बनारस नामा - 3
'आज' में काम करते हुए लगभग तीन माह हो चुके थे ,इस बीच आगरा संस्करण की तैयारी जोर शोर से चल रही थी, किसकों वहां भेजा जाना है, यह किसी को पता नही था. आगरा संस्करण के संपादक बनाये गए श्री शशि शेखर जी ,उस समय हिंदी अख़बारों की दुनिया के सबसे कम उम्र के संपादकों की सूचि में उनका नाम शामिल था.बनारस हिन्दू विश्व विद्यालय के छात्र थे,मालिक श्री शार्दुल विक्रम गुप्त जी (उर्फ़ पप्पू भैया )के काफी करीबी भी थे . तब तक उनके बारे में मुझे कुछ भी मालूम नहीं था ,क्यों कि डेस्क पर नया-नया ही था. नवंबर (1986)माह के अंतिम सप्ताह में समाचार संपादक (नाम नहीं याद आ रहा है ) ने आदेश दिया की पहली दिसंबर को आगरा पहुंचना होगा,कुछ और स्टाफ भी जा रहा है . उसी दिन शाम को उस माह का वेतन भी मुझे थमा दिया गया ,तीन सौ रुपये अतरिक्त वहां जाने का. यह भी बता दिया गया की वहां पहुँच कर किससे मिलाना है और कहाँ ठहराना है आदि -आदि.उस दिन जल्दी ही घर पहुँच गया और परिवार में जानकारी दी .बाबू आदि लोग तो सामान्य रहे,लेकिन अम्मा के मत्थे पर मेरे जाने के चिंता की लकीरें स्पष्ठ झलक रहीं थीं,अम्मा बहुत जीवत की महिला थीं,कभी किसी परेशानी को सामने वाले को भांपने नहीं दिया. मेरे भविष्य का सवाल था, ख़ैर ...
दूसरे
दिन केंट स्टेशन गया और और गंगा जमुना एक्सप्रेस से अगर का आरक्षण करवा लिया. 30 नवम्बर
की दोपहर बनारस से चल कर 1 दिसंबर की अल-सुबह आगरा के राजा की मंडी रेलवे स्टेशन पर
उतरा.स्टेशन पर उतरने वाले इक्का-दुक्का यात्री ही रहें होगे. संसथान (ज्ञान मंडल) ने वहीँ राजा की मंडी स्टेशन के पास ही एक होटल मैं ठहराने
की व्यवस्था कर रखी थी. सुबह के चार बजे थे, ठण्ड का मौसम ,साथ मैं एक होल्डाल (जिसमें रजाई,गद्दा तकिया के साथ
कुछ और भी सामान बंधा था .साथ में एक एयर बैग (कंधे पर लटकाने वाला) एवं अटैची भी थी.
कहाँ जाता इतनी सुबह ,वहीँ स्टेशन पर लगे प्याऊ से हाथ मुहं धोया और चाय पी.
जब
सुबह सूर्योदय का समय हुआ ,चरों और लालिमा फैली ,तो थोड़े देर बाद एक साईकिल रिक्शे पर सवार होकर अपने गंतव्य (यानी होटल) की
ओर चल पड़ा . होटल में ही सभी लोगों को एक बड़े से हाल मैं रोका गया था . वहां के प्रबंधक
(एक दक्षिण भरितीय ,शायद महाराष्ट्र के थे) से मिला जो उसी होटल
में ही रुके थे. फिर फ्रेश होने के बाद ,जो और लोग भी थे ,सभी 'आज' आगरा के कार्यालय पहुंचे
,जो उन दिनों ट्रांसपोर्ट नगर मैं हुआ करता था. स्थानीय संपादक
श्री शशि शेखर जी से मिलवाया गया, फिर काम शुरू. उस समय डिप्टी
न्यूज एडिटर डॉ सुभाष राय साहब थे,जबकि चीफ सब एक दक्षिण भारतीय
थे, जो उम्र में भी काफी बड़े थे. इसके आलावा डेस्क पर मैं ,विष्णु त्रिपाठी ,अशोक पांडेय ,श्रीकांत सिन्हा ,एक बाबु साहब (ठाकुर साहब)थे,नाम याद नहीं आ रहा है ,दिनेश श्रीवास्तव अदि लोग थे .
यह सर्वविदित है कि पत्रकारिता में ब्राह्मण सदैव
प्रभावी रहे हैं. पत्रकारिता का इतिहास पलट कर देख भी सकते हैं.शायद इसी के चलते 'आज' में भी उन्हीं लोगों का वर्चस्व भी रहा,इस बीच मैं किसी और के माध्यम से सम्पादकीय परिवार से जुड़ा था,इस लिए वहां के माहौल मैं हज़म नहीं हो पा रहा था.हटाने के बहाने खोजे जाने
लगे ,और एक दिन संपादक जी को मिल भी गया . हुआ यूँ कि शाम का
समय था बहार से चाय पी कर डेस्क पर बैठा था,और फोन (काले रंग
का बड़ा वाला) के डायल से खेलने लगा कि इसी बीच संपादक जी समाचार कक्ष में आ गए,मुझे फोन को पकडे देख कर आग-बबुला हो उठे, और आरोप जड़
दिया की में एस.टी डी काल करता हूँ ,इस लिए बील अधिक आता है
. जब कि वास्तविकता यह थी कि उस समय मेरे घर क्या दूर-दूर तक नाते-रिश्तेदारों में
फ़ोन नाम की चीज नहीं थी... करता तो किसे ? ख़ैर संपादक जी को हटाने
का बहाना मिल गया था. दूसरे दिन डियूटी पर
आया तो शिफ्ट प्रभारी का आदेश हुआ की एकाउंटेट साहब से पहले मिल लो . वहां गया तो उन्होंने
बताया की आप का ट्रांसफर वाराणसी कार्यालय हो गया है,एक दो दिन
में वहां पहुँच कर प्रबंधक यादवेश जी से मिल लीजियेगा. साथ ही वेतन भी दे दिया गया.
दो दिन बाद वाराणसी पहुंचा , यादवेश जी से मिला, उन्हों ने दो दिन बाद आने को कहा,इस तरह वह एक माह तक टालते रहे. जब सब्र का बांध टूट गया तो एक दिन कड़े शब्दों
का प्रयोग करते हुए उनसे कहा की कम से कम इस माह का वेतन तो दिला दीजिये, वह भी वही चाहते थे ,तुरंत लेखा विभाग को निर्देश दिया
और मेरे वेतन का भुगतान हो गया . तब मुझे वहां पंद्रह सौ महिना मिलता था.उस दिन के
बाद से आज तक ज्ञान मंडल के दहलीज पर पांव नहीं रखा तो नहीं रखा.
('आज से हटने के बाद सहारनपुर
'विश्वमानव' चला गया. इसकी भी रोचक दास्तान
है,वह बाद मैं,उसके पहले काशी विद्यापीठ वाली ठकुराईन
चाची की बात न करूँ तो न्याय संगत नहीं
होगा.तो कल चाची की बात,जिनका उधार प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी भी नहीं चूका
सके थे.)
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