अलकनंदा :
‘उन्हीं के शहर के आबो हवा में उनका नाम नहीं’
डॉ प्रदीप श्रीवास्तव
संगीत हो या नृत्य ,कला में जब तन्मयता का समावेश हो जाता है तब उसकी संप्रेषणीयता कई गुना बढ़ जाती
है । नृत्यांगना के घुंघुरुओं की झंकार अपने प्रभाव से श्रोताओं और दर्शकों के चेहरों
पर प्रतिक्षण चढ़ते-उतरते भाव से स्पष्ट कर देते हैं । फिर कत्थक की थिरकन पर तो मन
भी थिरकने लगता है । 'कत्थक' का शाब्दिक अर्थ होता है 'कथा' कहने वाला । 'कत्थक' शब्द का उल्लेख ब्रह्म पुराण में भी मिलता है। यही नहीं महाभारत एवं महर्षि
भरत द्वारा रचितग्रंथ 'नाट्य शास्त्र 'में भी कत्थक शब्द का उल्लेख है। अगर देखें तो "कत्थक नृत्य संपूर्ण जीवन
को चित्रित करता हुआ सौंदर्य की सृष्टि करता है। नृत्य और नाट्य के सम्मिश्रण, कत्थक के सृजन ,संरक्षण और विनाश , इन तीनों के पहलुओं का प्रतिविम्ब दिखाता है ।
कला,साहित्य एवं सांस्कृतिक की राजधानी कही जाने वाली काशी या बनारस ‘जिसे आज कल वाराणसी कहा जाता है,’ की थीं अलकनंदा । लेकिन आज वही अलकनंदा अपनी ही काशी की गलियों में न जाने कहाँ
गुम हो गईं है,जिन्हें लोग जानते तक नहीं
हैं । इतना ही नहीं अब तो वे इतिहास के पन्नों से भी मिटती जा रही हैं । यहाँ तक कि
विकिपीडिया या फिर गूगल बाबा के पास भी कोई जानकारी उनके बारे में उपलब्ध नहीं है।
बात केवल हिन्दी में ही नहीं अँग्रेजी में भी एक शब्द आप को नहीं मिलेगा। मिलेगा तो
केवल इतना कि वह कत्थक नृत्यांगना सितारा देवी की बड़ी बहन थीं।
19 वीं सदी के आरंभ में वाराणसी के
कबीरचौरा मोहल्ले में उस समय के कत्थक नृत्य असाधारण मर्मज्ञ पंडित सुखदेव महराज के
यहाँ अलकनंदा का जन्म हुआ था।अलकनंदा,तारा
एवं सितारा तीन बहनें थीं । सुखदेव महराज स्वयं राजाओं- महाराजाओं के दरबार में नाच-गाकर
अपनी कला का प्रदर्शन किया करते थे।
उनकी बड़ी इच्छा थी कि वह राजाओं के दरबारों में अपनी बेटियों के कला का भी प्रदर्शन
करें । परिवार में नृत्य का माहौल होने के कारण अलकनंदा का इस ओर आकर्षित होना स्वाभाविक
था ही ।छोटी सी उम्र में ही अलकनंदा के पाँव स्वत: थिरकने लगे थे। जिसे देख कर पंडित
सुखदेव महराज ने लखनऊ के अच्छन महराज से ‘गण्डा’ (गुरु-दीक्षा) बँधवा दिया। इस तरह कत्थक से जुड़ गई छह वर्षीय फूल सी कोमल अलकनंदा
।
अलकनंदा जी की मृत्यु से ठीक दस-बारह दिन पहले में उनसे मिलने अस्पताल गया था
। यह भी एक संयोग ही था । हुआ यूं कि उन दिनों की प्रसिद्ध कत्थक नृत्यांगना एवं भोजपुरी
की लोकप्रिय अभिनेत्री मधु मिश्रा से मिलने उनके राम कटोरा वाले घर पर गया, मुझे देख वह चिहंक उठी और बोलीं कि अच्छे समय पर आए प्रदीप । आओ चलते हैं जिला
अस्पताल ,अलकनंदा बुआ वहाँ भर्ती हैं
। इसी के साथ पूरा विवरण बता दिया मुझे। जिनकी देख-रेख उनके छोटे भाई दुर्गा प्रसाद
जी कर रहे थे । रात यही आठ बजे होंगे हम लोग अस्पताल पहुंचे। उनका हाल-चाल लिया, काफी देर तक बातें होती रहीं। अगले दिन बातचीत करने की बात कर के वापस लौट आया
।
दूसरे दिन दोपहर में मित्र छायाकार
जितेंद्र के साथ पुनः अस्पताल पहुंचा । काफी देर तक बात होती रही । थोड़ी देर तक वह
भावुक हो कर ऊपर छत की ओर देखती रहीं , शायद
अपनी स्मृतियों में खो गईं थीं ,अचानक बोल उठी ‘कहाँ नहीं नाचा ,दक्षिण पूर्व एशिया
के लगभग सभी देशों सहित पूरे भारत में। बड़ा दुख सहा है बेटा,इस नाच के पीछे । क्या-क्या नहीं सुना ,पिता
जी से कहा जाता था कि देखो अपनी लड़कियों को नचवा रहा है । इतना ही नहीं ,हम लोगों को बिरादरी से बाहर तक कर दिया गया । पर हम कला के सच्चे उपासक ,धुन के पक्के ,बेपरवाह आगे बढ़ते गए।
यह पूछने पर कि आपने के शिष्यों के
बारे में कुछ बताएं? इस पर वह बोलीं,नाच,पता नहीं कितनों को सिखाया।
नाम तो याद नहीं है ,अरे अब वो ही भूल गए। सही बोलूँ, तो
कभी साज-साजिन्दों की तरफ ध्यान ही नहीं दिया।जब देखती किसी को काम नहीं मिल रहा है
तो उससे कहती कि बस तू थप-थप करता जा ,मैं
नाच लूँगी। इससे मुझे खुशी मिलती कि उसे काम मिल गया।
उम्र आते ही पिता जी ने शादी कर दी
,पर जिंदगी ही मात दे गई । मुझसे
कोई बच्चा नहीं हुआ तो पति उसी के गम में भटक गए। पर अलकनंदा जी ने पति का नाम नहीं
बताया, इतना कह कर चुप हो गईं कि ,अब बताने से क्या मिलेगा। फिर आगे बोलीं हाँ मैं ने जिंदगी में कभी गम नहीं
किया । अगर किया होता तो तबेदिक (टीबी)की मरीज हो जाती।इसी के साथ उनके ओठों पर एक
दर्द भरी मुस्कान तैर गई, जिसने उनके दर्द को स्वयं बयां कर दिया।
जिला अस्पताल का महिला वार्ड
,जहां वह अपने एक खराब गुर्दे
का इलाज़ करवा रही। शोरगुल के बीच बातचीत का सिलसिला जारी, मैं उनके चेहरे को निरंतर देखे जा रहा था । चेहरे पर
झुरियों की जवानी ,उस पर तैश में निकलती
कर्कश आवाज़ में वह बोलती जा रही थीं। सच पूछो तो कत्थक का पहला नाच हम ने ही नाचा है
। हमी लोगों के बदौलत बनारस घराना चला । इसे कोठे से नीचे उतारने का सारा श्रेय पिता
जी को ही जाता है।दोनों छोटी बहनें तारा एवं सितारा के बदौलत ही तो आज कत्थक को लोग
जान रहें हैं । मुझसे छोटी बहन तारा तो असमय ही चली गई । अब सितारा ही तो इस परंपरा
को आगे बढ़ा रही है।
अब
मेरे पास इतनी ताकत कहाँ कि नाच सकूँ, अभी
दो साल पहले ही दिल्ली के आइपेक्स हाल में पैतालीस मिनट तक नाची थी। बस अब कुछ दिन
ही तो और रहना है। भावुक हो कर बोलीं कि कलाकार मरता है,उसकी
कला नहीं।
अस्पताल से लौटने के बाद उनके साथ
हुई बातचीत की रिपोर्ट तैयार की और धर्मयुग के लिए भेज दी ,इस उद्देश्य से कि छप जाएगा तो ठीक नहीं तो कोई बात नहीं। भेजे हुए तीन–चार दिन ही हुए थे। उन दिनों काशी विद्यापीठ वाराणसी से अर्थशास्त्र में परास्नातक
भी कर रहा था । दोपहर का समय था, मेरे एक मित्र विध्यापीठ आए और बोले कि पहले मुह मीठा कराओ, मै ने उनसे जानना चाहा कि किस बात के लिए भाई ,वह
कुछ बताने से इंकार करते रहे । उन दिनों छात्रों के बीच मुह मीठा करने का मतलब होता
था एक पूरी या आधी कप चाय। खेर साहब ,बेरोजगार
था ,किसी तरह कुछ पैसों का वहीं
इंतजाम किया और चाची के चाय की दुकान पर उन्हें (इसी बीच कई और मित्र भी आ गए वहाँ)
लेकर गया ,जब चाची (जिनकी विध्यापीठ के
ठीक सामने दुकान थी ,वही चाची जिनका छात्र
जीवन का कर्ज प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी भी नहीं उतार पाये थे, चाची पर फिर कभी चर्चा करूंगा) को चाय पिलाने का आर्डर दिया
,तब जा कर मित्र ने मुझे “धर्मयुग” दिखाया। जिसमें एक छोटा बाक्स आइटम अलकनंदा जी पर मेरा छपा था,जिसका शीर्षक था “अलकनंदा देवी: उपेक्षित
कलानेत्री” । उस समय ‘धर्मयुग’ में छपना बहुत बड़ी बात हुआ करती थी। देश के प्रतिष्ठित लोग ही उसमें स्थान पाते थे। धर्मयुग का वह अंक था 6-12 मई 1984 का। मुझे
भी विश्वास नहीं हो रहा था कि यह मेरा ही है। क्योंकि लगभग एक सप्ताह पहले ही तो साधारण
डाक से भेजा था। जो उसी सप्ताह के अंक में आ भी गया था। यह बात होगी 10 मई की । इधर
इस खबर (यही कहूँगा) के छपने के बाद बनारस की स्थानीय संस्थाओं व जिला प्रशासन को पता
चली तो लोग अस्पताल की ओर दौड़ पड़े। इस बीच बनारस शहर में मेरी भी पहचान बन गई । 13
मई 1984 के शाम की बात है, यही सात बज रहे होंगे, तभी पोस्टमैन एक तार (टेलीग्राम) लेकर मेरे घर आए, तार
का नाम सुनते ही उस समय सभी के होश उड़ जाया करते थे। अम्मा ने रिसीव किया। मेरे नाम
से था, इस लिए उन्हें और जिज्ञासा
थी कि इसमे क्या लिखा है। तत्काल मेरी खोज शुरू हुई ।लहुराबीर स्थित प्रकाश टाकीज़ पर
खबर पहुंची कि तुरंत घर पहुँचो ,कोई टेलीग्राम मेरे
नाम आया है। मैं तुरंत घर पहुंचा। तार को पढ़ा तो खुशी का ठिकाना नहीं रहा,वह तार था धर्मयुग के संपादक श्री धर्मवीर भारती जी का। जिसमें उन्हो ने अलकनंदा
जी के इलाज के लिए धनराशि भेजने के हेतु उनके घर का पता लौटते तार से मांगा था। तार
मिलते ही मैं भागा-भागा अस्पताल के महिला वार्ड में पहुंचा तो पता चला कि कल शाम ही
उनका हृदयगति रुक जाने से निधन हो गया था। वहाँ से निकल कर सीधे कबीरचौरा स्थित उनके
घर पहुंचा ,जहां पर उनके छोटे भाई दुर्गा
प्रसाद जी ने सारी जानकारी दी।
दुर्गाप्रसाद जी से मिलकर तुरंत नदेसर
पहुंचा, वहाँ पर मुख्य डाकघर हुआ करता
था , वहीं से श्री भारती जी को तार
के माध्यम से अलकनंदा जी के निधन की भेजी। दूसरे दिन 14 मई को एक रजिस्टर्ड पोस्ट से
धर्मयुग का एक लिफाफा मिला ,जिसमे एक बड़ी राशि का
चेक उनके नाम का भारती जी ने भेजवाया था। जिसे उसी तरह लिफाफे में रख कर लौटती रजिस्टर्ड
डाक से वापस भेज दिया था। आज के समय में कोई इस बात पर विश्वास ही नहीं करेगा कि इतनी
तेज गति से कभी काम भी हुआ करते थे।
(यहाँ पर सभी चित्र उनके प्रपौत्र विशाल कृष्णा ने उपलब्ध करवाए हैं।)