मंगलवार, 16 नवंबर 2021

उपेक्षित पड़ा अस्सी वर्ष पुराना सिल-बट्टा

अयोध्या -2

आप यह सिल-बट्टे की जो फोटो देख रहे हैं न ,यह नहीं तो कम से कम अस्सी साल पुराना तो होगा ही, साठ साल से तो मैं ही देखता आ रहा हूँ , जिस पर अम्मा मसाला व तरह-तरह की चटनियां  पिसती थी. उसके पहले मेरी दादी (जिन्हें हम सभी लोग 'दादू' कह कर बुलाते थे) ने भी इसी पर मसाला व चटनी पीसी थी . जो आज भी मेरे पैतृक घर की शान में , आँगन में एक किनारे पड़ा अपनी उपेक्षा के दंश को झेल रहा है. क्यों की उसकी  जगह अब मिक्सर ग्राइंडर ने जो ले ली है ,तो अब कोई इस बेचारे को पूछता भी नहीं है. क्यूँ कि आधुनिकता का आवरण जो हम ने अपने ऊपर ओड़ लिया है,बस कारण इतना कि लोग क्या कहेंगे,अरे कितने पुरातन विचारों वाले लोग हैं ये सब,अभी भी सिल बट्टे का उपयोग करते हैं.
लेकिन उन्हें नहीं पता कि इस सिल-बट्टे का वैज्ञानिक महत्व भी है. सबसे पहली बात तो सिल-बट्टे पर पीसी जाने वाली  सामग्री बहुत धीमी गति से पीसी जाती है,जबकि मिक्सर में में अत्यधिक तेजी व कम समय में पिस जाती है. धीमी गति से पीसी गई सामग्री चाहे वह मसाला हो,चटनियाँ हो या फिर नमक . कुछ भी हो जब वह सामग्री सिल-बट्टे से होकर गुजरती है तो उसके स्वाद में पौष्टिकता भी बढ़ जाती है. इसलिए सिलबट्टे पर पिसी हुई चटनी का स्वाद आप को मिक्सी वाली चटनी से कहां मिलेगा , बोलो न?
   दूसरी अहम् बात यह की सिल-बट्टे पर पिसने के लिए आप को उसके सामने उकडू हो कर बैठाना होता है फिर दोनों हाथों से सिल पर बट्टे से जो भी चीज पिसनी होती है उसके लिए हाथों को आगे पीछे करना पड़ता ही है. इस लिए यह स्वस्थ के लिए लाभ दायक भी है. दादू बताती थीं कि इससे औरतों का पेट नहीं निकलता है. तीसरी अहम् बात इसका उपयोग करने वाली महिलाओं को प्रसव के समय आज की तरह सिजिरियन डिलवरी की जरुरत नहीं पड़ती थी.सीधा सा मतलब जच्चा व बच्चा दोनों स्वस्थ-मस्त.
      वैज्ञानिक के साथ-साथ सिल-बट्टे का धार्मिक महत्व भी है. आज भी हर गाँव के हर घर में जरूर एक सिल-बट्टा मिलेगा,जिसके घर में शादी होगी तो वह जरूर खरीदता है.चाहे वह कितना भी गरीब क्यों न हो. पाणिग्रहण के समय शिला रोहण के लिए इसकी जरूरत होती ही है. क्योंकि इसे माता पार्वती का प्रतीक माना जाता है,जिसे बिटिया की सखी के रूप में उसके साथ ससुराल भेजा जाता है. इसके अलावा यज्ञों में भी सिल-बट्टे के उपयोग की कहानिया मिलती हैं.
    सिल-बट्टे के साथ एक मान्यता यह भी जुडी है कि सिल और बट्टे को एक साथ नहीं ख़रीदा जाता है.क्यों कि 'बट्टे' को  'भगवन शिव' का जबकि 'सिल' को 'माँ पार्वती' स्वरुप माना जाता है. दोनों चीजों में से एक को पहले लेना होता है.सिल -बट्टे के शिल्पकार कभी भी आप को एक साथ इसे नहीं देंगे.क्यों की इन दोनों चीजों को मूर्त रूप देने वाला शिल्पकार पिता समान होता है ,इसलिए वह दोनों को एक साथ देगा ही नहीं.
   
 सिल -बट्टे के इतिहास का कोई ठोस प्रमाण तो नहीं मिलता लेकिन ,लेकिन कहते हैं कि हजारों-हज़ार साल पहले मिश्र की सभ्यताओं का भी एक अहम् हिस्सा हुआ करता था यह. मिश्र की सभ्यताओं में जिन सीलोन का उल्लेख मिलाता है वह सिल बीच में थोडा सा गहरापन लिए होता था,जो आज भी आप देख सकते हैं. इसके भी कई पर्यायवाची नाम हैं ,जैसे शिला, सिलोटु, सिल्वाटु, सिळवाटू, सिलौटा, सिलोटी, सिला लोढ़ी ,सिल और लोहडा या  सिलबट्टा । सिलबट्टा को रखने की एक  नियत जगह होती थी जिसे हमेशा साफ सुथरा रखा जाता था. सिलबट्टा को इस्तेमाल से पहले और बाद में अच्छी तरह से धोया और पोछा जाता था और बाद में दीवार के सहारे से शान से खड़ा कर दिया जाता था.
   सिलबट्टे के पीछे मेरी नानी एक छोटी सी कहानी बताती थीं,वह यह कि एक दादी के मरने के बाद कुछ ना मिला सिवाय एक संदूक के। लालची बहुओं ने खोला तो उसमें था ‘सिलबट्टा ‘. दादी का संदेश साफ था लेकिन बहुओं ने उसे फेंक दिया और संदूक को चारपाई के नीचे रख दिया। तब से यही होता आ रहा है.. “सेहत फेंक दी गयी और कलह को चारपाई के नीचे जगह मिल गयी.”

कोई टिप्पणी नहीं:

'इंग्लैंड-आयरलैंड' और 'अंटाकर्टिका एक अनोखा महादेश'

किताबें-2 श्रीमती माला वर्मा की दो किताबें हाल ही में मिलीं, 'इंग्लैंड-आयरलैंड' और 'अंटाकर्टिका एक अनोखा महादेश' ,दोनों ह...