बुधवार, 22 जून 2022

घुघरी और हम भाई-बहन

 अयोध्या और मै -9

बात साठवें दशक की है,जन्मा तो फैजाबाद (अब अयोध्या) में ,लेकिन प्राथमिक शिक्षा बनारस में हुई ,वहीं लहुराबीर पर क्वींस कालेज के ठीक बगल के प्राथमिक पाठशाला में .बाबू उत्तर प्रदेश राजस्व विभाग में थे,सरकारी नौकरी वह भी तबादले वाली ,हर तीन साल के बाद तबादला . फैजाबाद के बाद बनारस तबादला हो गया . कुछ दिन नदेसर के पास घौसाबाद में एक स्टेशन मास्टर के घर में किराये पर रहे ,घर क्या एक कमरा,एवं बरामदा था बस.कुछ ही दिन वहां रहे होंगे कि इसी बीच  वाराणसी नगर पालिका ने निम्न आय वर्ग के लोगों के लिए लहुराबीर पर पिशाच मोचन घाट के पास दो मंजिला क्वार्टर बनवाए थे . बाबू ने उनमे से एक क्वार्टर अपने नाम एलाट करवा लिया था .जहाँ तक मुझे याद आ रहा है कि उसकी सिक्योरिटी राशि 65 रुपये जमा हुई थी.जिसका मासिक किराया था पांच रुपये.

   उस समय बाबु की तनखाह थी मात्र 60 रुपये.उसमे पांच बच्चों का पालन पोषण के साथ-साथ धार्मिक नगरी आने वाले रिश्तेदारों का आवभगत भी करना . ख़ैर साहब इसके लिए अम्मा का कोई जवाब नहीं रहा होगा ,कैसे चलाती रहीं होगी घर को. आज तो हर रोज़ दंगा हो जाये.भईया ,जिज्जी और मै पढ़ने भी जाते थे ,छोटा भाई और बहन बहुत छोटे थे.

  यह इसलिए लिख रहा हूँ कि कल 'काले चने की घुघरी' खाई ,उसके खाने के साथ-साथ बचपन की सारी तस्वीरें एक-एक कर मस्तिष्क पटल पर अंकित होती गई. वैसे बनारस में सुबह 'कचोरी' के साथ आज भी काले चने की स्वादिष्ट 'घुघरी' मुफ्त में दी जाती है,जिसके स्वाद को बयां नहीं कर पा रहा हूँ. हाँ तो बात घुघरी की चल रही थी,घुघरी खा कर कई -कई दिन हम भाई-बहनों ने काटे हैं.यह कहने मैं मुझे जरा सा भी संकोच नहीं हो रहा है,अगर आप ने अपने अतीत को भुला दिया तो आप को मानव योनी मैं रहने का कोई अधिकार नहीं है.

    साठ रुपये की तनखाह ,पांच बच्चों को पालना को आसान कम तो रहा नहीं होगा .काला  चना बहुत अधिक महंगा भी नहीं रहा होगा.इसी लिए आम घरों में अधिक उपयोग किया जाता रहा होगा.घुघरी के साथ-साथ अम्मा दूध भी देती थीं . उसके पीछे की कहानी  अक्सर  हम लोगों को बताया करती थी कि दूध की मात्रा सीमित होती थी ,इसलिए उसमें आटे को मिलकर घोल देती थी,ताकि कोई बच्चा भूखा न रहे. अब सोचता हूँ कि वह और बाबू क्या खाते रहें होंगे. ऐसा भी नहीं था कि गावं में खेती-बाड़ी नहीं थी, गाँव गोंडा जिले के नवाबगंज में है,तब बनारस -फैजाबाद के बीच आवागमन के इतने साधन भी नहीं रहे होंगे.इस लिए वहां से लाता कौन ? आज न तो अम्मा हैं न ही बाबू  ,लेकिन उनकी यादें बार-बार मन को झकझोर कर रख देती हैं.कितना कष्ट सहा होगा उन लोगों ने. आज हम झट मोबाईल उठाये और खाने -पीने का आर्डर दे दिया,दस मिनिट में पका-पकाया खान आप के घर के दरवाजे पर. सच पिछले साठ सालों में कितना कुछ बदल गया है,या यूँ कहें एक नई दुनिया का निर्माण हुआ है. 

(नीचे के चित्र में बाबू अपने दोस्तों के साथ पीछे खड़े हुए । चित्र उस समय का है जब वह कानपुर विश्वविध्यालय में बी॰ ए॰ प्रथम वर्ष में थे। ) 


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