बनारस नामा-5
आगे बढ़ने से पहले बताता चलूँ की काशी विद्यापीठ में मुझे लोग प्रदीप कुमार (शैक्षणिक दस्तावजों में मेरा यही नाम अंकित है) के नाम से न जान कर 'गांधी' के नाम से जानते थे . आज भी जो पुराने मित्र व शुभचिंतक हैं ,वे इसी नाम से बुलाते हैं . यह नाम भी उन्हीं विद्यापीठ वाली 'ठकुराइन चाची' ने दिया था.उन दिनों मैं बहुत दुबला-पतला हुआ करता था. उस पर से गोल फ्रेम का ऐनक (चश्मा) भी लगता था.कपड़ा मुझ पर नहीं ,शायद मैं कपडे पर टिका होता था. इसलिए चाची ने यह उपनाम दिया होगा. ख़ैर ....
बात 1983-84 की है, विद्यापीठ के प्रांगण में महिला छात्रावास के सामने एक गड्ढा खोदा जा
रहा था,जिसको लेकर सभी मैं उत्सुकता थी कि आखिर इसे क्यों खोदा जा रहा है.
बाद में पता चला कि उस गड्ढे में कोई पायलट बाबा समाधि लेने वाले हैं ,वह
भी विद्यापीठ परिसर मैं ,जिसका विरोध छात्र संघ के पदाधिकारी भी
कर रहे थे. उन दिनों विद्यापीठ के वित्त अधिकारी हुआ करते थे दशरथ नारायण शुक्ल जी.
वह बाबा पायलट के अनन्य भक्त थे. बाबा पायलट बनारस आये और शुक्ल जी के घर पर ही रुके,जहाँ
तक मुझे याद आ रहा है कि यह बात नवम्बर 1983 के पहले सप्ताह की रही होगी. जवानी का
जोश,उस पर पत्रकारिता का कीड़ा साथ–साथ परिसर में छात्र राजनीती में सक्रियता
भी.मन मैं कचोट उठ रही थी की बाबा से इंटरव्यू किया जाये, वित्त अधिकारी जी सख्त मिजाज़ वाले,लिफ्ट देने का सवाल नहीं,कौन
जाये उनके पास यह बात भी थी.
उन दिनों मैं अयोध्या से प्रकाशित एक
हिंदी साप्ताहिक ‘प्रेस युग’ के लिए वाराणसी से संवाददाता के
रूप में (फ़ोकट में) काम करता था. अख़बार से बस समाचार लिखने
के लिए लेटर पैड मिलाता था ,जिस पर ऊपर ही अख़बार के नाम के साथ उसके
नीचे ब्रेकेट में लिखा होता था (केवल समाचारों के लिए), मतल आप उस पर खबरें ही लिख सकते थे,अपनी सहेली (महिला मित्र,क्यों
कि पुरुषों को कौन लिखता था/है) को नहीं.कुलपति थे डॉ.डी.एन.चतुर्वेदी साहब, उनके बेटे भी हमें पढ़ाते थे. किसी मित्र ने सलाह दी कि उन्हें पकड़ो
तो काम बन जायेगा. सच में बन भी गया.
दूसरे दिन
शुक्ल जी के निवास (जो परिसर में ही था) पर पहुंचा, वहां पर बाबा पायलट रुके थे,दोपहर का समय था, बाबा जी से लम्बी बात-चीत हुई. वहां से उठा,सीधा
घर पहुंचा और उसी पैड पर बाबा पायलट से हुई बात-चीत को लिपिबद्ध किया,तब
तक शाम हो गई,आब प्रश्न यह की अयोध्या कैसे भेजा जाये,फ़ोन,आदि
तो दुर्लभ वाली चीज थी. टेलेक्स /टेलीग्राम के बारे मैं सोचना मतलब सपनों में ख्याली-पुलाव
पकाना जैसा था. सीधा सा मतलब कि इतने पैसे नहीं होते थे कि उनका उपयोग कर सकता . लाला
तो लाला (मतलब कायस्थ) ,दिमाग दिमाग पर जोर डाला तो याद आया कि
रात 11 बजे बनारस से बरेली फ़ास्ट पैसेंजर गाड़ी चलती है ,जिसमें
आर.एम.एस.(रेल डाक सेवा)का डिब्बा(कोच)लगता है, जिसमें शायद लिफाफे पर पंद्रह
पैसे का सामान्य टिकट लगता था,यदि आर.एम.एस. से भेजना है तो बीस पैसे
का अतिरिक्त टिकट चफनाना (चिपकाना) होता था.बस लिफाफा तैयार किया दस बजे वाराणसी कैंट
स्टेशन पहुँच गया. यह ट्रेन समान्यतया प्लेटफार्म नम्बर तीन से चलती थी. आर.एम.एस.के
डिब्बे साथ जा रहे डाक स्टाफ को लिफाफा थमाया ,पहले
तो वह मुझे ऊपर से नीचे तक देखा फिर ले लिया, मेने उन्हें चाचा का संबोधन करते
हुए आग्रह की फैजाबाद स्टेशन पर डलवा दीजियेगा.उन चाचा जी ने वाही किया,क्यों
की पायलट बाबा से मेरी वह बात-चीत प्रेस युग के उसी अंक (अंक-42,16-23 नवम्बर 1983) के अंक में संपादक श्री राजेन्द्र श्रीवास्तव जी ने प्रकाशित
भी कर दिया, जिसकी पचास प्रतियां भी किसी के माध्यम से तुरंत भिजवाई थी. जिसका वितरण
विद्यापीठ मैं मित्रों ने कर भी दिया था. वहीँ से थोड़ी लोकप्रियता परिसर मैं और बाद
गई.
बाबा पायलट मूलतः
रोहतास बिहार के रहने वाले हैं,जिनकी प्रारम्भिक शिक्षा तो दार्जिलिंग
एवं पटना में हुई ,लेकिन उच्च शिक्षा बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से प्राप्त की ,उसके
बाद उड्डयन की शिक्षा ग्रहण कर वायु सेना में भर्ती हो गए. बकौल बाबा पायलट उनकी पोस्टिंग ‘विंग
कमांडर’ के पद पर हुई. उस इंटरव्यू में उन्होंने बताया था कि उन्होंने ने
1962 में चीन एवं 1965 में पाकिस्तान के साथ हुए युद्ध में लड़ाकू विमान से घटक बम-बारी
की थी.
ताजुब्ब यह है कि
बाबा पायलट ने अपने उस इंटरव्यू में कुछ बातें भविष्यवाणी करते हुए कही थी. जैसे
कि’ 1983 से 1987 के बीच मध्य भारत
का सम्बन्ध सोवियत संघ के साथ टूट जाएगा,इसके साथ यह भी कहा था कि न्यूयॉर्क,टोक्यो,लन्दन
एवं मास्को जैसे शहरों पर घातक हमलों से ये शहर नष्ट हो सकते हैं. वर्ष की गणना में
हो सकता है उनसे चूक हो गई हो,लेकिन 11 सितम्बर 2001 की घट्न तो सभी
के मस्तिष्क में बैठी है. जब बाबा पायलट से मैं ये पूछा था कि आप सेना की नौकरी छोड़
कर बाबा कसे बन गए तो इस पर उन्होंने ने मज़ेदार किस्सा सुनाया ! उन्हीं के शब्दों में ‘’1965
में भारत-पाकिस्तान के चल रहे यौध में मैं एक लड़ाकू
विमान से बमबारी कर रहा था.उस समय पूर्वोत्तर के आकाश में था,तभी
मेरे विमान में तकनीकी ख़राब आ गई ,विमान
का संपर्क बेस सेंटर से टूट गया ,मेरे
हाथ-पांव फूल रहे थे,तभी काकपिट में मुझे पीछे से कोई ओई आवाज़ सुने दी,मुड़कर
देखा तो मेरे गुरु हरी बाबा खड़े थे, उसके बाद मुझे नहीं मालूम,चमत्कार
सा हो गया.वह सकुशल विमान सहित बेस कैंप पर उतर चुके थे’’. उन्होंने ने आगे बताया था कि काकपिट से निकलने के बाद उन्होंने ने निर्णय
लिए कि अब वह सेना की लड़ाई से दूर शांत और अध्यात्मिक जीवन व्यतीत करने के साथ-साथ
पूरे विश्व को शांति के मार्ग पर ले जायेंगे. विश्व का तो पता नहीं,हाँ
बाबा पायलट आजकल उत्तराखंड की एक पहाड़ी पर बने अपने आश्रम में विदेशी शिष्याओं के साथ
शांत वातावरण में शांति का उपदेश दे रहे हैं.
हां, यह तो रही बाबा के बारे में, उसके बाद जब बाबा को छह गुणे तीन मीटर एवं छह मीटर के गड्ढे में समाधि लेने का दिन आया तो जिला प्रशासन ने रोक लगाते हुए समाधि लेने पर प्रतिबंध लगा दिया. बाबा पायलट को बैरंग वापस लौट जाना पड़ा. समाधि न लेने की खबर को जब मैं ने लिखी और वह छपी तो विद्यापीठ के कुछ लोग मेरे पीछे पड़ गए, और मुझे अवैध असलहा रखने के मामले में फ़साने का षड्यंत्र रचे ? लेकिन... इसके आगे कल...
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