शुक्रवार, 10 दिसंबर 2021

"मामा शकुनी और उनकी शव यात्रा"

 अयोध्या और मैं /अल्हड़ नादानियाँ -3

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     महाभारत के  एक प्रमुख पात्र हैं मामा शकुनी,जिनकी कहानियां सर्व प्रचलित हैं ही . जिन्हों ने अपने व अपने परिवार के प्रतिशोध के चलते 'महाभारत ' की संरचना ही कर डाली ,यह सभी को मालूम ही है . आज भी हर परिवार में जब कोई सदस्य नाराज़ होता है तो उसे यह संज्ञा बड़ी आसानी से दे दी जाती है,चलो ,'बहुत मामा शकुनी' मत बनो. मामा शकुनी के बाद 'कंस मामा' की उपाधि मिलना कोई कठिन बात नहीं है ... ख़ैर यहाँ पर जिन मामा शकुनी की बात कर रहा हूँ उनका व  उनके परिवार का उपरोक्त वर्णन से कोई सम्बन्ध नहीं है.

  बात सत्तर के दशक की है,बाबू का तबादला गोरखपुर से फैज़ाबाद (अब अयोध्या) हो गया , परिवार क्या नाते रिश्तेदारों में ख़ुशी की लहर . ददिहाल से परिवार में बाबू सबसे बड़े उधर ननिहाल में अम्मा तो पांच नानाओं के बच्चों में सबसे बड़ी. शहर के बीचो बीच अपना मकान, बाबा ,दादू , चाचा -चाची तो रहते ही थे ,मोहल्ले में दो बुआ का परिवार भी रहता था. उधर अम्मा के दो चाचा यानी मेरे नाना का घर भी था, दोनों नाना स्व सूर्य भान लाल श्रीवास्तव एवं स्व  रुद्र्भान लाल श्रीवास्तव अपने समय के फैजाबाद  दीवानी के प्रसिद्ध वकील थे . अम्मा उस परिवार की सबसे बड़ी या यूँ कहें लाडली बेटी जो थीं.

 हम लोग गोरखपुर से अपने गृह नगर आ गया ,गोरखपुर में गोलघर के पीछे जुबली मानटेन्शसरी  से पांचवी कक्षा पास कर जिला अस्पताल के सामने के एम. एल एम एल इंटर कालेज में छठवीं कक्षा में प्रवेश मिल गया. गोरखपुर में सिविल लाइन जैसे सभ्रांत ईलाके में रहते थे,अब ठेठ पुराने मोहल्ले में आ बसे. वही बात न कि 'असमान से गिरे खजूर पर अटके' वाली कहावत को चरितार्थ हो गई. मोहल्ले के परिवेश में रच-बस गया. मोहल्ले की हर गतिविधियों में बचपन से ही भाग लेना एक शगल सा था.

 हमारे मोहल्ले में एक वयोवृद्ध बाबा ,जिन्हें सभी मामा शकुनी के नाम से बुलाते थे, जहाँ तक मुझे याद है की वह इसका बुरा भी नहीं मानते थे.वह अविवाहित थे . एक छोटे सी कोठरी (कमरा) में वह रहते थे ,उसी में सोना ,खाना बनाना आदि सब कुछ. हाँ फ्रेश (निपटान )के लिए खेतों में चले जाते . पीने का पानी 'सरकारी कल' मतलब नगर पालिका के 'सार्वजानिक नल' से ले कर काम चलाते. उस समय उनकी उम्र रही होगी सत्तर से अधिक,सांवला , सामान्य कद ,लेकिन दिमाग से कहीं तेज. कभी भी वह न तो शांति से बैठे और न ही मोहल्ले वालों को बैठने दिया. आये दिन उनके घर के पास दिन में किसी न किसी मामले में उल्हाना देने वालों का जमावड़ा लगा ही रहता. उस समय उनके शांति भाव को देखने वाला होता. जैसे कुछ हुआ ही नहीं ,न ही उनकी उसमे कोई भूमिका रही हो .फिर भी मोहल्ले भर के बच्चे-बूढ़े ,महिलाएं उनका बहुत आदर करते थे.उसका जो भी कारण रहा हो ,लेकिन मुख्य था उनके आगे-पीछे कोई नहीं था .एक कहावत है न 'आगे नाथ न पीछे पगहा.' बस वाही वाली हालत. एक रात वह जो अपने कमरे में सोये तो फिर उठे ही नहीं. सुबह चार - पांच बजे उठाने वाले मामा के कमरे का किवाड़ नहीं खुला तो अगल-बगल वालों को चिंता हुई, ख़ैर साहब दरवाजे को खोला गया तो अन्दर 'मामा शकुनी' (उनका असली नाम आज तक किसी को भी नहीं मालूम है)चिर निंद्रा में सोये हुए थे. यह बात जंगल में लगे आग की तरह पूरे ईलाके में  फैल गई. मामा उम्रदराज भी थे,मोहल्ले वालों ने गाजे-बाजे के साथ उनकी शव यात्रा निकलने का निर्णय लिया.

    दिन के तीसरे पहर , यही लगभग तीन बजे का समय रहा होगा... उनके शव को एक सजीधजी कुर्सी पर बैठा कर अयोध्या में (तब अयोध्या एक छोटा सा क़स्बा ही था) सरयू के किनारे अंतिम संस्कार के लिए निकला ,वह भी पैदल.जिसकी दूरी लगभग पांच किलोमीटर थी,आज भी उतनी ही है.उस यात्रा में मोहल्ले के बहुत सारे बच्चे भी शामिल थे,जिनमे एक में भी था. फैजाबाद से अयोध्या तक रस्ते भर अंतिम यात्रा में बोले जाने वाले शब्दों ... राम नाम सत्य है के बाद सभी एक अपशब्द का प्रयोग करते हुए .... बड़ा मस्त है ,कहते हुए ले गए. रस्ते में जिस ने भी उस दिन उनकी अंतिम यात्रा को देखा होगा वह आज तक नहीं भुला होगा. हम बच्चों का उसमें जाने का कोई और कारण नहीं था. बस इतना था कि सारी क्रियाएं  पूरी होने के बाद एक घाट पर एक पेड़ा या कोई और मिठाई के साथ एक कुल्ल्हड चाय मिलेगी .

    जाने में तो चला गया ,लेकिन वापसी की बात तो पूछिएगा ही मत.बड़े लोग तो निकल लिए ,बचे तो हम दो -तीन बच्चे . किसी तरह अँधेरा होने के बाद घर पहुंचे.उधर अम्मा-बाबू को खबर हो गई थी कि घाट पर गया है. भाई फिर तो जैसे घर में घुसने के पहले की जो विधि-विधान की प्रक्रिया करनी थी ,वह निर्बाध रूप से संपन्न करवा दी गई, अभी कुछ सम्हला ही था कि पीछे से बाबू का जो थप्पड़ पड़ा तो आँखों के सामने अधेरा छा गया. भाई साहब ! उसके बाद तो पूछिए नहीं ... अभी भी उधर की ओर जाने से डर लगता है. आखिर एक दिन जाना तो है ही . न  चेतन मन से अवचेतन मन से ही सही. यही प्रक्रति का नियम है या यह कहें विधि का विधान है,जो शास्वत है,जिसे झुठलाया नहीं जा सकता.   

(अगले रविवार को एक और रोचक नादानियो के साथ मिलते हैं.)   

 

 

 

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