अयोध्या
और....8
हाँ
तो बरामदे में बैठे रहते,इसी बीच एक भैसा गाड़ी आती जो
दो पहियों पर होती ,उसमें बड़ा टैंक होता ,जिसमें हर घर का पाखाना भरा जाता . नई पीढ़ी को तो इसकी जानकारी ही नहीं होगी
.उसका भी अलग मज़ा होता .हर घर के पीछे के हिस्से में खुड्डी नुमा पखाने बने होते
,वह भी एक नहीं कम से कम चार तो होते ही थे.जिनके बीच मैं एक दीवार सी
होती.सभी एक दूसरे से बात तो कर सकते थे,लेकिन देख नहीं सकते
थे. इसी बीच मल्ल (उसे भी एक नाम से पुकारते थे लेकिन अब उस नाम का उल्लेख करना विवाद
का मुद्दा बन सकता है.)उठाने वाला आता और
अपने एल आकर के यंत्र से पीछे से ही खींच
लेता और उस भैंसा गाड़ी मैं डाल देता .फिर उसे कहाँ ले जाते यह आज तक नहीं जान सका.
जब भैंसा गाड़ी चली जाती तो थोड़ी देर बाद एक व्यक्ति अपने कंधे पर किसी जानवर के खाल
नुमा बैग में पानी भर कर लाते और घर के बहार की नालियों में डालते जाते. जिससे नाली
साफ़ होती रहती थी.यह प्रक्रिया रोज की थी. समय बदला ,तकनीकी बदली
,आज सब कुछ बदल गया. जहाँ तक अपने मस्तिष्क पर जोर दाल रहा हूँ तो इतना
याद आ रहा है कि सन 1973-74 तक तो देखा ही है.
हाँ बात हिन्द बिस्कुट वाले बाबा की ,हर सुबह लगभग 60 के उम्र के एक वृद्ध बाबा अपने कंधे पर एक बड़े से लोहे के
बक्सा लेक चलते और बोलते जाते,'हिन्द बिस्कुट '.हर सुबह लगभग हर घर के बाहर वह रुकते. उनके बक्से में उस समय बेकारी के तरह-तरह
के स्वादिष्ट बिस्कुट ,खारा एवं डबल रोटी ,जिसे अब अंग्रेजी मैं हम ब्रेड कहते हैं,होता था. उन्ही
के हमउम्र के मेरे बाबा भी थे,सो उनके साथ काफी बैठती थी.घंटो
दोनों लोग आपस में बतियाते रहते.इस बीच जिसको
बिस्कुट या डबल रोटी लेना होता वह मेरे घर के बरामदे में आ जाते. अब न दोनों
बाबा रहे,न बिस्कुट का वह स्वाद .बस सब यादों की कब्र में समाहित
हो गईं बातें ही रह गईं .
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