा हूँ ,वहाँ से बिहार शरीफ जाना है, सप्ताह भर बाद उत्तर आया कि प्रदीप जाते समय कुछ समय के लिए घर भी आओ ,सभी लोग मिलना चाहते हैं । अब तारीख तो याद नहीं है ,लेकिन निर्धारित दिन पटना पहुंचा। पहली बार फ़ैज़ाबाद/बनारस के बाहर निकाला था, यात्रा भी अकेले की थी। खैर साहब पटना पहुंचा , सामान स्टेशन के रिटायरिंग रूम में जमा किया। और निकल पड़ा मित्र से मिलने गंतव्य की ओर । रिक्शे वाले से बात की ,वह लेकर चल पड़ा । पता पूछते-पूछते कदम कुआं पहुंचा। जो पता मेरे मित्र का था उसी से मिलता जुलता पता स्व फणीश्वर नाथ रेणु जी का भी था, उनका निधन काफी पहले हो चुका था। उस घर में उनकी दूसरी पत्नी लतिका रेणु जी रहती थीं। दोपहर का समय था, रिक्शा वाले ने कहा कि यही मकान है । मैं रिक्शे से उतर कर वहाँ पहुँच और दरवाजा खटकाया , थोड़ी देर में सफ़ेद खद्दर की धोती में एक महिला निकली , जिनसे मैं ने मित्र के परिवार के बारे में जानकारी जाननी चाही तो उन्हों ने पता देख कर कहा कि यह यहाँ का नहीं है , तुम राजेन्द्र नगर चले जाओ, वहाँ पर रोड नंबर आठ पूछ लेना ,बता देंगे ,जिनका पता यह है वह पटना यूनिवर्सिटी में होते थे …….. । में वापस होने के लिए मुड़ा ही था कि लतिका जी ने कहा रुको, इतनी धूप में आए हो, ठंडा पानी पी कर जाओ। में ने एक गिलास पानी पीया और मित्र के घर की ओर रवाना हो गया । (इस बात का उल्लेख इस लिए कर रहा हूँ कि इस वर्ष स्व फणीश्वर नाथ रेणु जी की जन्म शताब्दी मनाई जा रही हे।)
    सूरज देवता ठीक सर के ऊपर ,घर खोजते-खोजते गंतव्य तक पहुँच ही गया ,जहां मित्र के घर वाले इंतज़ार भी कर रहे थे । क्यों कि दोपहर का खाना भी बना रखा था। खैर साहब खाना खाया ,देर शाम तक परिवार वालों के साथ बातें भी होती रहीं। सुबह नालंदा में बीपीएससी की परीक्षा भी देनी थी। सो वहाँ से चल कर देर रात नालंदा पहुंचा । इस तरह से आना जाना बराबर बना रहा । हम लोग घनिष्ठ मित्र भी हो गए थे। उस समय कुछ ही शिक्षा संस्थानों में होम साइंस में स्नातक पाठ्यक्रम होते थे, उसने पटना महिला महाविद्यालय से होम साइंस में आनर्स ले लिया था । इधर बनारस हिन्दू विश्व विद्यालय में भी होम साइंस में आनर्स था ही । किताबों की जरूरत होती तो मुझे पत्र से सूचित करती, मै बीएचयू से जुगाड़ (यही कहूँगा,क्यों कि वहाँ मेरे परिवार का तो कोई होम साइंस से पढ़ नहीं रहा था। मैं काशी विध्यापीठ  में छात्र राजनीति करता था) कर उसे उपलब्ध कराता । फिर भी समस्या यह थी कि पटना तक पहुंचाई कैसे जाय। कभी रजिस्टर्ड डाक से भेज देता,लेकिन वह बहुत महंगा पड़ता था उन दिनो ,ऊपर से बेरोजगार तो था ही ,नौकरी खोजी ही जा रही थी। बाबू के पास भी तो इतना नहीं था कि जेब खर्च के नाम पर कुछ मिलता रहा हो। मित्र थी तो किताबें पहुचना भी था । काशी विध्यापीठ (जिसके आगे अब महात्मा गांधी जी का नाम जोड़ दिया गया है।) मेरे एक सहपाठी थे , जिनके पिता जी उन दिनों पटना के सर्वोच्च पुलिस अधिकारी थे । वह या उसके परिवार के लोग अक्सर आया-जाया करते थे , जिनके माध्यम से बाद में भेजने लगा । लेकिन इसके बदले में वह मित्र बराबर हर साल एक स्वेटर बीन कर भेजती रही ,  जिसे मैं चाव के साथ पहनता भी था। फिर तो यह सिलसिला चलता ही रहा । मित्र की बड़ी बहन की शादी का निमंत्रण आया तो उसमे भी में शामिल हुआ। उसके साथ अंतिम मुलाक़ात मेरी तब हुई थी जब 1989 में मैं गुवाहाटी के एक दैनिक अखबार को छोड़ कर पटना होते हुए दिल्ली दूसरे अखबार में जा रहा था। स्टेशन पर उसके साथ भाई,बहन सभी मिलने आए थे,यहाँ तक कि रास्ते का खाना भी दिया था ,क्यों कि ट्रेन दूसरे दिन सुबह दिल्ली पहुचने वाली थी। बस वही अंतिम मुलाक़ात कही जा सकती है। क्यों कि उसके बाद में अपने घर गृहस्थी में मसगूल हो गया , और वह अपने । मुलाक़ात तो नहीं हुई पर वह आज कल बिहार के एक यूनिवर्सिटी में किसी विभाग में विभागाध्यक्ष हैं । संभवत: एक-दो साल में रिटायरमेंट भी हो।
      इसी तरह मेरे एक पत्र मित्र थे जयपुर के । जिनके हाथ की कला देखते बनती थी, वह हर पत्र के साथ एक भवन का स्केच बना कर भेजते । सच बोलूँ गज़ब का होता था वह स्केच । आज अगर वह सम्हाल कर रखा होता तो आलीशान भवन बनवाने वाले को जरूर दे देता। लेकिन समय के आगे किसी की नहीं चली न। काफी दिनो तक पत्रव्यवहार चलता रह,बाद में वह भी बंद हो गया । एक नेपाली मित्र थे,  बिनदेशवर प्रसाद गुप्ता जी। सुनसारी नेपाल के थे , अक्सर बुलाया करते कि आइये घूम जाइए, तब नेपाल मुझे लंदन लगता था। कल ही एक फाईल में उनकी विजय दशमी की शुभकामनाओं की ग्रीटिंग मिल गई। यह बात सन 1978 की है । उनका पता मिला है कोशिश करूंगा उनके बारे में पता करने का । मध्य प्रदेश के इंदौर से एक मित्र थीं ,जिनके मामा का बनारस में काफी बड़ा होटल भी है । काफी दिनों तक पत्राचार चलता रहा ,बाद में वह भी खत्म सा हो गया । हाँ एक मित्र का जिक्र जरूर करना चाहूँगा जो हंगरी की राजधानी बुडापेस्ट से थी , नाम था ब्राजीटा । ब्राजीटा से लगभग पाँच-छह साल तक पत्राचार होता रहा । तब वह देश कितना विकसित रहा होगा यह में आज भी सोचता हूँ। जिस कागज़ पर उसका पत्र होता था ,वह इतना महीन कि लगता था कहीं फट न जाए। लेकिन साहब कितना मजबूत कागज़ होता था ,मैं कह नहीं सकता। उस पर से लिखाई इतनी गजब कि की पूछिये मत। तब वह अक्सर कुछ न कुछ पत्र में भेजती रहती थी । मसलन नेम प्लेट आदि। इतना महीन की क्या बताऊँ , काफी दिनों तक था वह मेरे पास।
   अब जाने दीजिये जनाब ,आप भी बोर हो रहें होंगे । पर इतना तो मानना ही होगा कि वह दोस्ती वास्तव में दोस्ती होती थी जिसमे किसी प्रकार का स्वार्थ नहीं होता था । जिसे निःसन्देह मित्रता कही जा सकती है । अगली बार कुछ और अनुभवों के साथ।

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