अयोध्या और मैं -6
जहाँ तक मैं समझता हूँ कि देश के नब्बे प्रतिशत बच्चों से यदि गांव के बारे में पूछा जाये तो वह अपने ददिहाल के बजाय ननिहाल का ही जिक्र करेंगे .करें भी क्यों न ,क्यों कि जो मान-सम्मान प्रतिष्ठा उन्हें अपने माँ के गांव में मिलती थी /है वह अपने पिता के गांव में नहीं .मैं ने भी अपने गांव को अपने ददिहाल से कहीं अधिक ननिहाल में देखा है. जहाँ हर साल गर्मी की छुट्टियों में पूरा दो माह बिताते थे .
20 मई की सुबह 10 बजे तक स्कूल में परीक्षा परिणाम (रिजल्ट) लेने के बाद नानी के पास जाने का निर्धारित कार्यक्रम तय रहता ही था . मेरा ननिहाल फैजाबाद शहर से मात्र तीस किलोमीटर दूर सुल्तानपुर रोड पर बीकापुर तहसील के अंतर्गत एक प्रमुख बाज़ार है खजुरहट के निकट गड़ई गांव में है .जहाँ आज भी मामा -मामी उनके बच्चे ,बच्चों के बच्चे रहते हैं . हाँ तो कह रहा था कि रिजल्ट लेने के बाद हम दो भाई (मुझसे छोटा) दोपहर की एक बजे फैजाबाद से इलाहबाद (आज जिसे प्रयागराज का नाम मिल गया है)जाने वाली सवारी गाड़ी पकड़ लेते और लगभग एक से सवा घंटे का सफ़र छुक-छुक रेल गाड़ी से तय कर खजुरहट स्टेशन पर उतर जाते . तब हाथ में कोई बैग या ब्रीफकेस तो होता नहीं था ,अम्मा के हाथ का सिला दो टंगने वाला "झोला" ही होता था जिसमें दो -तीन निकर ,बुशर्ट ,पटरी वाली जांघिया होती. खजुरहट स्टेशन से नाना का गांव लगभग पांच किलोमीटर तो होगा ही ,स्टेशन से उतर कर खेतों के बीच पगडंडियों को पकड़ कर चल देते ,तब गांव मैं रिक्शा या अन्य साधन नहीं थे न भाई,सो पैदल ही चलना पड़ता था. उस समय उम्र रही होगी 13-14 साल ,जहाँ तक याद आ रहा है ट्रेन का टिकट होता था एक रुपये. स्टेशन से गांव जाने में खजुरहट बाज़ार पड़ता ,जहाँ पर छोटे मामा की किराना की एक छोटी सी दुकान थी, थोड़ी देर वहां पर रुकना ,लेमन चूस चुसना फिर गांव जाने वाले किसी की साईकिल पर मामा बैठा देते ,और पहुँच जाते नानी के पास.
नाना पांच भाइयों मैं सबसे बड़े थे ,जिनका नाम था चंद्रभान लाल ,उनके बाद सूर्यभान,शशिभान ,रविभान एवं सबसे छोटे नाना का नाम था रुद्र्भान लाल . शशिभान नाना प्रधान थे,रवि भान नाना खजुरहट इंटर कॉलेज में आर्ट के मास्टर थे,इसलिए उन्हें सभी मास्टर नाना कहकर बुलाते थे. सूर्यभान एवं रूद्र भान नाना फैजाबाद कचहरी में वकालत करते थे. मास्टर नाना का निधन बहुत कम उम्र मैं हो गया था,उनकी हलकी सी स्मृति ही मस्तिष्क में है.मेरे नाना यानी चंद्रभान लाल बनारस के उद्योगपति के यहाँ उस समय में मैनेजर हुआ करते थे. झक सफ़ेद धोती ,कलफदार सफ़ेद कुर्ता उस पर खादी की सदरी एवं सर पर टोपी उनका नियमित पहनावा था.नाना के पिता जी यानी मेरे परनाना का नाम था गंगा सहाय ,नाना की दो बहने भी थीं,जिन्हें हम लोग बड़की बुआ एवं छोटकी बुआ नानी के संबोधन से बुलाते थे . बड़की बुआ नानी को कोई बच्चा नहीं था,जबकि छोटकी बुआ नानी को एक लड़की एवं तीन लडके थे. नाना के पांचो भाइयों से 11 लडके एवं 11 लड़कियां थीं. इन सबमें मेरी अम्मा (नाम उमा था पर घर वाले बुंदल के नाम से संबोधित करते थे)सबसे बड़ी थीं . जिनका पूरे गांव में इतना सम्मान था कि पूछिए नहीं. इस लिए गड़ई गांव में घुसते ही लोगों को पता चल जाता था कि बुंदल के बच्चे आयें हैं. किसी के खेत से गन्ना हो या गंजी उखाड़ लो, किसी के आम के बाग़ से आम तोड़ लो कोई बोलने वाला नहीं ,मतलब ननिहाल में सौ खून माफ़.
नाना के साथ अपनी नानियों के बारे मैं भी बताता चलूँ. मेरी नानी सुंदरी देवी सबसे बड़ी थीं,गोरी,कद काठी की अच्छी ,परिवार के सभी लोग उन्हें दुध्धू अम्मा के संबोधन से बुलाते थे.पूरे घर का नियंत्रण उन्ही के हाथ में था .यद्यपि सभी नानियों का अपना-अपना काम बटा था.दूसरे व तीसरे नंबर वाली नानी फैजाबाद में रहती थी.तीज -त्यौहार एवं गर्मियों की छुट्टियों मैं ही उनका गांव आना होता था. गांव पर रहने वाली नानियों में मेरी नानी व उनके बाद प्रधान नाना वाली नानी और मास्टर नाना वाली नानी ही रहती थी. प्रधान नाना वाली नानी को प्रधानीन नानी एवं मास्टर नाना वाली नानी को करसारी वाली नानी कह कर बुलाते थे,कारण उनका मायका करसारी गांव में था. पुरे घर का देखभाल -हिसाब-किताब मेरी नानी के पास होता था. जबकि गल्ला-पानी का नियंत्रण प्रधानीन नानी के पास . प्रधानीन नानी एवं करसारी वाली नानी के हिस्से में पूरे घर का खाना सुबह-शाम बनाना अतिरिक्त जिम्मेदारी थी . तब बड़े-बड़े हंडों में रोज का खाना बनता था ,आज की तरह प्रेशरकूकर में नहीं. सब्जी-भाजी का मामला बड़ी नानी के पास. जब फैजाबाद वाली दोनों नानियाँ आतीं तो उनके जिम्मे भी खाना बनाने का दायित्व बढ़ जाता.
गांव का नाम 'गड़ई' क्यूँ पढ़ा यह तो नहीं मालूम लेकिन गांव में कई छोटे-छोटे तालाब जरुर थे,जिसे स्थानीय भाषा में गढ़ई बोलते थे, उन तालाबों से बहुत मछली मर कर खाई है. अब तो उन तालाबों की जगह छोटे-छोटे घरों अपना कब्ज़ा कर लिया है. नाना का घर इसी तरह एक छोटे से तलब के ऊपर टीले पर है ,यह अलग की बात है की समय के थपेड़ों की वजह से उसका स्वरुप जरुर बदल गया है ,लेकिन दिल व दिमाग में आज भी वही नानी -नाना और अम्मा मतलब 'बुंदल जीया' का मायका अंकित है,अम्मा गांव मैं भी शायद सबसे बड़ी थीं इस लिए उन्हें लोग जीया और 'बुंदल बहिनी' कह कर ही बुलाते थे . 'गड़ई' में लगभग सौ घर तो रहे होंगे उस समय,जिनमें सभी जाती धर्म के लोग रहते थे,मिलनसार इतने कि किसी के यहाँ किसी तरह काम-काज होता तो पता ही नहीं चलता की कैसे हो गया.
चलते-चलते बताता चलूँ की उस समय नाती और भांजे होने का कितना लाभ मिलता था कि पूछिये नहीं. गांव मैं दो-तीन घर मुस्लिम परिवार के भी थे . उनमें एक घर था मौलवी नाना का ,उम्र रही होगी सत्तर-अस्सी साल के बीच, गर्मियों की छुट्टी मैं सभी मामा ,मौसियों का परिवार तो इकठ्ठा ही होता था,दर्जनों बच्चे मौलवी नाना के यहाँ अक्सर मठ्ठा पीने को मिलता ही था .अगर किसी दिन नहीं मिला तो ,बस पूछिए मत . उस ग्रुप में जो बच्चा बड़ा होता वह लीडर होता,उस दिन वह आगे चलता और मोलवी नाना के इर्दगिर्द चक्कर लगते हुए नारा लगते 'मोलवी साहब बंदगी .... फिर उनके पीछे चलने वाले बच्चे बोलते पा..ओं सारी जिंदगी '. मौलवी नाना अपनी छड़ी लेकर मारने दौड़ते .लेकिन कभी भी मौलवी नाना ने किसी बच्चे पर पर हाथ नहीं उठाया. बल्कि बुला कर मठा जरूर पिलवाते थे. यह होता था ननिहाल का वह सुख, जिसकी कल्पना आज पीढ़ी कर नहीं सकती .
(इसके बाद की बात अगले रविवार को यहीं पर)
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