अयोध्या और मैं -४
मैं इस समय महात्मा गाँधी की कर्मभूमि वर्धा के बापू कुटी में हूँ. विगत चार सालों में मेरी यह चौथी यात्रा है.पच्चीस सालों तक इस रेल खंड पर न जाने कितनी बार यात्रा की ,लेकिन कभी इन स्टेशनों (वर्धा/सेवाग्राम) पर उतरा नहीं ,पर अब यही स्टेशन बार-बार उतरने को मजबूर कर देता है. उम्र की अंतिम बेला में बापू का यह धाम मुझे इतना लगाव देगा ,इसका मुझे कभी अहसास ही नहीं हुआ.महात्मा गाँधी के प्रति इतना अपनत्व हो जायेगा ,पता नहीं था. यह सब हुआ भी तो पिछले सात-आठ सालों में. इस बीच गाँधी को बहुत पढ़ा ,जाना , और जानने की इच्छा भी जगी. पूरी जवानी और प्रौढ़ अवस्था में गाँधी को इतना नहीं जान सका था.
जैसा कि पिछली श्रंखला में लिखा था कि बाबू (पिता जी ) का तबादला गोरखपुर से फैजाबाद (अब अयोध्या) हो गया ,पांचवी पास कर के आया था , सो छठवीं में एडमिशन लेना था. मोहल्ले में चार-पांच मकान छोड़ कर एक मास्टर चाचा रहते थे. जिनका नाम था स्व शांति स्वरुप वर्मा , जिन्हें वर्मा मास्टर के नाम से सारा शहर जनता था. मास्टर चाचा मनोहर लाल मोती लाल इंटर कालेज (एम्.एल.एम्.एल.इंटर कालेज) में भौतिक विज्ञानं के प्रवक्ता थे.उस विषय पर उनकी गहरी पकड़ थी , दूर-दूर से लोग उस समय उनसे ट्यूशन पढ़ने आते थे.उनमे से एक वर्तमान अयोध्या राजा भी थे. उन्ही के माध्यम से छठवीं में नाम लिख गया.
उस समय छठवीं से आठवीं तक सभी विषयों के साथ एक अनिवार्य विषय भी लेना पड़ता था.मनोहर लाल में इसके लिए दो विषय थे पहला - सिलाई एवं दूसरा था कताई-बुनाई .सिलाई में कपडे में काज़ बनाना ,रफू करना,बटन टाकना आदि सिखाया जाता था ,जिसके मास्टर थे रस्तोगी मास्टर साब ,जो बाबू के सहपाठी भी थे. कताई-बुनाई वाले मास्टर साब का नाम ठीक से याद नहीं आ रहा है ,पर शायद बारी मास्टर साब नाम था उनका. में ने कताई-बुनाई विषय लिया था. जिसमे हाथ सूत कातना,खादी के कपडे बनाये जाने की प्रक्रिया के साथ-साथ चरखों के प्रकार आदि की शिक्षा दी जाती थी. उस कक्षा में जमीन पर ही बिछे टाट-पट्टी पर बैठना होता था ,तब हम लोगों को यरवदा चरखा आदि के बारे में पढाया गया था ,और तो आज तक ठीक से याद भी नहीं है.
उन्ही दिनों दो अक्टूबर को गाँधी
जयंती पर कोई विशेष आयोजन हुआ था, मेरा एक विषय 'आर्ट' भी था,जिसके मास्टर साब थे प्रेम शंकर श्रीवास्तव. उन्हों
ने उस समय मुझे गाँधी जी का एक पोस्टर बना कर लाने को कहा था. मेरे सामने एक बड़ी समस्या
खड़ी हो गई कि बनाऊ तो कैसे ,विषय तो केवल पास होने के लिए ले रखा है. ख़ैर साहब कहावत है न कि 'मरता तो क्या न करता' वाली बात को सिद्ध करते हुए घर के बगल में रहने वाले
एक बढे भाई साहब के शरण में पहुंचा. जिन्हें हम लोग लल्लू दद्दा (उनका घर का नाम था)
संबोधित करते थे. वह जल-निगम में किसी पद पर सेवारत थे.उनकी आर्ट देखने वाली थी. उनके
बनायी पेंटिंग मानो बोल उठेगी की बात को चरितार्थ करती थी. उन्होंने ने मात्र एक घंटे
में महात्मा गांधी का एक चित्र लाठी के सहारे पीछे से जाते हुए बनाया था. जिसके नीचे
मेरा नाम प्रदीप कुमार, कक्षा -आठ ,अ लिख दिया था .उस पोस्टर को कालेज में जमा कर दिया. बाद में वह पोस्टर प्रिंसपल
साहब (उन दिनों स्व रामहेत सिंह जी हुआ करते थे) के कमरे मैं काफी दिनों तक लगा रहा.
कहाँ अयोध्या,कहाँ
वर्धा यानी सेवाग्राम महात्मा गांधी की कर्म भूमि. श्री राम मर्यादा के लिए पुरुषोत्तम
कहलाये तो गाँधी जी ने अहिंसा के लिए महात्मा बना दिए गए. वर्धा की यही भूमि जहाँ से
23 सितंबर 1933 को महात्मा गाँधी के पांव पड़े थे,और 16 जून 1936 से यहीं रहने लगे थे.
इसी भूमि से विनोद भावे ने 1951 में भूदान आन्दोलन की शुरुआत की थी. (शेष अगले रविवार
को)
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