'महारानी के कहने पर काशी नरेश ने शुरू करायी थी रामलीला'
प्रदीप श्रीवास्तव
यूँ तो रामलीला लगभग सारे देश में होती है, पर चौपाइयों (रामचरित मानस की) के आधार पर तो केवल बनारस, अयोध्या | और चित्रकूट में ही होती है। भाद्रपद कृष्ण चतुदर्शी (अनंत चतुदशी) से अश्विन शुक्ल शरद पूर्णिमा तक तो सारे बनारस शहर में लीलाओं का वातावरण होता है। इन दिनों यहां जो कुछ भी बोला जाता है वह भाषण न होकर संवाद होता है, जिसमें पौरूष की मर्यादा होती है। इन संवादों में रस होता है चाहे वह राम हो या रावण का।
काशी की प्रसिद्ध रामनगर की लीला स्थान बदल-बदल कर होती है, पूरा रामनगर क्षेत्र ही लीला स्थल है। कहीं-कहीं अयोध्या है तो कहीं चित्रकूट कहीं पंचवटी तो कहीं लंका एक विशेषता यह है कि जिस स्थान की लीला होती है वह वहीं पर खेला जाता है। राम नगर लीला कमेटी की ओर से बैठने की कोई व्यवस्था नहीं होती है, इस विषय में दर्शकों की भी कोई शिकायत कमेटी वालों से नहीं है, क्यों कि से वह नाटक देखने नहीं वरन प्रभू की लीला देखने आते हैं, और 'सियावर रामचंद्र की जय' 'जनकलली की जय' के उद्घोष करते हुए पूरी लीला देख लेते हैं।
गंगा के पूर्वी किनारे पर बसी रामनगर की लीला पूरे एक महीने तक चलती है। अनंत चतुर्दशी को रावण का जन्म होता है और शरद पूर्णिमा को मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम का राज्यभिषेक। वैसे तो रामलीला का इतिहास बहुत ही पुराना है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने मुक्ताकाश के नीचे रामलीला शुरू की थी जो रामायण पर आधारित थी। रामनगर की लीला के सिलसिले में कई दंत कथाएं जुड़ी हुई हैं कहते हैं कि 1553 के आसपास ही अस्सीघाट पर तुलसीदास जी ने लीला शुरू की, जहां पर तत्कालीन काशी नरेश उदित नारायण सिंह रोज इस लीला को देखने जाते। इन्हीं दिनों महाराज के पुत्र कुंवर ईश्वरी प्रसाद नारायण सिंह इतना अधिक बीमार पड़ गए कि उनकी आशा सभी लोगों छोड़ दी, तभी महाराज उदित नारायण सिंह जी ने लीला के राम से कुमार के दीर्घ जीवन की कामना की, रामलीला के राम ने उन्हें अपने गले की माला उतार कर महाराज से कुमार को पहनाने को कहा। बताते हैं कि माला पहनते ही चमत्कार हो गया, कुमार दिनोंदिन स्वस्थ होने लगे। इसी घटना के बाद से महाराज उदित नारायण सिंह जी ने रामनगर में लीला कराने की व्यवस्था की, जो आज तक होती आ रही है।
एक दूसरी किवदंती के मुताबिक रामनगर से थोड़ी ही दूर पर छोटी मिर्जापुर नामक एक गांव है, जहां पर मोटू और विट्ठल नामक दो भाई गांव वालों के साथ हर साल रामलीला करवाते थे। इस लीला में महाराज उदित नारायण सिंह भी कुछ तो सहयोग करते ही थे साथ ही साथ कुछ खास-खास लीला में भी खुद जाते थे। कहते हैं कि एक साल उन्हें धनुषयज्ञ वाली लीला में पहुंचने में कुछ देरी हो गई। पर वहां पर महाराज की प्रतीक्षा न कर धनुष तोड़वा दिया गया। जब रास्ते में महाराज को इस बात का पता चला तो वे बहुत दुखी हुए और वहीं से वापस रामनगर लौट आए। महाराज की उदासी देखकर महारानी ने उसका कारण जानना चाहा तो महाराज ने भरे हृदय से सारी बातें बता दी। इस पर महारानी ने ताने मारते हुए कहा कि वे सब बनिया होते हुए भी लीला कराते हैं और आप राजा होकर क्या यहां पर लीला नहीं करा सकते ? हंसकर महाराज ने पुनः रामनगर की लीला के राम विनती की कि आप यहां लीला कराएंगे तो मुझे भी देखने का सौभाग्य मिलेगा ।
फिर क्या रानी की बात, बस दूसरे साल से ही रामनगर में लीला शुरू हो गई। लोग बाग ने छोटा मिर्जापुर की लीला में स्वयं ही जाना बंद कर दिया। जब इस बात का पता मोटू व विट्ठल को चला तो वे महाराज के दरबार में उपस्थित हुए और महाराज से प्रार्थना की, इसी दौरान यह भी कह डाला कि किले से हम छोटा मिर्जापुर तक की सड़क पर रुपए बिछा देंगे, जो आपके खजाने का ही हो जाएगा। महाराज और महारानी दोनों को ही यह बात बहुत बुरी लगी।
रामनगर के रामलीला के विषय में एक कहानी और भी प्रचलित हैं। कहते हैं एक बार महाराज उदित नारायण सिंह जी जगन्नाथपुरी के लिए चले, उन दिनों तो यात्रा पैदल ही होती थी। घने जंगलों को लांघते, बीच-बीच में लावश्कर सहित पड़ाव डालते जब महाराज खड़गपुर पहुंचे तो वहां भी रात्रि विश्राम के लिए रुकै मत में महाराज को स्वप्न आया कि मेरे दर्शन के लिए मत आओ, जाओ अपने यहां जाकर लीला करवाओ, हम वहीं पर तुम्हें दर्शन देंगे। बस महाराज वहां से उलटे लौट आए और रामनगर में एक बड़े समारोह के साथ लीला शुरू करवा दी
महाराज ईश्वरी प्रसाद नारायण सिंह 1835 में काशी नरेश बने। उनकी भगवान राम के प्रति बड़ी श्रद्धा थी, इसलिए तुलसीकृत रामायण के अनुसार उन्होंने रामलीला करवाने के लिए अपने गुरू काष्ठ जिहा स्वामी, रीवां नरेश रघुराजसिंह, वंदन पाठक और काशी अयोध्या और मिथला के विद्वानों से शोध के बाद स्थान तिथि और रामलीला संबंधित सभी कार्यों को संपन्न किया। रामलीला का वर्तमान रूप उन्हीं की देन है।
रामनगर की लीला अपनी परंपराओं को पकड़े हुए आज भी अपना पुराना कामयाब किए हुए हैं। आधुनिक कृतिम प्रकाश, ध्वनि प्रसारण यंत्रों से दूर सामान्य विद्युत प्रकाश या गैस की रोशनी में ये लीलाएं होती है। कभी-कभी मशालों का लपलपाता हुआ धुआं दिखलाई पड़ जाता है। यहां की लीला में पात्रों को पाठ याद करने की जरूरत नहीं होती है, पात्रों के पीछे खड़े व्यास जी 'प्रापटिंग' करते रहते हैं। एक संवाद पूरा हो जाने पर सामने बने मंच पर रामचरित मानस का पाठ शुरू हो जाता है। इस प्रकार यहां पर पाठ व लीला साथ-साथ चलती रहती है। विशेष बात तो यह होती है कि संवादों के न सुनाई पड़ने पर भी दर्शकों को कोई व्यवधान नहीं आता है ।
रामनगर की लीला की एक सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न और सीता जी का चुनाव स्वयं काशी नरेश ही करते हैं, ये सभी किशोर वय के ही होते हैं जाति के ब्राह्मण लीला के अन्य दूसरे पात्र जैसे दशरथ, वशिष्ठ जनक, महावीर विश्वामित्र, अगंद, रावण विभीषण ण परशुराम आदि की भूमिका आज भी वंश परंपरा के लोग करते आ रहे हैं, पर रावण व जटायु को छोड़कर सभी ब्राह्मण ही होते हैं। । यहां की दूसरी विशेषता यह है कि लीला के दौरान यदि बनवास को लीला चल रही है तो राम, लक्ष्मण व सीता जी नगर में निवास नहीं करते, यहां तक कि भारत व शत्रुघ्र को भी उनसे दूर ही रखा जाता है। सीताहरण के बाद सीता जी राम से नहीं मिल पाती, वे अशोक वाटिका नामक स्थान पर ही रहती हैं। मतलब लीला, लीला न होकर यथार्थ लीला होती है ।
रामनगर की लीला में ब्राह्मण किशोर हो राम लक्ष्मण आदि का अभिनय करते हैं. इनकी उम्र भी तेरह वर्ष तक की ही होती है जब कि भारत के अन्य शहरों में इसका आग्रह नहीं रखा जाता। यहां की लोला में होने वाली आरती भी अपनी विशेषता रखती है। जहां-जहां भगवान जाते हैं वहां भिन्न-भिन्न भक्त ही आरती गाते हैं। इसी प्रकार जनकपुर में पहले दो दिन की आरती ऋषि-मुनि तथा दो दिन राजा जनक करते है तथा अंतिम दिन की आरती (विदाई वाली) स्वयं काशी नरेश ।
आज भी परंपरागत रूप से रामलीला प्राचीन नाटकीय शैली से ही होती है इस लीला क्रम में पात्र और दर्शक एक स्थान से दूसरे स्थान को जाते रहते हैं। इस लीला में संवाद का सबसे अधिक महत्व है संवाद रामायण की ही गद्य भाषा या अवधि भाषा में ही होती है। रामलीला के पात्र राम कथा का नाटक नहीं करते वरन् रामकथा जीते हैं। यो भी कहा जा सकता है कि जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी, अपितु रामनगर की लीला देखी नहीं बल्कि महसूस की जाती है ।
(अमर उजाला,12 अक्टूबर 1986 में प्रकाशित )
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