अयोध्या और मैं – 5
यह शास्वत है कि बचपन में हर बच्चा चंचल,नटखट एवं शैतान तो होता ही है ,यह अलग की बात है कि उसकी शैतानियाँ किस तरह की हो. इस बात से कोई भी इन्सान इंकार नहीं कर सकता कि उसने शैतानियाँ न की हो. हाँ उम्र के इस पड़ाव में लोग-बाग़ अपनी बचपन की शैतानियों को अपने बच्चों के सामने कहने से हिचकते जरुर हैं. कभी -कभी कई बच्चे मिल कर कोई ऐसी शैतानी करते हैं तो उसका परिणाम ख़राब भी हो सकता है . अपने मोहल्ले के शैतान बच्चों में मैं भी शुमार था ,उन दिनों जो शैतानियाँ की थी उसे याद कर आज भी रंगोटे खड़े हो जाते हैं. ख़ैर साहब आप सब के सामने बताने मैं कोई हिचक महसूस नहीं कर पा रहा हूँ.
शहर के पुराने मोहल्ले की संरचना अपने मष्तिक
में कर लीजिये ,यह इस लिए कि अब मोहल्ले कम कालोनियां अधिक
उग आईं हैं.ऐसा ही फैजाबाद शहर के बीच हमारा
मोहल्ला है 'तेली टोला', तेली
टोला नाम क्यों पड़ा इसका कोई इतिहास लिखित रूप में नहीं है. बचपन में जो बुजुर्गों
से सुनता था उसके मुताबिक इस मोहल्ले में कड़ुआ तेल (सरसों का तेल,जिसे
आज की पीढ़ी ‘मस्टर्ड आयल’ के नाम
से जानती है) का व्यवसाय करने वालों की आबादी अधिक थी,इसी
कारण मोहल्ले का नाम तेली टोला पड़ा .वैसे इस मोहल्ले में सभी जाती व समुदाय के लोग
रहते हैं,परन्तु कभी भी किसी तरह का विवाद या संघर्ष नहीं
हुआ.
तेली टोला मैं लालाओं यानी कायस्थों की संख्या बहुल्य है. बात सन 1972-73 की
ही होगी ,एक चाचा रहते थे ,उस समय
उनकी उम्र रही होगी 60 के ऊपर ही ,
बच्चे-बूढ़े ,जवान
सभी ....लाला के नाम से पुकारते थे ,मतलब फलां चाचा ,फलां
बाबा आदि-आदि . उनकी आदत थी कि वह कभी भी अपने घर के भीतर नहीं सोते थे. अच्छी तरह
याद है कि उन्हें घर के बाहर ही एक छोटी सी चारपाई (जिसे स्थानीय बोली में खटोला बोलते
हैं) पर ही सोते देखा था. जो लोग मोहल्ले में पले-बढ़े उन्हें मोहल्ले के वातावरण की
अच्छी जानकारी होगी ही. मेरे घर के सामने एक कुआं था (है तो अभी भी लेकिन अब वह आधुनिक
मकान की चाहर दीवारी में कैद है)वहीँ पर रात
आठ बजे खाना खाने के बाद सभी की बैठकी लगती थी. एक रात हम लोग एक कवि सम्मलेन सुनकर लौट रहे थे , ...चाचा
को मोहल्ले के लड़कों ने घर के बहार सोते देख लिया ,फिर क्या दिमाग में
बदमाशी सूझी और उन्हें चारपाई सहित अहिस्ता से बिना किसी शोर-शराबे के उठाया और चौक
घंटा घर पर छोड़ कर भाग लिए. सुबह लगभग चार बजे के आस-पास जब चाचा की नींद खुली तो अपने
को घंटाघर के नीचे लेटा देखकर हैरान हो गए . उनकी समझ में यह नहीं आ रहा था कि आखिर
वह यहाँ तक पहुंचे तो कैसे? फिर वह समझ गए कि यह सब मोहल्ले के बदमाश
लड़कों की ही शैतानी होगी. बेचारे किसी तरह अपने खटोला को लेकर घर पहुंचे .
इधर पूर्व दिशा में अपनी शीतल लालिमा को सूर्य देवता रंग बदलते हुए ऊपर चढ़ रहे
थे,उधर चाचा
रात की घटना से क्रोधित होते हुए बदमाश टोली के बच्चों के घरों पहुँच कर घटना
की जानकारी का उलहेना (शिकायत) दे रहे थे.भाई साहब उसके बाद की घटना का उल्लेख करना
बेकार ही होगा ,वह तो आप समझ ही गए होंगे कि उस सुबह नाश्ते
में क्या मिला होगा. वह दिन याद कर आज भी दर्द उठ ही जाता है. वहीँ अपने किये पर अब
पछतावा होता है ,लेकिन कबीर का लिखा दोहा ,'अब पछताय होत का
,जब चिड़िया चुग गई खेत', के लिए
प्रयाश्चित तो किया ही जा सकता है न.
चलते-चलते यहाँ पर दो बातों का उल्लेख जरुर करना चाहूँगा ,पहला
यह कि उन .... चाचा के नाम का उल्लेख इस लिए नहीं किया ,क्यों
की उनके नाती-पोते हैं. किसी परिवार के बारे में कुछ भी कहना न्यायोचित नहीं है और
कभी उनके परिजनों को मैं अकेला मिल गया तो सोचिये इस बुढ़ापे में मेरा क्या होगा..हा.हा..हा...|दूसरी
महत्वपूर्ण बात ,तब फैजाबाद (आज का अयोध्या जिला) इतना संवेदनशील
नहीं था, आज दिन रात व्यस्त रहने वाला शहर का मुख्य बाज़ार
चौक शाम नौ बजे के बाद सुनसान हो जाता था. कभी कदापि पुलिसिया गाड़ियाँ ही दौड़ती थी.दंगा-फसाद
यह सब तो अस्सी के दशक के बाद शुरू हुआ मेरे भाई. अमन-शांति और चैन का शहर था अपना
छोटा सा अंचल ‘फैजाबाद.
(फैजाबाद ,चौक का प्रतीकात्मक फोटो)
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