बुधवार, 20 अक्तूबर 2021

ओऊ पईसा के देई ? जब विद्यापीठ वाली ठकुराइन चाची ने प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री से कहा था

बनारस नामा -4

        सन 1979-80 में हरिश्चंद्र इंटर कलेज से इंटर की परीक्षा पास (बहुत अच्छे नंबर नहीं आये थे)करने के बाद बगल में ही  हरिश्चंद्र डिग्री कालेज मैं बी.कॉम में किसी तरह एडमिशन हो गया.एक-दो दिन क्लास में भी गया लेकिन विषय पल्ले में नहीं पढ़ा तो काशीविद्या में बी.ए.में एडमिशन ले लिया ,एक तो विश्विद्यालय में पढ़ने की लालसा तो दूसरी बात घर के पास ही था.सबसे अहम् बात यह थी कि शाम को लहुराबीर पर प्रकाश टाकिज के छोटे-बड़े नेताओं की जमघट लगना, उनके साथ शामिल होना.

 ख़ैर साहब ,पुराने लोगों को याद होगा की विद्यापीठ के मुख्य गेट से सिगरा की ओर लगभग पचास मीटर चलने के बाद सामने की पटरी पर एक झोपड़ी में छोटी सी चाय की दुकान हुआ करती थी.जिसे ठकुराइन चाची चलती थी.जिन्हें आज हम ठेठ बनारसी की संज्ञा दे सकते हैं. ठकुराइन चाची के उस झोपड़ी नुमा रेस्टोरेंट (उस समय के हिसाब से यही कहना उचित होगा.)में चाची  समौसा ,जलेबी,कचौड़ी के साथ-साथ पूरी सब्जी भी बनाती थी ,जिसके स्वाद की कल्पना तो आज नहीं कर सकता,समोसे के साथ हरिमिर्ची व पुदीना-हरी धनिया की चटनी का स्मरण होते ही मेरी अंगुलियाँ अनायास स्वाद के लिए मुहं में चली जाती हैं ,जैसे एक नवजात बच्चा अपनी उँगलियों को चूसता है,(हो सकता है अब फिर से बचपन वापस लौट रहा हो ,साठ से ऊपर का जो हो गया हूँ.)जिलेबी -कचोडी की बात छोडिये ही. अब तो ना चाची रहीं ,ना ही चाची की दुकान,उस जगह कंक्रीट के जंगल उग आये हैं. हाल में बनारस गया था तो चाची व उनकी दुकान के बारे मैं कई लोगों से जानकारी चाही,लेकिन किसी ने भी सही ढंग से नहीं दी, सच बोलूं तो आखें भींग गई. एक अतीत का इतिहास 'काल के गाल में' समाहित हो गया,हम उसे संरक्षित नहीं कर पाए,इस आधुनिकता के अंधेपन की दौड़ में. काशी  के अतीत को जानने के लिए उस वक्त की 'दो देवियाँ' (में यही संज्ञा दूंगा) को जरुर याद किया जायेगा.एक काशीविद्या पीठ वाली ठकुराइन चाची दूसरी बी. एच. यू. के निकट लंका वाली चाची (जिनके बारे में चर्चा फिर कभी).

 बात 'काशीविद्या पीठ वाली चाची' की चल रही थी ,चाची को में ने सदैव झक्क सफ़ेद सूती (हो सकता है खद्दर की रही हो )धोती में ही देखा. अगर चाची को उनके बनाये सामान (मतलब कचौड़ी,समौसा या फिर जिलेबी को ले कर कोई छात्र छेड़ देता तो समझो उसकी सामत आ जाती. सही बताऊँ अपनी सामत बुलाने के लिए ही चाची को जानबूझ कर छेड़ते भी थे. उसका कारण था चाची का अपनत्व . जिसमें होती थी मिठास ,जिसे कोई बुरा नहीं मानता था.चाची के पास गजब की भाषा की पकड़,गाली का तकनिकी ज्ञान था भाई साहब.मर्दानी गाली का विश्लेषण सार्वजानिक रूप से,किसी भी संज्ञा के मादा गुप्तांगों का विश्लेषण (.... वाले अदि-आदि)का समायोजन . यह थी चाची के व्यक्तित्व की पहचान. उस बातचीत के दौरान जो कोई भी जुड़ा ठकुराइन चाची उसकी मां-बहन के साथ खुले व्यभिचार की घोषणा कर देतीं, शख्शियत कोई भी रही हो,चाहे वह निर्जीव वस्तु  रही हो या सजीव. वह आदमी बिरादरी का रहा हो या जानवर की ,उसमें मां-बहन खोज ही लेतीं थी चाची .मैं भी कई बार उनका शिकार बना,शायद यही कारण है कि कोई मुझे कितनी भी भद्दी गली दे,में जरा भी बुरा नहीं मानता.मैं क्या जिसने भी बनारस मैं अपना समय बिताया होगा ,वह भी नहीं मानता होगा. गाली तो वहां की एक संस्कृति है,जिसमें अपनत्व होता है, मिठास होती है. जिसमें होता है एक रिश्ता,रिश्ते की मिठास ,न चाय होती ,न दुकानदार व पैसा ,होती थी एक रिश्ता,जो और भी नजदीक कर देती थी.चाय तो कहीं भी मिल जाती ,समौसा कहीं भी खा लेते,लेकिन चाची की मिठास वाली गाली कहाँ मिलती मेरे भाई.

   उस समय के लोगों को अच्छी तरह याद होगा कि चाची की छप्पर वाली 'रेस्टोरेंट' झोपड़ी नुमा दुकान में हर कोई झुक कर ही घुसता था,कितना बड़ा आदमी हो वह. विद्यापीठ के प्रोफ़ेसर / विभागाध्यक्ष /या छात्र नेता हर कोई सर झुका कर ही प्रवेश करता था.जो अन्दर न जाकर बहार से ही सर झुका कर अन्दर ताकते हुए  चाची से चाय मांगते और गाली सुनने के लिए कुछ पिंगल बोल देते,फिर क्या चाची जो शुरू होती तो सात पुश्तों को अपने मिठास भरे गालियों की चासनी में डूबो देती.जिसमें होता मां का प्यार,पिता का दुलार,बेटे का रिश्ता,बहन का लाड ,यही सब तो मिलता था ठकुराइन चाची के पास ,जिसके लिए  भूखे रहते थे लोग.

ठकुराइन चाची वह शख्शियत थीं जिनके खाए समौसे व चाय का पैसा आज तक स्वतंत्र भारत का एक शासक नहीं चूका सका था.वह थे भारत के दूसरे प्रधान मंत्री स्व लाल बहादुर शास्त्री जी. एक बार बातचीत के दौरान चची ने बड़े गर्व से इस बात का उल्लेख किया था. ठकुराइन चाची ने बताया था ,प्रधान मंत्री बनाने के शास्त्री (जी) बनारस दौरे पर आये थे ,इसी रोड से किसी कार्यक्रम में शामिल होने बी.एच.यू.जा रहे थे ,इसकी जानकारी चाची को भी थी ,और उन्हें विश्वास था कि वह जरुर यहाँ रुकेंगे. मुस्कराते हुए वह बोलीं की जब उनका काफिला इधर से निकल रहा था तो अचानक प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री की गाड़ी झोपड़ी के सामने रुकी ,यह देख वह हतप्रभ हो गईं ,जब तक वह कुछ समझती तब तक उन्होंने ने देखा कि छोटे कद का वह व्यक्ति,भारत का प्रधान मंत्री ,जो अमेरिका के सामने 'अन्न' के लिए नहीं झुका,वह मेरे सामने (ठकुराइन चाची)अपने छात्र जीवन में खाए उधर को न चुकता कर पाने की दुहाई दे रहा था.उधर चाची उन्हें (देश के प्रधानमंत्री)को डाट रही थीं कि 'का हो शास्त्री दिल्ली में खायेक नाही मिलत क ! काहे दुबराइल बाट?तनी ठीक-ठाक रहल कर!ओऊ पईसा के देई ? इतना कह कर ठकुराइन चाची ने एक पैकट उन्हें थमाते हुए कहा कि 'इल,धोती-कुर्ता हो तोहरे बदी ओउर एक साड़ी ललिता (शास्त्री) वास्ते.

 याद कीजिये जिस ने यह नज़ारा उस दिन देखा  होगा ,वही जानता  होगा कि झोपड़ी में चाय की चाशनी में गाली मिलाने वाली इस महिला की (ठकुराइन चाची) औकात क्या रही होगी.जिसने एक सल्तनत के शहंशाह को झुकाए खड़ा रखा रहा होगा. बनारस की यही संस्कृति रही,जहाँ दोनों जीतते रहे. चाची और शास्त्री जी ,दोनों अपनी-अपनी बुलंदी पर रहे ,लेकिन दोनों इतना झुक गए कि 'एक पूरा का पूरा इतिहास इस संस्कृति 'को समर्पित हो गया था. बदलते परिवेश और आधुनिकता की आंधी ने आज 'इस ममता की धारा को ही लोप कर दिया. चाची माँ की तरह खिलाती थी,बाप की तरह गालियाँ देती थी ,लेकिन उसमे वह मिठास होती थी ,जिसकी कल्पना ही अब नहीं की जा सकती है. ऐसी थी "'विद्या पीठ वाली ठकुराइन चाची'. चाची को नमन.

(कल विद्यापीठ की दो रोचक दास्तान,जरुर पढ़ें)  

   

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