काशी के नाचघर की परिकल्पना चित्रकार द्वारा
जानकी मंगल में लक्ष्मण बने थे भारतेन्दु हरिश्चंद्र
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डॉ प्रदीप श्रीवास्तव
मिले दस्तावेजों के मुताबिक 3 अप्रैल सन् 1868 को पं. शीतला प्रसाद त्रिपाठी रचित ‘जानकी मंगल’ नाटक का अभिनय ‘बनारस थियेटर’ में आयोजित किया था। कहते हैं कि जिस लड़के को लक्ष्मण का अभिनय पार्ट करना था वह अचानक उस दिन बीमार पड़ गया ।तब लक्ष्मण के अभिनय की समस्या पैदा हो गई। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि यदि उस दिन भारतेन्दु हरिश्चंद्र स्थिति को न सँभालते तो नाट्यायोजन स्थगित करना पड़ता। भारतेन्दु जी ने एक-डेढ़ घंटे में ही न केवल लक्ष्मण की अपनी भूमिका याद कर ली अपितु पूरे ‘जानकी मंगल’ नाटक को ही मस्तिष्क में जमा लिया । केवल इतना ही नहीं भारतेन्दु जी ने अपने अभिजात्य की परवाह नहीं की। पता हो कि उन दिनों उच्च कुल के लोग अभिनय करना अपनी प्रतिष्ठा के अनुकूल नहीं समझते थे। इस प्रकार इस नाटक से भारतेन्दु ने रंगमंच पर सक्रिय भाग लेना आरम्भ किया। इसी समय-उन्होंने नाट्य-सृजन भी आरम्भ किया। उस समय इंग्लैंड के एलिन इंडियन मेल के 8 मई 1868 के अंक में उस नाटक के मंचन की जानकारी भी प्रकाशित की गई थी । प्रथम अभिनय के विवरण का उल्लेख आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में भी किया है । इसी आधार पर डा.शरद नागर ने ब्रिटिश म्यूजियम,लन्दन से ‘एलेन्स इन्डियन मेल’ के उक्त समाचार की प्रतिलिपि मंगायी और ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित अपने लेख में इस तिथि की पुष्टि की .इसे प्रमाण मान कर 1968 में नागरी प्रचारिणी सभा,काशी तथा हिंदी क्षेत्र की सांस्कृतिक-साहित्यिक संस्थाओं ने हिंदी रंगमंच की शतवार्षिकी मनायी .यह बात अलग है कि हिंदी की बोलियों में लोकनाट्य की परंपरा बहुत पुरानी है. वहीं दूसरी अहम बात यह भी है कि जहां पर इस नाटक को खेला गया था उस जगह की खोज काशी के वरिष्ठ रंगकर्मी स्व डॉ कुँवर जी अग्रवाल ने की थी । इस लिए इसे ही प्रमाणित तिथि मानकर ही इस दिन को हिन्दी रंग दिवस के रूप में स्वीकारते हुए 1968 में :”हिन्दी रंग दिवस शताब्दी “वर्ष मनाया गया था ।
लेकिन दूसरी तरफ कुछ लोग इस मामले पर हस्तक्षेप करते हुए यह भी कह रहे हैं कि सन 1533 में नेपाल के भाटगाँव में “विद्याविलाप “ नमक हिन्दी नाटक खेला गया था। जबकि कुछ लोगों का यह भी कहना हे कि सन 1850 से 1860 के बीच लखनऊ में “इंद्रसभा” और नवाब वाजिद अलीशाह के “किस्सा राधा कन्हैया” का मंचन हुआ था। बताते हैं कि उन्हीं दिनों मुंबई (तब बंबई कहा जाता था)में सांगलीकर नाटक मंडली ने “ गोपीचंदो पाख्यान “ (ओपेरा) का मंचन किया था । बात जो भी हो इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि हिन्दी रंग मंच की शुरुआत काशी(वाराणसी) से हुई थी। यहीं पर शीतला प्रसाद त्रिपाठी और भारतेन्दु हरिश्चंद्र जैसे रंगकर्मी और नाटककार हुए । इसी काशी की भूमि पर “अंधेरनगरी” एवं “जनकीमंगल” जैसे नाटक लिखे गए।
‘एसेम्बली रूम्स एंड थियेटर’ अर्थात नाचघर वाराणसी शहर से लगभग छह किलोमीटर की दूरी पर है । जी छावनी एरिया के अंतर्गत आता है । उस जगह को बाद में ‘बनारस थियेटर ‘ नाम दिया गया था । उसी बनारस थियेटर के बंगला नंबर 25 ए/बी में अब काफी कुछ बदलाव हो चुका है । 80 के दशक तक इस भवन को निजी तोर पर इस्तेमाल किया जा रहा था ,बाद में 90 के दशक में नलकूप विभाग का कार्यालय बना दिया गया । बताते हें कि आजकल एक कालीन निर्माता के आयात-निर्यात का शोरूम बन गया है ।
एक नज़र नाचघर पर :
1868 में जिस जगह पर पहला हिन्दी नाटक घर खेला गया था, वह अंग्रेजों का नाच घर हुआ करता था ,जहां सूरज ढलते ही वे अपनी बीबियों के कमर में हाथ डाले नाचा करते थे। बताते हें की इस इमारत का निर्माण 1814 में हुआ था जो भारत में ब्रिटिश वास्तु कला का दूसरा प्रतीक था । पहला कोलकता के चौरेंगी लेन स्थित नाचघर थियेटर था। काशी के नाच घर की ऊंचाई 32 फीट थी,जिसमें सैकड़ों लोग एक साथ बैठ कर मनोरंजन का आनंद लेते थे। हाल से लगा उनका टेनिस कोर्ट था ,जहां पर अन्य गतिविधियां होती रहती थीं । दस्तावेजों के मुताबिक इस नाचघर में 1890 तक नाटकों का मंचन हुआ करता था।उसके बाद एक नीलामी में वर्तमान दावेदार ब्रज कुमार दास के बाबा जिनका भी नाम ब्रज कुमार दास ही था ,ने ले लिया था । काशी के रंगकर्मियों ,रचनाकारों को चाहिए कि सरकार से इस ऐतिहासिक धरोहर को बचाने का प्रयास करें । नहीं तो आने वाले दिनों में यह भी इतिहास के पन्नों में सिमट कर रह जाएगा ।
वाराणसी में नाटक और मैं :-
मैं ने कभी नाटक तो नहीं खेला ,लेकिन करवाया बहुत , वह भी ऐतिहासिक रूप में । सन 1976 से 1986 तक वाराणसी में शिक्षा के दौरान साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं से काफी जुड़ा हुआ था , जिनकी विभिन्न गतिविधियों में भाग लेता था । इस दस साल के दौरान दो ऐतिहासिक नाटक वाराणसी में खेले गए । एक था जय शंकर प्रसाद जी की “गुंडा”,एवं दूसरा था विजय तेंदुलकर साहब की चर्चित नाटक”बेबी”।
पहले गुंडा की चर्चा : स्वतन्त्रता आंदोलन पर आधारित “गुंडा” नाटक की पृष्ठभूमि वाराणसी के आस-पास की है, जो उस समय के नामी गुंडा नन्हकू सिंह के देश भक्ति पर आधारित थी । जिसक निर्देशन किया था उस समय के ख्यातिप्राप्त रंगकर्मी राम सिंह आज़ाद ने । कलाकारों में थे गोपाल जी ,अमरनाथ शर्मा ,सुरेन्द्र झा ,अरुण शर्मा ,विनय पाठक एवं एक मात्र महिला नेत्री थीं उस समय की सर्वाधिक लोकप्रिय भोजपुरी अभिनेत्री मधु मिश्रा। यह नाटक 1982 के जुलाई माह के प्रथम सप्ताह में नगरी नाटक मंडली में खेला गया था । संस्था थी वसुंधरा ,जिसका मै मंत्री हुआ करता था। बताते हैं कि 1982 के बाद दोबारा इस नाटक का मंचन नहीं हुआ।
बात तेंदुलकर के “बेबी” नाटक की :
बात 1983 की है ,वाराणसी की एक साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था थी “आईना’’ । आईना ने प्रतिष्ठित रंगकर्मी विजय तेंदुलकर के सर्वाधिक विवादित नाटक ‘बेबी’ के मंचन का बीड़ा उठाया । महीनों रिहर्सल हुए , वाराणसी के नगरी नाटक मंडली को खेलने के लिए बुक भी कर लिया गया । नाटक का निर्देशन कर रहे थे युवा निर्देशक जितेंद्र मुग्ध । सारी तैयारियाँ पूरी हो चुकी थी ,बस चार दिन बाद नाटक का मंचन होना था तभी नाट्यकर्मियों को धमकियाँ मिलनी शुरू हो गईं कि मंचन रोक दो नहीं तो हम लोग नाटक की अभिनेत्री का अपहरण कर लेंगे और नाटक नहीं होने देंगे। क्यों कि नाटक में कई दृश्य आपत्तिजनक भी थे। खैर ,आयोजक मेरे पास आए और पूरी बात बताई । उन दिनों में काशी विद्यापीठ की छात्र राजनीति में सक्रिय भी था। मैने उन्हें आश्वासन दिया कि नाटक होगा। मेरे सामने भी एक खुली चुनौती थी कि कैसे इसको करवाया जाय । अचानक दिमाग में एक विचार आया ,और आयोजकों से कहा कि एक कम करो आप लोग। सेना के सबसे वरिष्ठ अधिकारी को मुखय अतिथि बनाओ । उन्होने ने बात मान भी ली और सेना के एक वरिष्ठ अधिकारी को निमंत्रित भी कर दिया । निमंत्रण पत्र पर उनका नाम भी छाप गया ,साथ ही यह निर्देश भी की बिना निमंत्रण प्रवेश नहीं होगा। उधर नाटक वाले दिन उन अधिकारी महोदय से मिलकर सारी जानकारी दे दी थी और उनसे आग्रह किया था कि आप आने से थोड़ा पहले अपने जवानो को भेज दें ,जिससे वे केवल गेट पर खड़े हो जाएंगे । हुआ भी वही , सेना के जवानों को गेट पर देख कर बिना निमंत्रण वालों को प्रवेश नहीं मिला। समय पर सफलता के साथ नाटक का मंचन हो गया। कहीं कोई रुकावट नहीं आई। नाटक के कलाकार थे अतुल कुमार माला,गोपाल आदि। ये दो नाटक ऐसे थे जिसका मंचन (मेरी जानकारी मै) आज तक वाराणसी में नहीं हुआ ।
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