बनारस नामा -2
‘आज’ अख़बार के कार्यालय से
निकल कर खरामा-खरामा पैदल चल कर घर पहुँच. इतने पैसे नहीं थे कि लोहटिया से लहुराबीर
के लिए रिक्शे वाले को पंद्रह पैसे आने का तथा इतना ही जाने का दे सकता. फिर रोज का
यह सिलसिला चल पड़ा ,दोपहर एक बजे घर से
निकलना ,दो बजे तक 'आज' पहुँचना ,फिर रात आठ बजे के बाद घर वापसी
.लगभग पन्द्रह दिन बीते होंगे कि एक दिन 'बाबू' ने छोटे भाई से पूछा कि आज कल रोज नियमित समय पर पप्पू (मेरा घर का नाम पप्पू
है )कहाँ जाते हैं ,इस पर उसने अनभिज्ञता
प्रकट कर दी.फिर उससे उन्हों ने कहा कि पता करो जरा . छोटे ने मुझसे पूछा ,लेकिन मैंने टाल दिया. प्रशन
यह था कि जवाब क्या देता, स्वयं पर विश्वास नहीं
था कि अख़बार मैं नौकरी लगी है. क्यों कि वेतन के बारे में कोई बातचीत नहीं हुई. बस
यही समझ कर चल रहा था कि ट्रेनिंग चल रही है . उधर एक दिन छोटे भाई ने पीछा करते हुए
अख़बार के कार्यालय में घुसते हुए देख लिया. इधर लहुराबीर अड्डे पर होने वाली नियमित
बैठक में उपस्थित न होना भी मित्रों में चर्चा का विषय बना रहा. अचानक एक लेखक मित्र
अपनी रचना देने ‘आज’ अख़बार के कार्यालय में आये और मुझे ‘डेस्क’ पर कम करते हुए देख लिया ,फिर तो मित्रों में इस बात की चर्चा जंगल में लगे आग की तरह
फैल ही गई.
लगभग एक माह से अधिक बीत चुका था, अचानक एक दिन दोपहर में संपादक (डॉ राम मोहन पाठक) जी ने अपने चेंबर में बुलाया. में डरता-घबराता उनके चेंबर में यह सोचता हुआ की क्या गलती हो गई, प्रवेश किया. उन्होंने बिठाया , चाय पिलवाई और कामकाज के बारे में पूछा, सामान्य सा जवाब देता गया. फिर संपादक जी बोले की घर जाते समय अकाउंट में उपाध्याय जी (जहां तक नाम याद आ रहा है ,यही था) से मिलते हुए जाना . रात आठ बजे घर के लिए निकलने के पहले जब एकाउंट में उपाध्याय जी से मिला ,तो उन्होंने ने दर्जनों सवाल ठोके, किसके माध्यम से लगे हो, कैसे जानते हो उनको आदि-आदि.ख़ैर इसी बीच उन्हों ने कुछ कागजों पर हस्ताक्षर भी कराते रहे ,और औपचारिकता पूरी होने के बाद उपाध्याय जी ने एक बंद लिफाफा थमाया. जिसे लेकर घर की ओर चल पड़ा , एक और तो मन में यह जिज्ञासा थी कि लिफाफे में कितना वेतन है, दूसरी कि अम्मा-बाबु को यह खुश-खबरी कितनी जल्दी दूँ.सच बताऊँ,बहुत दिनों बाद उस दिन रिक्शे से घर पहुंचा. और अम्मा को वह लिफाफा थमाया तो उन्होंने कि इसमें क्या है, मेरे पास कुछ बताने को शब्द ही नहीं थे,तभी बाबू ने कहा कि देखो शायद पप्पू को पहली तनख्वाह मिली है.जब अम्मा ने लिफाफा खोला तो उसमे पूरे नौ सौ रुपये थे. उस वक्त (1986) में इतनी तनखाह बड़ी बात होती थी. उसके बाद के घटनाक्रमों को यही छोड़ देता हूँ.
सीधी बात पत्रकारिता के मेरे पहले गुरु डॉ राम मोहन पाठक
जी पर आता हूँ,उनके विषय मैं लोगों
में जो भी धारणा हो लेकिन मेरे लिए वह ‘दिव्यपुरुष’ से कम नहीं हैं. आज
जो कुछ भी हूँ उन्ही की वजह से. लोग अपने संपादकों को भूल जाते हैं ,लेकिन अगर कोई संपादक अपने
कलीग और छात्र को याद रखे ,इससे बड़ी बात क्या होगी .
बात सन 2004 की होगी ,तब तेलंगाना नहीं बना था आंध्र
प्रदेश था , पृथक राज्य की परिकल्पना
चल रही थी,एक और नक्सली हिंसा
से प्रदेश के लोग तंग आ चुके थे,साथ ही मुख्यमंत्री नारा चंद्रबाबू नायडू के कार्यकलापों से भी. इसी बीच परिवर्तन
की एक आंधी चली ,जिसका नेतृत्व कर रहे
थे प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष वाई एस राजशेखर रेड्डी, उनकी रथयात्रा पूरे प्रदेश से गुजर रही थी. जिस दिन वह निज़ामाबाद
में थे उनके साथ उनके रथनुमा वाहन में मैं भी था. जहाँ तक याद आ रहा है कि आरमुर से
करीम नगर मार्ग पर थे,तभी अचानक मेरे मोबाइल
की घंटी बजी ,लेकिन उस शोरगुल में
सुन नहीं सकता था ,इस लिए बाद में ‘काल बैक’ किया तो उधर से आवाज आई प्रदीप भैया मैं ‘राम मोहन पाठक’ बोल रहा हूँ, क्या हाल है. मैं एक दम भौंचक्का,लगभग 17 साल बाद (1987-2004) उनकी आवाज़ सुन रहा था. प्रणाम किया ,फिर कुछ बातें हुईं ,तो उन्होंने ने बताया कि बनारस
में मेरे किसी मित्र से उन्होंने ने नंबर लिया था. वह क्षण आज तक नहीं भूलता है. बीच
में एक-दो बार बातें हुईं . सन 2010 में डॉ सम्पुर्नानद संस्कृति
विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के एक समारोह में भाग लेने बनारस गया था, वहीँ पराड़कर भवन मैं रुका था.
दूसरे दिन सुबह फ्रेश होने के बाद सोचा कि आया हूँ तो जरा स्ट्रीट फ़ूड का जयका लिया
जाये,और निकल गया बुलानाला की ओर.
नाश्ता कर ही रहा था कि मोबाईल की घंटी बजी ,देखा तो डॉ पाठक साहब, प्रणाम किया ही था कि उधर से आवाज़ आई भईया कहाँ हो,जल्दी आओ तुम्हारे लिए नाश्ते
मैं कचौरी-सब्जी ले कर आया हु,जल्दी आओ . मैं वहां पर अध नाश्ता छोड़ कर उलटे पांव पराड़कर भवन पहुँच तो डाक्टर
साहब इंतजार कर रहे थे, मैं उनके पांव छूने
की लिए झुका ही था कि उन्होंने ने गले से लगा लिया. मेरी आंखें डबडबा गईं.
बात पावं छूने की नही,गले लगाने की नही,न ही गुरु-शिष्य के बीच संबंधों की है, बात है एक इतने बड़े संपादक का अपने सहयोगी के साथ अपनत्व की. इस बात को डंके की चोट पर कह सकता हूँ कि शायद ही कोई संपादक ऐसा होगा. तीन साल पहले जब वह चेन्नई स्थित दक्षिण हिन्दी प्रचार सभा में कुलपति बन कर गए तो,अचानक उन्हें याद आया की यहीं दक्षिण में मैं भी हूँ,उन्होंने तुरंत फोन मिलाया और कहा कि जब समय मिले तो चेन्नई आ जाओ ,यहाँ पर तुम्हें क्लास लेनी होगी. लेकिन तब तक मैं लखनऊ में शिफ्ट हो चुका था. अभी हाल ही में डॉ पाठक साहब दिल्ली में एक किसी कार्यक्रम में भाग ले रहे थे, उसी मंच पर मेरे एक दक्षिण भारतीय हिंदी के विद्वान भी उपस्थित थे, किसी सिलसिले बनारस व अयोध्या का जिक्र निकला तो उन्होंने मेरा नाम लिया कि वह भी वहीं के रहने वाले थे,इस पर डॉक्टर साहब ने तुरंत मुझे फोन लगाया और उनसे बोले कि वह तो मेरा छोटा भाई है.इस तरह की अनगिनत बातें हैं ,जिनका उल्लेख आगे करूँगा.
(इसके आगे कल)
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