सोमवार, 25 अक्तूबर 2021

जब षड्यंत्र का शिकार होते-होते बचा


बनारस नामा – 6 

  पायलट बाबा के समाधि न लेने की घटना के बाद वित्त अधिकारी के कुछ खास चहेते अब मुझे फ़साने का षड्यंत्र रचाने लगे, छात्र राजनीति में सक्रीय था ही , छात्रसंघ में संस्कृति सचिव का चुनाव हार ही चूका था, हरा क्या था ,जमानत तक जब्त हो गई थी. ख़ैर अगले साल निर्विरोध चुना गया था. हाँ उन चहेतों में एक हमारे प्रोफ़ेसर साहब भी होते थे.उन दिनों बनारस शहर के तीनो विश्व विद्यालय (काशी विद्यापीठ , बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय एवं डॉ संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय) अराजकता के केंद्र भी होते ही थे,मार-पीट,दबंगई आदि आम बात थी. हुआ यूँ कि एक शाम विद्यापीठ परिसर मैं आचार्य नरेंद्र देव छात्रावास में मेरे कुछ सहपाठी रहते थे,उन्हीं के पास बैठा हुआ था, सुबह तीन बजे की पसेंजर गाड़ी (बनारस-लखनऊ ) से अपने घर फैजाबाद (अरे भाई अब अयोध्या,आगे से अयोध्या केंट कहियेगा) जाना था, लगभग रात के 11 बजे वहां से उठा अपने घर गया और सुबह की गाड़ी से फैजाबाद चला गया. 

  इधर सुबह हुई ,दिन के लगभग 11 से 12 बजे के बीच उसी हास्टल में पुलिस का छापा पड़ा और उसी कमरे से कुछ देशी असलहे जमीन के नीचे से बरामद हुए. उधर क़ानूनी प्रक्रिया चल रही थी, इसी बीच हास्टल  के सहपाठी भागने में सफल हो गए. यह खबर उन प्रोफेसर साहब तक पहुंची,और उन्हें यह पता चला कि रात मैं भी उसी कमरे में बैठा था, फिर क्या मेरी खोज जोर-शोर से शुरू हो गई . उधर मेरे कुछ सहपाठी जो हरदम साथ रहते थे उनको उन प्रोफेसर साहब ने पकड़ लिया . और उनसे मेरे बारे मैं जानकारी लेने का दिन भर प्रयास किया,लेकिन सही मैं उन सहपाठियों को भी कुछ पता नहीं था, और मुझे भी. दोपहर बाद कुछ लोग मेरे बनारस वाले घर भी गए तो कालोनी के लोगों ने बताया कि वह तो रात ही अपने घर फैजाबाद चले गए हैं.तब जा कर उन सहपाठियों को प्रोफ़ेसर साहब ने आज़ाद किया. सही बताऊँ छात्रावास की उस घटना के बारे में मुझे भी कोई जानकारी नहीं थी. ख़ैर साहब एक बड़ी मुसीबत से बाबा बोले नाथ के आशीर्वाद से बच गया. नहीं नो जिंदगी भर का कलंक लग जाता. 

जब कुलपति जी ने मीठी डांट पिलाई ....

जुलाई-अगस्त का महिना रहा होगा ,सभी पाठ्यक्रमों में प्रवेश प्रक्रिया लगभग बंद हो चुकी थी. तभी एक दोपहर की बात है ,मैं अर्थशास्त्र विभाग के परिसर में नीम के पेड़ की छाँव में मित्रों के साथ बैठा,तभी मिर्ज़ापुर जिले कि दो छात्राएं वहां आईं और पूछा कि गाँधी जी कौन हैं, दोस्तों ने मेरे तरफ ईशारा करते हुए कहा कि यहीं हैं. इस पर उन छात्राओं ने कहा कि ‘लेखा विभाग’ में प्रवेश शुल्क नहीं जमा कर रहें हैं, अगर आप चाहेंगे तो हो सकता है,इस पर मै ने भी अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए अपना पीछा छुड़ाना चाहा लेकिन वे मानाने को तैयार ही नहीं हो रही थी. उनका कहाँ था की सभी ने यही कहा है कि आप चाहोगे तो हो जायेगा. इतने में एक छात्रा के दोनों नयनों से गंगा-जमुना की धारा अविरल बह चली ,अब आप ही सोचे इन गंगा-जमुनी धारा के चलते जब हमारे ऋषि मुनियों ने अपनी प्रतिज्ञा तक तोड़ दी थी,तो मेरी क्या बिसात. उधर मित्रों का उकसाना जारी ही रहा.

  ‘मरता क्या न करता’ वाली कहावत को चरितार्थ करता हुआ उनके साथ ‘भारत माता मंदिर ‘के बगल वाले भवन में पहुंचा, उन दिनों विद्यापीठ का प्रशासनिक कार्यालय वहीँ होता था. वहां पर क्लर्क महोदय ने फार्म लेने से साफ इंकार कर दिया. काफी अनुनय-विनय किया,लेकिन वे अपनी सीमा की बाध्यता के चलते अपने को असमर्थ पा रहे थे. तभी किसी ने कहा कि इस पर कुलपति महोदय अपनी चिड़िया(हस्ताक्षर) बैठा दें तो मुझे लेने में कोई परेशानी नहीं होगी. कुछ राह दिखी ,उन महिलाओं को ले कर कुलपति जी के कार्यालय पहुंचा,जो परिसर में ही था. उनके पी.ए. से काफी अनुरोध करने के बाद मिलाने की अनुमति मिली .(एक बात बताता चलूँ,उन दिनों छात्रों और कुलपति जी के बिच इतनी दुरी नहीं होती थी,जितनी अब होने लगी है)

कुलपति साहब पहले तो मुझे देखते ही आग-बबूला हो उठे,कारन था कि उनके खिलाफ एक पत्रिका में एक आलेख लिखा था “मनमाने कुलपति की दास्तान”. बस उसी को लेकर वह नाराज़ थे ही. 

 हमारी संस्कृति मैं बड़ों के चरण स्पर्श का बड़ा अहम् महत्त्व होता है, जैसे ही मैं ने उनके चरण स्पर्श किये ,उन्हों ने आशीर्वाद तो दिया ही होगा, बोले कि क्या बवाल ले कर आये हो ,मैं ने उन्हें सारी बात बताई ,इस पर कुलपति जी ने कहा की अंतिम तिथि भी निकल गई है. नहीं हो सकता . काफी अनुरोध करने पर किसी तरह उन्होंने ने अपने हस्ताक्षर कर दिए. इस तरह से उन दोनों छात्रों का प्रवेश हो गया. 

(अगली श्रंखला में बनारस से विश्व मानव करनाल (हरियाणा) वाया सहारनपुर की यात्रा)        

बाबा पायलट ,काशी विद्यापीठ और समाधि

 

बनारस नामा-5

   आगे बढ़ने से पहले बताता चलूँ की काशी विद्यापीठ में मुझे लोग प्रदीप कुमार (शैक्षणिक दस्तावजों में मेरा यही नाम अंकित है) के नाम से न जान कर 'गांधीके नाम से जानते थे . आज भी जो पुराने मित्र व शुभचिंतक हैं ,वे इसी नाम से बुलाते हैं . यह नाम भी उन्हीं विद्यापीठ वाली 'ठकुराइन चाचीने दिया था.उन दिनों मैं बहुत दुबला-पतला हुआ करता था. उस पर से गोल फ्रेम का ऐनक (चश्मा) भी लगता था.कपड़ा मुझ पर नहीं ,शायद मैं कपडे पर  टिका होता था. इसलिए चाची ने यह उपनाम दिया होगा. ख़ैर ....

बात 1983-84 की हैविद्यापीठ के प्रांगण में महिला छात्रावास के सामने एक गड्ढा खोदा जा रहा था,जिसको लेकर सभी मैं उत्सुकता थी कि आखिर इसे क्यों खोदा जा रहा है. बाद में पता चला कि उस गड्ढे में कोई पायलट बाबा समाधि लेने वाले हैं ,वह भी विद्यापीठ परिसर मैं ,जिसका विरोध छात्र संघ के पदाधिकारी भी कर रहे थे. उन दिनों विद्यापीठ के वित्त अधिकारी हुआ करते थे दशरथ नारायण शुक्ल जी. वह बाबा पायलट के अनन्य भक्त थे. बाबा पायलट बनारस आये और शुक्ल जी के घर पर ही रुके,जहाँ तक मुझे याद आ रहा है कि यह बात नवम्बर 1983 के पहले सप्ताह की रही होगी. जवानी का जोश,उस पर पत्रकारिता का कीड़ा साथसाथ परिसर में छात्र राजनीती में सक्रियता भी.मन मैं कचोट उठ रही थी की बाबा से इंटरव्यू किया जायेवित्त अधिकारी जी सख्त मिजाज़ वाले,लिफ्ट देने का सवाल नहीं,कौन जाये उनके पास यह बात भी थी.

उन दिनों मैं अयोध्या से प्रकाशित एक हिंदी साप्ताहिक प्रेस युग’ के लिए वाराणसी से संवाददाता के रूप में  (फ़ोकट में) काम करता था. अख़बार से बस समाचार लिखने के लिए लेटर पैड मिलाता था ,जिस पर ऊपर ही अख़बार के नाम के साथ उसके नीचे ब्रेकेट में लिखा होता था (केवल समाचारों के लिए)मतल आप उस पर खबरें ही लिख सकते थे,अपनी सहेली (महिला मित्र,क्यों कि पुरुषों को कौन लिखता था/है) को नहीं.कुलपति थे डॉ.डी.एन.चतुर्वेदी साहबउनके बेटे भी हमें पढ़ाते थे. किसी मित्र ने सलाह दी कि उन्हें पकड़ो तो काम बन जायेगा. सच में बन भी गया.

     दूसरे दिन शुक्ल जी के निवास (जो परिसर में ही था) पर पहुंचावहां पर बाबा पायलट रुके थे,दोपहर का समय थाबाबा जी से लम्बी बात-चीत हुई. वहां से उठा,सीधा घर पहुंचा और उसी पैड पर बाबा पायलट से हुई बात-चीत को लिपिबद्ध किया,तब तक शाम हो गई,आब प्रश्न यह की अयोध्या कैसे भेजा जाये,फ़ोन,आदि तो दुर्लभ वाली चीज थी. टेलेक्स /टेलीग्राम के बारे मैं सोचना मतलब सपनों में ख्याली-पुलाव पकाना जैसा था. सीधा सा मतलब कि इतने पैसे नहीं होते थे कि उनका उपयोग कर सकता . लाला तो लाला (मतलब कायस्थ) ,दिमाग दिमाग पर जोर डाला तो याद आया कि रात 11 बजे बनारस से बरेली फ़ास्ट पैसेंजर गाड़ी चलती है ,जिसमें आर.एम.एस.(रेल डाक सेवा)का डिब्बा(कोच)लगता हैजिसमें शायद लिफाफे पर पंद्रह पैसे का सामान्य टिकट लगता था,यदि आर.एम.एस. से भेजना है तो बीस पैसे का अतिरिक्त टिकट चफनाना (चिपकाना) होता था.बस लिफाफा तैयार किया दस बजे वाराणसी कैंट स्टेशन पहुँच गया. यह ट्रेन समान्यतया प्लेटफार्म नम्बर तीन से चलती थी. आर.एम.एस.के डिब्बे साथ जा रहे डाक स्टाफ को लिफाफा थमाया ,पहले तो वह मुझे ऊपर से नीचे तक देखा फिर ले लियामेने उन्हें चाचा का संबोधन करते हुए आग्रह की फैजाबाद स्टेशन पर डलवा दीजियेगा.उन चाचा जी ने वाही किया,क्यों की पायलट बाबा से मेरी वह बात-चीत प्रेस युग के उसी अंक (अंक-42,16-23 नवम्बर 1983) के अंक में संपादक श्री राजेन्द्र श्रीवास्तव जी ने प्रकाशित भी कर दियाजिसकी पचास प्रतियां भी किसी के माध्यम से तुरंत भिजवाई थी. जिसका वितरण विद्यापीठ मैं मित्रों ने कर भी दिया था. वहीँ से थोड़ी लोकप्रियता परिसर मैं और बाद गई.

    बाबा पायलट मूलतः रोहतास बिहार के रहने वाले हैं,जिनकी प्रारम्भिक शिक्षा तो दार्जिलिंग एवं पटना में हुई ,लेकिन उच्च शिक्षा बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से प्राप्त की ,उसके बाद उड्डयन की शिक्षा ग्रहण कर वायु सेना में भर्ती हो गए. बकौल बाबा पायलट उनकी पोस्टिंग विंग कमांडर’ के पद पर हुई. उस इंटरव्यू में उन्होंने बताया था कि उन्होंने ने 1962 में चीन एवं 1965 में पाकिस्तान के साथ हुए युद्ध में लड़ाकू विमान से घटक बम-बारी की थी.

    ताजुब्ब यह है कि बाबा पायलट ने अपने उस इंटरव्यू में कुछ बातें भविष्यवाणी करते हुए कही थी. जैसे  कि’ 1983 से 1987 के बीच मध्य भारत का सम्बन्ध सोवियत संघ के साथ टूट जाएगा,इसके साथ यह भी कहा था कि न्यूयॉर्क,टोक्यो,लन्दन एवं मास्को जैसे शहरों पर घातक हमलों से ये शहर नष्ट हो सकते हैं. वर्ष की गणना में हो सकता है उनसे चूक हो गई हो,लेकिन 11 सितम्बर 2001 की घट्न तो सभी के मस्तिष्क में बैठी है. जब बाबा पायलट से मैं ये पूछा था कि आप सेना की नौकरी छोड़ कर बाबा कसे बन गए तो इस पर उन्होंने ने मज़ेदार किस्सा सुनाया ! उन्हीं के शब्दों में ‘’1965  में भारत-पाकिस्तान के चल रहे यौध में मैं एक लड़ाकू विमान से बमबारी कर रहा था.उस समय पूर्वोत्तर के आकाश में था,तभी मेरे विमान में तकनीकी ख़राब आ गई ,विमान का संपर्क बेस सेंटर से टूट गया ,मेरे हाथ-पांव फूल रहे थे,तभी काकपिट में मुझे पीछे से कोई ओई आवाज़ सुने दी,मुड़कर देखा तो मेरे गुरु हरी बाबा खड़े थेउसके बाद मुझे नहीं मालूम,चमत्कार सा हो गया.वह सकुशल विमान सहित बेस कैंप पर उतर चुके थे’’. उन्होंने ने आगे बताया था कि काकपिट से निकलने के बाद उन्होंने ने निर्णय लिए कि अब वह सेना की लड़ाई से दूर शांत और अध्यात्मिक जीवन व्यतीत करने के साथ-साथ पूरे विश्व को शांति के मार्ग पर ले जायेंगे. विश्व का तो पता नहीं,हाँ बाबा पायलट आजकल उत्तराखंड की एक पहाड़ी पर बने अपने आश्रम में विदेशी शिष्याओं के साथ शांत वातावरण में शांति का उपदेश दे रहे हैं.

     हां, यह तो रही बाबा के बारे मेंउसके बाद जब बाबा को छह गुणे तीन मीटर एवं छह मीटर के गड्ढे में समाधि लेने का दिन आया तो जिला प्रशासन ने रोक लगाते हुए समाधि लेने पर प्रतिबंध लगा दिया. बाबा पायलट को बैरंग वापस लौट जाना पड़ा. समाधि न लेने की खबर को जब मैं ने लिखी और वह छपी तो विद्यापीठ के कुछ लोग मेरे पीछे पड़ गएऔर मुझे अवैध असलहा रखने के मामले में फ़साने का षड्यंत्र रचे लेकिन... इसके आगे कल...

बुधवार, 20 अक्तूबर 2021

ओऊ पईसा के देई ? जब विद्यापीठ वाली ठकुराइन चाची ने प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री से कहा था

बनारस नामा -4

        सन 1979-80 में हरिश्चंद्र इंटर कलेज से इंटर की परीक्षा पास (बहुत अच्छे नंबर नहीं आये थे)करने के बाद बगल में ही  हरिश्चंद्र डिग्री कालेज मैं बी.कॉम में किसी तरह एडमिशन हो गया.एक-दो दिन क्लास में भी गया लेकिन विषय पल्ले में नहीं पढ़ा तो काशीविद्या में बी.ए.में एडमिशन ले लिया ,एक तो विश्विद्यालय में पढ़ने की लालसा तो दूसरी बात घर के पास ही था.सबसे अहम् बात यह थी कि शाम को लहुराबीर पर प्रकाश टाकिज के छोटे-बड़े नेताओं की जमघट लगना, उनके साथ शामिल होना.

 ख़ैर साहब ,पुराने लोगों को याद होगा की विद्यापीठ के मुख्य गेट से सिगरा की ओर लगभग पचास मीटर चलने के बाद सामने की पटरी पर एक झोपड़ी में छोटी सी चाय की दुकान हुआ करती थी.जिसे ठकुराइन चाची चलती थी.जिन्हें आज हम ठेठ बनारसी की संज्ञा दे सकते हैं. ठकुराइन चाची के उस झोपड़ी नुमा रेस्टोरेंट (उस समय के हिसाब से यही कहना उचित होगा.)में चाची  समौसा ,जलेबी,कचौड़ी के साथ-साथ पूरी सब्जी भी बनाती थी ,जिसके स्वाद की कल्पना तो आज नहीं कर सकता,समोसे के साथ हरिमिर्ची व पुदीना-हरी धनिया की चटनी का स्मरण होते ही मेरी अंगुलियाँ अनायास स्वाद के लिए मुहं में चली जाती हैं ,जैसे एक नवजात बच्चा अपनी उँगलियों को चूसता है,(हो सकता है अब फिर से बचपन वापस लौट रहा हो ,साठ से ऊपर का जो हो गया हूँ.)जिलेबी -कचोडी की बात छोडिये ही. अब तो ना चाची रहीं ,ना ही चाची की दुकान,उस जगह कंक्रीट के जंगल उग आये हैं. हाल में बनारस गया था तो चाची व उनकी दुकान के बारे मैं कई लोगों से जानकारी चाही,लेकिन किसी ने भी सही ढंग से नहीं दी, सच बोलूं तो आखें भींग गई. एक अतीत का इतिहास 'काल के गाल में' समाहित हो गया,हम उसे संरक्षित नहीं कर पाए,इस आधुनिकता के अंधेपन की दौड़ में. काशी  के अतीत को जानने के लिए उस वक्त की 'दो देवियाँ' (में यही संज्ञा दूंगा) को जरुर याद किया जायेगा.एक काशीविद्या पीठ वाली ठकुराइन चाची दूसरी बी. एच. यू. के निकट लंका वाली चाची (जिनके बारे में चर्चा फिर कभी).

 बात 'काशीविद्या पीठ वाली चाची' की चल रही थी ,चाची को में ने सदैव झक्क सफ़ेद सूती (हो सकता है खद्दर की रही हो )धोती में ही देखा. अगर चाची को उनके बनाये सामान (मतलब कचौड़ी,समौसा या फिर जिलेबी को ले कर कोई छात्र छेड़ देता तो समझो उसकी सामत आ जाती. सही बताऊँ अपनी सामत बुलाने के लिए ही चाची को जानबूझ कर छेड़ते भी थे. उसका कारण था चाची का अपनत्व . जिसमें होती थी मिठास ,जिसे कोई बुरा नहीं मानता था.चाची के पास गजब की भाषा की पकड़,गाली का तकनिकी ज्ञान था भाई साहब.मर्दानी गाली का विश्लेषण सार्वजानिक रूप से,किसी भी संज्ञा के मादा गुप्तांगों का विश्लेषण (.... वाले अदि-आदि)का समायोजन . यह थी चाची के व्यक्तित्व की पहचान. उस बातचीत के दौरान जो कोई भी जुड़ा ठकुराइन चाची उसकी मां-बहन के साथ खुले व्यभिचार की घोषणा कर देतीं, शख्शियत कोई भी रही हो,चाहे वह निर्जीव वस्तु  रही हो या सजीव. वह आदमी बिरादरी का रहा हो या जानवर की ,उसमें मां-बहन खोज ही लेतीं थी चाची .मैं भी कई बार उनका शिकार बना,शायद यही कारण है कि कोई मुझे कितनी भी भद्दी गली दे,में जरा भी बुरा नहीं मानता.मैं क्या जिसने भी बनारस मैं अपना समय बिताया होगा ,वह भी नहीं मानता होगा. गाली तो वहां की एक संस्कृति है,जिसमें अपनत्व होता है, मिठास होती है. जिसमें होता है एक रिश्ता,रिश्ते की मिठास ,न चाय होती ,न दुकानदार व पैसा ,होती थी एक रिश्ता,जो और भी नजदीक कर देती थी.चाय तो कहीं भी मिल जाती ,समौसा कहीं भी खा लेते,लेकिन चाची की मिठास वाली गाली कहाँ मिलती मेरे भाई.

   उस समय के लोगों को अच्छी तरह याद होगा कि चाची की छप्पर वाली 'रेस्टोरेंट' झोपड़ी नुमा दुकान में हर कोई झुक कर ही घुसता था,कितना बड़ा आदमी हो वह. विद्यापीठ के प्रोफ़ेसर / विभागाध्यक्ष /या छात्र नेता हर कोई सर झुका कर ही प्रवेश करता था.जो अन्दर न जाकर बहार से ही सर झुका कर अन्दर ताकते हुए  चाची से चाय मांगते और गाली सुनने के लिए कुछ पिंगल बोल देते,फिर क्या चाची जो शुरू होती तो सात पुश्तों को अपने मिठास भरे गालियों की चासनी में डूबो देती.जिसमें होता मां का प्यार,पिता का दुलार,बेटे का रिश्ता,बहन का लाड ,यही सब तो मिलता था ठकुराइन चाची के पास ,जिसके लिए  भूखे रहते थे लोग.

ठकुराइन चाची वह शख्शियत थीं जिनके खाए समौसे व चाय का पैसा आज तक स्वतंत्र भारत का एक शासक नहीं चूका सका था.वह थे भारत के दूसरे प्रधान मंत्री स्व लाल बहादुर शास्त्री जी. एक बार बातचीत के दौरान चची ने बड़े गर्व से इस बात का उल्लेख किया था. ठकुराइन चाची ने बताया था ,प्रधान मंत्री बनाने के शास्त्री (जी) बनारस दौरे पर आये थे ,इसी रोड से किसी कार्यक्रम में शामिल होने बी.एच.यू.जा रहे थे ,इसकी जानकारी चाची को भी थी ,और उन्हें विश्वास था कि वह जरुर यहाँ रुकेंगे. मुस्कराते हुए वह बोलीं की जब उनका काफिला इधर से निकल रहा था तो अचानक प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री की गाड़ी झोपड़ी के सामने रुकी ,यह देख वह हतप्रभ हो गईं ,जब तक वह कुछ समझती तब तक उन्होंने ने देखा कि छोटे कद का वह व्यक्ति,भारत का प्रधान मंत्री ,जो अमेरिका के सामने 'अन्न' के लिए नहीं झुका,वह मेरे सामने (ठकुराइन चाची)अपने छात्र जीवन में खाए उधर को न चुकता कर पाने की दुहाई दे रहा था.उधर चाची उन्हें (देश के प्रधानमंत्री)को डाट रही थीं कि 'का हो शास्त्री दिल्ली में खायेक नाही मिलत क ! काहे दुबराइल बाट?तनी ठीक-ठाक रहल कर!ओऊ पईसा के देई ? इतना कह कर ठकुराइन चाची ने एक पैकट उन्हें थमाते हुए कहा कि 'इल,धोती-कुर्ता हो तोहरे बदी ओउर एक साड़ी ललिता (शास्त्री) वास्ते.

 याद कीजिये जिस ने यह नज़ारा उस दिन देखा  होगा ,वही जानता  होगा कि झोपड़ी में चाय की चाशनी में गाली मिलाने वाली इस महिला की (ठकुराइन चाची) औकात क्या रही होगी.जिसने एक सल्तनत के शहंशाह को झुकाए खड़ा रखा रहा होगा. बनारस की यही संस्कृति रही,जहाँ दोनों जीतते रहे. चाची और शास्त्री जी ,दोनों अपनी-अपनी बुलंदी पर रहे ,लेकिन दोनों इतना झुक गए कि 'एक पूरा का पूरा इतिहास इस संस्कृति 'को समर्पित हो गया था. बदलते परिवेश और आधुनिकता की आंधी ने आज 'इस ममता की धारा को ही लोप कर दिया. चाची माँ की तरह खिलाती थी,बाप की तरह गालियाँ देती थी ,लेकिन उसमे वह मिठास होती थी ,जिसकी कल्पना ही अब नहीं की जा सकती है. ऐसी थी "'विद्या पीठ वाली ठकुराइन चाची'. चाची को नमन.

(कल विद्यापीठ की दो रोचक दास्तान,जरुर पढ़ें)  

   

बनारस 'आज' से बनारस वाया आगरा

बनारस नामा - 3

    'आज' में काम करते हुए लगभग तीन माह हो चुके थे ,इस बीच आगरा संस्करण की तैयारी जोर शोर से चल रही थी, किसकों वहां भेजा जाना है, यह किसी को पता नही था. आगरा संस्करण के संपादक बनाये गए श्री शशि शेखर जी ,उस समय हिंदी अख़बारों की दुनिया के सबसे कम उम्र के संपादकों की सूचि में उनका नाम शामिल था.बनारस हिन्दू विश्व विद्यालय के छात्र थे,मालिक श्री शार्दुल विक्रम गुप्त जी (उर्फ़ पप्पू भैया )के काफी करीबी भी थे . तब तक उनके बारे में मुझे कुछ भी मालूम नहीं था ,क्यों कि डेस्क पर नया-नया ही था. नवंबर (1986)माह के अंतिम सप्ताह में समाचार संपादक (नाम नहीं याद आ रहा है ) ने आदेश दिया की पहली दिसंबर को आगरा पहुंचना होगा,कुछ और स्टाफ भी जा रहा है . उसी दिन शाम को उस माह का वेतन भी मुझे थमा दिया गया ,तीन सौ रुपये अतरिक्त वहां जाने का. यह भी बता दिया गया की वहां पहुँच कर किससे मिलाना है और कहाँ ठहराना है आदि -आदि.उस दिन जल्दी  ही  घर पहुँच गया और परिवार में  जानकारी दी .बाबू आदि लोग तो सामान्य रहे,लेकिन अम्मा के मत्थे पर मेरे जाने के चिंता की लकीरें स्पष्ठ झलक रहीं थीं,अम्मा बहुत जीवत की महिला थीं,कभी किसी  परेशानी  को सामने वाले को भांपने नहीं दिया. मेरे भविष्य का सवाल था, ख़ैर ...

दूसरे दिन केंट स्टेशन गया और और गंगा जमुना एक्सप्रेस से अगर का आरक्षण करवा लिया. 30 नवम्बर की दोपहर बनारस से चल कर 1 दिसंबर की अल-सुबह आगरा के राजा की मंडी रेलवे स्टेशन पर उतरा.स्टेशन पर उतरने वाले इक्का-दुक्का यात्री ही रहें होगे. संसथान (ज्ञान  मंडल) ने वहीँ   राजा की मंडी स्टेशन के पास ही एक होटल मैं ठहराने की व्यवस्था कर रखी थी. सुबह के चार बजे थे, ठण्ड का मौसम ,साथ मैं एक होल्डाल (जिसमें रजाई,गद्दा तकिया के साथ कुछ और भी सामान बंधा था .साथ में एक एयर बैग (कंधे पर लटकाने वाला) एवं अटैची भी थी. कहाँ जाता इतनी सुबह ,वहीँ स्टेशन पर लगे प्याऊ से हाथ  मुहं धोया और चाय पी.

जब सुबह सूर्योदय का समय हुआ ,चरों और लालिमा फैली ,तो थोड़े देर बाद एक साईकिल रिक्शे पर सवार होकर अपने गंतव्य (यानी होटल) की ओर चल पड़ा . होटल में ही सभी लोगों को एक बड़े से हाल मैं रोका गया था . वहां के प्रबंधक (एक दक्षिण भरितीय ,शायद महाराष्ट्र के थे) से मिला जो उसी होटल में ही रुके थे. फिर फ्रेश होने के बाद ,जो और लोग भी थे ,सभी 'आज' आगरा के कार्यालय पहुंचे ,जो उन दिनों ट्रांसपोर्ट नगर मैं हुआ करता था. स्थानीय संपादक श्री शशि शेखर जी से मिलवाया गया, फिर काम शुरू. उस समय डिप्टी न्यूज एडिटर डॉ सुभाष राय साहब थे,जबकि चीफ सब एक दक्षिण भारतीय थे, जो उम्र में भी काफी बड़े थे. इसके आलावा डेस्क पर मैं ,विष्णु त्रिपाठी ,अशोक पांडेय ,श्रीकांत सिन्हा ,एक बाबु साहब (ठाकुर साहब)थे,नाम याद नहीं आ रहा है ,दिनेश श्रीवास्तव  अदि लोग थे .

  यह सर्वविदित है कि पत्रकारिता में ब्राह्मण सदैव प्रभावी रहे हैं. पत्रकारिता का इतिहास पलट कर देख भी सकते हैं.शायद इसी के चलते 'आज' में भी उन्हीं लोगों का वर्चस्व भी रहा,इस बीच मैं किसी और के माध्यम से सम्पादकीय परिवार से जुड़ा था,इस लिए वहां के माहौल मैं हज़म नहीं हो पा रहा था.हटाने के बहाने खोजे जाने लगे ,और एक दिन संपादक जी को मिल भी गया . हुआ यूँ कि शाम का समय था बहार से चाय पी कर डेस्क पर बैठा था,और फोन (काले रंग का बड़ा वाला) के डायल से खेलने लगा कि इसी बीच संपादक जी समाचार कक्ष में आ गए,मुझे फोन को पकडे देख कर आग-बबुला हो उठे, और आरोप जड़ दिया की में एस.टी डी काल करता हूँ ,इस लिए बील अधिक आता है . जब कि वास्तविकता यह थी कि उस समय मेरे घर क्या दूर-दूर तक नाते-रिश्तेदारों में फ़ोन नाम की चीज नहीं थी... करता तो किसे ? ख़ैर संपादक जी को हटाने का बहाना मिल गया था. दूसरे  दिन डियूटी पर आया तो शिफ्ट प्रभारी का आदेश हुआ की एकाउंटेट साहब से पहले मिल लो . वहां गया तो उन्होंने बताया की आप का ट्रांसफर वाराणसी कार्यालय हो गया है,एक दो दिन में वहां पहुँच कर प्रबंधक यादवेश जी से मिल लीजियेगा. साथ ही वेतन भी दे दिया गया.

 दो दिन बाद वाराणसी पहुंचा , यादवेश जी से मिला, उन्हों ने दो दिन बाद आने को कहा,इस तरह वह एक माह तक टालते रहे. जब सब्र का बांध टूट गया तो एक दिन कड़े शब्दों का प्रयोग करते हुए उनसे कहा की कम से कम इस माह का वेतन तो दिला दीजिये, वह भी वही चाहते थे ,तुरंत लेखा विभाग को निर्देश दिया और मेरे वेतन का भुगतान हो गया . तब मुझे वहां पंद्रह सौ महिना मिलता था.उस दिन के बाद से आज तक ज्ञान मंडल के दहलीज पर पांव नहीं रखा तो नहीं रखा.

 ('आज से हटने के बाद सहारनपुर 'विश्वमानव' चला गया. इसकी भी रोचक दास्तान है,वह बाद मैं,उसके पहले काशी विद्यापीठ  वाली ठकुराईन  चाची की बात न करूँ तो न्याय संगत  नहीं होगा.तो कल चाची की बात,जिनका उधार  प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी भी नहीं चूका सके थे.)

 

मंगलवार, 19 अक्तूबर 2021

'आज’ का पहला वेतन और संपादक डॉ राम मोहन पाठक

 बनारस नामा -2

(कल से आगे) 

    ‘आजअख़बार के कार्यालय से निकल कर खरामा-खरामा पैदल चल कर घर पहुँच. इतने पैसे नहीं थे कि लोहटिया से लहुराबीर के लिए रिक्शे वाले को पंद्रह पैसे आने का तथा इतना ही जाने का दे सकता. फिर रोज का यह सिलसिला चल पड़ा ,दोपहर एक बजे घर से निकलना ,दो बजे तक 'आज' पहुँचना ,फिर रात आठ बजे के बाद घर वापसी .लगभग पन्द्रह दिन बीते होंगे कि एक दिन 'बाबू' ने छोटे भाई से पूछा कि आज कल रोज नियमित समय पर पप्पू (मेरा घर का नाम पप्पू है )कहाँ जाते हैं ,इस पर उसने अनभिज्ञता प्रकट कर दी.फिर उससे उन्हों ने कहा कि पता करो जरा . छोटे ने मुझसे पूछा ,लेकिन मैंने टाल दिया. प्रशन यह था कि जवाब क्या देता, स्वयं पर विश्वास नहीं था कि अख़बार मैं नौकरी लगी है. क्यों कि वेतन के बारे में कोई बातचीत नहीं हुई. बस यही समझ कर चल रहा था कि ट्रेनिंग चल रही है . उधर एक दिन छोटे भाई ने पीछा करते हुए अख़बार के कार्यालय में घुसते हुए देख लिया. इधर लहुराबीर अड्डे पर होने वाली नियमित बैठक में उपस्थित न होना भी मित्रों में चर्चा का विषय बना रहा. अचानक एक लेखक मित्र अपनी रचना देने आजअख़बार के कार्यालय में आये और मुझे डेस्कपर कम करते हुए देख लिया ,फिर तो मित्रों में इस बात की चर्चा जंगल में लगे आग की तरह फैल ही गई.

लगभग एक माह से अधिक बीत चुका था, अचानक एक दिन दोपहर में संपादक (डॉ राम मोहन पाठक) जी ने अपने चेंबर में बुलाया. में डरता-घबराता उनके चेंबर में यह सोचता हुआ की क्या गलती हो गई, प्रवेश किया. उन्होंने बिठाया , चाय पिलवाई और कामकाज के बारे में पूछा, सामान्य सा जवाब देता गया. फिर संपादक जी बोले की घर जाते समय अकाउंट में उपाध्याय जी (जहां तक नाम याद आ रहा है ,यही था) से मिलते हुए जाना . रात आठ बजे घर के लिए निकलने के पहले जब एकाउंट में उपाध्याय जी से मिला ,तो उन्होंने ने दर्जनों सवाल ठोके, किसके माध्यम से लगे हो, कैसे जानते हो उनको आदि-आदि.ख़ैर इसी बीच उन्हों ने कुछ कागजों पर हस्ताक्षर भी कराते रहे ,और औपचारिकता पूरी होने के बाद उपाध्याय जी ने एक बंद लिफाफा थमाया. जिसे लेकर घर की ओर चल पड़ा , एक और तो मन में यह जिज्ञासा थी कि लिफाफे में कितना वेतन है, दूसरी कि अम्मा-बाबु को यह खुश-खबरी कितनी जल्दी दूँ.सच बताऊँ,बहुत दिनों बाद उस दिन रिक्शे से घर पहुंचा. और अम्मा को वह लिफाफा थमाया तो उन्होंने कि इसमें क्या है, मेरे पास कुछ बताने को शब्द ही नहीं थे,तभी बाबू ने कहा कि देखो शायद पप्पू को पहली तनख्वाह मिली है.जब अम्मा ने लिफाफा खोला तो उसमे पूरे नौ सौ रुपये थे. उस वक्त (1986) में इतनी तनखाह बड़ी बात होती थी. उसके बाद के घटनाक्रमों को यही छोड़ देता हूँ.

   सीधी बात पत्रकारिता के मेरे पहले गुरु डॉ राम मोहन पाठक जी पर आता हूँ,उनके विषय मैं लोगों में जो भी धारणा हो लेकिन मेरे लिए वह दिव्यपुरुषसे कम नहीं हैं. आज जो कुछ भी हूँ उन्ही की वजह से. लोग अपने संपादकों को भूल जाते हैं ,लेकिन अगर कोई संपादक अपने कलीग और छात्र को याद रखे ,इससे बड़ी बात क्या होगी .

बात सन 2004 की होगी ,तब तेलंगाना नहीं बना था आंध्र प्रदेश था , पृथक राज्य की परिकल्पना चल रही थी,एक और नक्सली हिंसा से प्रदेश के लोग तंग आ चुके थे,साथ ही मुख्यमंत्री नारा चंद्रबाबू नायडू के कार्यकलापों से भी. इसी बीच परिवर्तन की एक आंधी चली ,जिसका नेतृत्व कर रहे थे प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष वाई एस राजशेखर रेड्डी, उनकी रथयात्रा पूरे प्रदेश से गुजर रही थी. जिस दिन वह निज़ामाबाद में थे उनके साथ उनके रथनुमा वाहन में मैं भी था. जहाँ तक याद आ रहा है कि आरमुर से करीम नगर मार्ग पर थे,तभी अचानक मेरे मोबाइल की घंटी बजी ,लेकिन उस शोरगुल में सुन नहीं सकता था ,इस लिए बाद में काल बैककिया तो उधर से आवाज आई प्रदीप भैया मैं राम मोहन पाठकबोल रहा हूँ, क्या हाल है. मैं एक दम भौंचक्का,लगभग 17 साल बाद (1987-2004) उनकी आवाज़ सुन रहा था. प्रणाम किया ,फिर कुछ बातें हुईं ,तो उन्होंने ने बताया कि बनारस में मेरे किसी मित्र से उन्होंने ने नंबर लिया था. वह क्षण आज तक नहीं भूलता है. बीच में एक-दो बार बातें हुईं . सन 2010 में डॉ सम्पुर्नानद संस्कृति विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के एक समारोह में भाग लेने बनारस गया था, वहीँ पराड़कर भवन मैं रुका था. दूसरे दिन सुबह फ्रेश होने के बाद सोचा कि आया हूँ तो जरा स्ट्रीट फ़ूड का जयका लिया जाये,और निकल गया बुलानाला की ओर. नाश्ता कर ही रहा था कि मोबाईल की घंटी बजी ,देखा तो डॉ पाठक साहब, प्रणाम किया ही था कि उधर से आवाज़ आई भईया कहाँ हो,जल्दी आओ तुम्हारे लिए नाश्ते मैं कचौरी-सब्जी ले कर आया हु,जल्दी आओ . मैं वहां पर अध नाश्ता छोड़ कर उलटे पांव पराड़कर भवन पहुँच तो डाक्टर साहब इंतजार कर रहे थे, मैं उनके पांव छूने की लिए झुका ही था कि उन्होंने ने गले से लगा लिया. मेरी आंखें डबडबा गईं.

 बात पावं छूने की नही,गले लगाने की नही,न ही गुरु-शिष्य के बीच संबंधों की है, बात है एक इतने बड़े संपादक का अपने सहयोगी के साथ अपनत्व की. इस बात को डंके की चोट पर कह सकता हूँ कि शायद ही कोई संपादक ऐसा होगा. तीन साल पहले जब वह चेन्नई स्थित दक्षिण हिन्दी प्रचार सभा में कुलपति बन कर गए तो,अचानक उन्हें याद आया की यहीं दक्षिण में मैं भी हूँ,उन्होंने तुरंत फोन मिलाया और कहा कि जब समय मिले तो चेन्नई आ जाओ ,यहाँ पर तुम्हें क्लास लेनी होगी. लेकिन तब तक मैं लखनऊ में शिफ्ट हो चुका था. अभी हाल ही में डॉ पाठक साहब दिल्ली में एक किसी कार्यक्रम में भाग ले रहे थे, उसी मंच पर मेरे एक दक्षिण भारतीय हिंदी के विद्वान भी उपस्थित थे, किसी सिलसिले बनारस व अयोध्या का जिक्र निकला तो उन्होंने मेरा नाम लिया कि वह भी वहीं के रहने वाले थे,इस पर डॉक्टर साहब ने तुरंत मुझे फोन लगाया और उनसे बोले कि वह तो मेरा छोटा भाई है.इस तरह की अनगिनत बातें हैं ,जिनका उल्लेख आगे करूँगा. 

(इसके आगे कल) 

 

 

मेरी पत्रकारिता और 'आज' अख़बार ,वाया काशी विद्यापीठ

 बनारस नामा -1                                                                                                                                                                                              

                        
                        

      वैसे मेरी पत्रकारिता का यह 45 वां साल है, पहली रचना 1976 में नंदन एवं मधु मुस्कान में छपी थी,बस इसी वर्ष से लेखन कहें या पत्रकारिता,जो भूत  सर पर सवार हुआ तो आज तक उतरा नहीं ,आपातकाल की पत्रकारिता रह हो या जे.पी आन्दोलन की या फिर आरक्षण विरोधी आन्दोलन की .उस दौरान खूब लिखा .कारण  था कि किशोरवय से युवावस्था की ओर अग्रसर था.लिखने-पढ़ने से अधिक छपने की लालसा भी कह सकते हैं. 1976 से 1986 तक यानी दस साल स्वतंत्र लेखन ,पत्रकारिता भी जमकर की.इन दस सालों  में बिहार के बाबी हत्या कांड का मामला रहा हो या काशी विश्वनाथ मंदिर के गर्भगृह से 22 किलो चांदी के गायब होने की घटना.इसी बीच कशी विद्यापीठ में एक साथ 35 नए पाठ्यक्रमों का  विश्व विद्यालय अनुदान आयोग की अनुमति के साथ खुलना . जिनमें एक पाठ्यक्रम था पत्रकारिता में स्नातक का. पत्रकारिता  के साथ-साथ छात्र राजनीति में सक्रिय होने के कारण बिना आवेदन किये ही पत्रकारिता के प्रवेश सूची में पहले नम्बर नाम का होना,लेकिन दोनों साल आर्थिक स्थिति अच्छी (आज भी नहीं है) न होने के कारण दाखिला नहीं ले सका . विद्यापीठ के कुलपति थे डॉ डी.एन.चतुर्वेदी साहब ,जो अर्थशास्त्र विभाग के अध्यक्ष भी हुआ करते थे, उनका मुझ पर बहुत स्नेह रहा. एक दिन कुलपति कार्यालय के एक कर्मचारी मुझे खोजते हुए अर्थशास्त्र विभाग आये और बोले गाँधी जी आप को कुलपति साहब ने बुलाया है.विद्यापीठ में मुझे मेरे नाम से न जान कर 'गाँधी' के नाम से जानते थे ,उसका कारण था कि बहुत दुबला -पतला सा (शर्मीला तो नहीं कह सकता) लड़का था.

कुलपति जी का आदेश मिलते ही उनके कार्यालय ,जो विद्यापीठ के भारत माता मंदिर की और जाने वाले रस्ते में हुआ करता था, पहुंचा और मिला. कुलपति साहब ने जो डांटना शुरू किया कि मत पूछिए ? उनका कहना था की दो बार तुम्हारा नाम पत्रकारिता के प्रवेश की सूची में दिया जा रहा है, एडमिशन क्यों नहीं लेते ? इस पर मैं ने उन्हें अपनी स्थिति से अवगत कराया तो ,वे बोले कि बस प्रवेश शुल्क जमा कर औपचारिकता पूरी करो ,आगे देखा जायेगा. डॉ चतुर्वेदी साहब की ये बातें शाम को बाबू (पिता जी)को बताई. उन्होंने ने तुरंत स्वीकृति दे दी . इसके पहले उनसे इस बारे में नहीं बताया था,क्यों की अर्थशास्त्र से परास्नातक कर चुका था,नौकरी नहीं मिली थी. ख़ैर साहब पत्रकारिता में एडमिशन लिया,और द्वितीय श्रेणी में पास भी कर ली .

जुलाई 1986 की बात है, पत्रकारिता का रिजल्ट आ चूका था, शाम का समय था ,हर रोज की तरह लहुराबीर पर क्वींस कालेज के किनारे चाय के ठेले पर जमघट लगी थी,तभी उधर से गुजरते हुए उत्तर भारत के सर्वाधिक प्रतिष्ठित अखबार 'आज ' के संयुक्त संपादक एव पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष डॉ राम मोहन पाठक जी गुजर रहे थे कि अचानक उनकी नज़र मुझ पर पढ़ी ,बस तुरंत उन्हों ने अपनी स्कूटर रोकी, उन्हें रुका देख कर में तुरंत उनके चरण स्पर्श किया ,आशीर्वाद के साथ-साथ उन्होंने प्रश्न दागा  कि रिजल्ट आ गया है,यहाँ क्या कर रही हो? जी ,बस इतना ही बोल पाया था की ,उनका आदेश  हुआ कल सुबह ग्यारह बजे ऑफिस में मिलो.

दूसरे  दिन ठीक ग्यारह बजे उनके 'आज' कार्यालय के चेंबर में पहुंचा . जहाँ पर डॉ साहब ने तत्कालीन समाचार संपादक जी के हवाले कर दिया. रात 9 बजे तक सम्पादकीय विभाग में समाचारों को समझने व बनाने की प्रक्रिया में लगा रहा ,इसी बिच समाचार संपादक जी आये और कहने लगे कि ,अरे .. अभी तक तुम घर नहीं गए ? मैं कुछ बोलता कि उन्होंने ही कह दिया कि किसी ने बोला नहीं होगा,तो जाओगे कैसे . ख़ैर उनके आदेश पर 'आज'कार्यालय से निकला और घर के लिए रवाना हो गया .

(शेष कल )


शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2021

लीला रामनगर की ,देखी नहीं महसूस की जाती है

'महारानी के कहने पर काशी नरेश ने शुरू करायी थी रामलीला' 

प्रदीप श्रीवास्तव

यूँ तो रामलीला लगभग सारे देश में होती है, पर चौपाइयों (रामचरित मानस की) के आधार पर तो केवल बनारस, अयोध्या | और चित्रकूट में ही होती है। भाद्रपद कृष्ण चतुदर्शी (अनंत चतुदशी) से अश्विन शुक्ल शरद पूर्णिमा तक तो सारे बनारस शहर में लीलाओं का वातावरण होता है। इन दिनों यहां जो कुछ भी बोला जाता है वह भाषण न होकर संवाद होता है, जिसमें पौरूष की मर्यादा होती है। इन संवादों में रस होता है चाहे वह राम हो या रावण का।

    काशी की प्रसिद्ध रामनगर की लीला स्थान बदल-बदल कर होती है, पूरा रामनगर क्षेत्र ही लीला स्थल है। कहीं-कहीं अयोध्या है तो कहीं चित्रकूट कहीं पंचवटी तो कहीं लंका एक विशेषता यह है कि जिस स्थान की लीला होती है वह वहीं पर खेला जाता है। राम नगर लीला कमेटी की ओर से बैठने की कोई व्यवस्था नहीं होती है, इस विषय में दर्शकों की भी कोई शिकायत कमेटी वालों से नहीं है, क्यों कि से वह नाटक देखने नहीं वरन प्रभू की लीला देखने आते हैं, और 'सियावर रामचंद्र की जय' 'जनकलली की जय' के उद्घोष करते हुए पूरी लीला देख लेते हैं।

     गंगा के पूर्वी किनारे पर बसी रामनगर की लीला पूरे एक महीने तक चलती है। अनंत चतुर्दशी को रावण का जन्म होता है और शरद पूर्णिमा को मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम का राज्यभिषेक। वैसे तो रामलीला का इतिहास बहुत ही पुराना है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने मुक्ताकाश के नीचे रामलीला शुरू की थी जो रामायण पर आधारित थी। रामनगर की लीला के सिलसिले में कई दंत कथाएं जुड़ी हुई हैं कहते हैं कि 1553 के आसपास ही अस्सीघाट पर तुलसीदास जी ने लीला शुरू की, जहां पर तत्कालीन काशी नरेश उदित नारायण सिंह रोज इस लीला को देखने जाते। इन्हीं दिनों महाराज के पुत्र कुंवर ईश्वरी प्रसाद नारायण सिंह इतना अधिक बीमार पड़ गए कि उनकी आशा सभी लोगों छोड़ दी, तभी महाराज उदित नारायण सिंह जी ने लीला के राम से कुमार के दीर्घ जीवन की कामना की, रामलीला के राम ने उन्हें अपने गले की माला उतार कर महाराज से कुमार को पहनाने को कहा। बताते हैं कि माला पहनते ही चमत्कार हो गया, कुमार दिनोंदिन स्वस्थ होने लगे। इसी घटना के बाद से महाराज उदित नारायण सिंह जी ने रामनगर में लीला कराने की व्यवस्था की, जो आज तक होती आ रही है।

    एक दूसरी किवदंती के मुताबिक रामनगर से थोड़ी ही दूर पर छोटी मिर्जापुर नामक एक गांव है, जहां पर मोटू और विट्ठल नामक दो भाई गांव वालों के साथ हर साल रामलीला करवाते थे। इस लीला में महाराज उदित नारायण सिंह भी कुछ तो सहयोग करते ही थे साथ ही साथ कुछ खास-खास लीला में भी खुद जाते थे। कहते हैं कि एक साल उन्हें धनुषयज्ञ वाली लीला में पहुंचने में कुछ देरी  हो गई। पर वहां पर महाराज की प्रतीक्षा न कर धनुष तोड़वा दिया गया। जब रास्ते में महाराज को इस बात का पता चला तो वे बहुत दुखी हुए और वहीं से वापस रामनगर लौट आए। महाराज की उदासी देखकर महारानी ने उसका कारण जानना चाहा तो महाराज ने भरे हृदय से सारी बातें बता दी। इस पर महारानी ने ताने मारते हुए कहा कि वे सब बनिया होते हुए भी लीला कराते हैं और आप राजा होकर क्या यहां पर लीला नहीं करा सकते ? हंसकर महाराज ने पुनः रामनगर की लीला के राम विनती की कि आप यहां लीला कराएंगे तो मुझे भी देखने का सौभाग्य मिलेगा ।

      फिर क्या रानी की बात, बस दूसरे साल से ही रामनगर में लीला शुरू हो गई। लोग बाग ने छोटा मिर्जापुर की लीला में स्वयं ही जाना बंद कर दिया। जब इस बात का पता मोटू व विट्ठल को चला तो वे महाराज के दरबार में उपस्थित हुए और महाराज से प्रार्थना की, इसी दौरान यह भी कह डाला कि किले से हम छोटा मिर्जापुर तक की सड़क पर रुपए बिछा देंगे, जो आपके खजाने का ही हो जाएगा। महाराज और महारानी दोनों को ही यह बात बहुत बुरी लगी।

     रामनगर के रामलीला के विषय में एक कहानी और भी प्रचलित हैं। कहते हैं एक बार महाराज उदित नारायण सिंह जी जगन्नाथपुरी के लिए चले, उन दिनों तो यात्रा पैदल ही होती थी। घने जंगलों को लांघते, बीच-बीच में लावश्कर सहित पड़ाव डालते जब महाराज खड़गपुर पहुंचे तो वहां भी रात्रि विश्राम के लिए रुकै मत में महाराज को स्वप्न आया कि मेरे दर्शन के लिए मत आओ, जाओ अपने यहां जाकर लीला करवाओ, हम वहीं पर तुम्हें दर्शन देंगे। बस महाराज वहां से उलटे लौट आए और रामनगर में एक बड़े समारोह के साथ लीला शुरू करवा दी

       महाराज ईश्वरी प्रसाद नारायण सिंह 1835 में काशी नरेश बने। उनकी भगवान राम के प्रति बड़ी श्रद्धा थी, इसलिए तुलसीकृत रामायण के अनुसार उन्होंने रामलीला करवाने के लिए अपने गुरू काष्ठ जिहा स्वामी, रीवां नरेश रघुराजसिंह, वंदन पाठक और काशी अयोध्या और मिथला के विद्वानों से शोध के बाद स्थान तिथि और रामलीला संबंधित सभी कार्यों को संपन्न किया। रामलीला का वर्तमान रूप उन्हीं की देन है।

रामनगर की लीला अपनी परंपराओं को पकड़े हुए आज भी अपना पुराना कामयाब किए हुए हैं। आधुनिक कृतिम प्रकाश, ध्वनि प्रसारण यंत्रों से दूर सामान्य विद्युत प्रकाश या गैस की रोशनी में ये लीलाएं होती है। कभी-कभी मशालों का लपलपाता हुआ धुआं दिखलाई पड़ जाता है। यहां की लीला में पात्रों को पाठ याद करने की जरूरत नहीं होती है, पात्रों के पीछे खड़े व्यास जी 'प्रापटिंग' करते रहते हैं। एक संवाद पूरा हो जाने पर सामने बने मंच पर रामचरित मानस का पाठ शुरू हो जाता है। इस प्रकार यहां पर पाठ व लीला साथ-साथ चलती रहती है। विशेष बात तो यह होती है कि संवादों के न सुनाई पड़ने पर भी दर्शकों को कोई व्यवधान नहीं आता है ।

रामनगर की लीला की एक सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न और सीता जी का चुनाव स्वयं काशी नरेश ही करते हैं, ये सभी किशोर वय के ही होते हैं जाति के ब्राह्मण लीला के अन्य दूसरे पात्र जैसे दशरथ, वशिष्ठ जनक, महावीर विश्वामित्र, अगंद, रावण विभीषण ण परशुराम आदि की भूमिका आज भी वंश परंपरा के लोग करते आ रहे हैं, पर रावण व जटायु को छोड़कर सभी ब्राह्मण ही होते हैं। । यहां की दूसरी विशेषता यह है कि लीला के दौरान यदि बनवास को लीला चल रही है तो राम, लक्ष्मण व सीता जी नगर में निवास नहीं करते, यहां तक कि भारत व शत्रुघ्र को भी उनसे दूर ही रखा जाता है। सीताहरण के बाद सीता जी राम से नहीं मिल पाती, वे अशोक वाटिका नामक स्थान पर ही रहती हैं। मतलब लीला, लीला न होकर यथार्थ लीला होती है ।

रामनगर की लीला में ब्राह्मण किशोर हो राम लक्ष्मण आदि का अभिनय करते हैं. इनकी उम्र भी तेरह वर्ष तक की ही होती है जब कि भारत के अन्य शहरों में इसका आग्रह नहीं रखा जाता। यहां की लोला में होने वाली आरती भी अपनी विशेषता रखती है। जहां-जहां भगवान जाते हैं वहां भिन्न-भिन्न भक्त ही आरती गाते हैं। इसी प्रकार जनकपुर में पहले दो दिन की आरती ऋषि-मुनि तथा दो दिन राजा जनक करते है तथा अंतिम दिन की आरती (विदाई वाली) स्वयं काशी नरेश ।

आज भी परंपरागत रूप से रामलीला प्राचीन नाटकीय शैली से ही होती है इस लीला क्रम में पात्र और दर्शक एक स्थान से दूसरे स्थान को जाते रहते हैं। इस लीला में संवाद का सबसे अधिक महत्व है संवाद रामायण की ही गद्य भाषा या अवधि भाषा में ही होती है। रामलीला के पात्र राम कथा का नाटक नहीं करते वरन् रामकथा जीते हैं। यो भी कहा जा सकता है कि जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी, अपितु रामनगर की लीला देखी नहीं बल्कि महसूस की जाती है । 

(अमर उजाला,12 अक्टूबर 1986 में प्रकाशित )

शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2021

'बापू को क्यूँ मारा , मैं आज तक समझ नहीं पायी'

गाँधी जी की अंतिम विरासत : कुसुम ताई जोशी 

डा. प्रदीप श्रीवास्तव

      एक साहित्यिक समारोह में भाग लेने वर्धा स्थित सेवाग्राम आया हूँ। बीते बीस सालों से लखनऊ- हैदराबाद के बीच रेल यात्रा कर रहा था । आते जाते वक्त ट्रेन वर्धा या सेवाग्राम में जरूर रुकती। जब कभी सुबह नींद खुलती तो एक बार इधर से गुजरते हुए बापू की इस पावन भूमि को नमन जरूर कर लेता, पर कभी सोचा नहीं था कि बापू की इस कर्मभूमि के 'रज' को स्पर्श करने का मौका भी मिलेगा। अचानक एक दिन विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ से एक पत्र मिलता है कि मेरे नाम का चयन विद्यापीठ ने एक सम्मान के लिए किया है। कार्यक्रम बापू की कर्मभूमि सेवाग्राम स्थित बापू कुटी में होना है। ऊहापोह के बीच जाने का मन बना ही लेता हूँ। वह भी इस लिए कि इसी बहाने बापू के उस पवन भूमि के 'रज' को छूने का मौका मिल जाएगा, जहां बापू ने ग्यारह साल बिताए थे। जिसके कण-कण में आज भी बापू बसते हैं।

ग्यारह अक्तूबर को सेवाग्राम के लिए निकलता हूँ, ट्रेन काफी लेट हो चुकी है , जिसे सुबह पाँच बजे पहुंचनी थी, वह दोपहर दो बजे पहुचने वाली है। सेवाग्राम स्टेशन उतरना है, आयोजकों ने पहले ही बता रखा था। गाड़ी नागपुर से निकल चुकी है। बस कुछ देर में पहुँच भी जाऊंगा, यही सोचते-सोचते चर्चिल की वह बात याद आती है, जिन्हों ने बापू को नंगा फकीर' की संज्ञा दी थी। वहीं अल्बर्ट आईस्टाइन ने तो बापू के बारे में यहाँ तक कहा था कि आने वाली पीढ़ियाँ मुश्किल से इस बात पर विश्वास करेंगी कि "रक्त-मांस का बना ऐसा व्यक्ति कभी इस धरती पर चल फिर रहा था। " उज्जवल भारत के लिए बापू का भी तो एक सपना था कि ”मेरी कल्पना रामराज्य की है, यानी धरती पर ईश्वरीय साम्राज्य की। मैं नहीं जनता कि स्वर्ग में इसका क्या स्वरूप होगा। आगे इसका नज़ारा क्या होगा, इसे जानने की मेरी इच्छा नहीं है, लेकिन यदि वर्तमान पर्याप्त आकर्षक है, तो भविष्य भी कुछ बहुत भिन्न नहीं हो सकता। मतलब, ठोस शब्दों में स्वतन्त्रता तीन तरह की होनी चाहिए, राजनीतिक, आर्थिक और नैतिक । ” अचानक ट्रेन की गति कम होती है, पता चलता है कि वर्धा निकल चुका है | बस सेवाग्राम स्टेशन आने ही वाला है। दोनों स्टेशनों के बीच दूरी बमुश्किल पाँच से छह किलोमीटर की होगी। सामान समेट कर उतरता हूँ और स्टेशन से बाहर निकलता हूँ। आटो वाले से बात करता हूँ बापू कुटी चलने के लिए। वह तैयार हो जाता हैं। कुटी पहुचने पर विद्यापीठ के प्रतिकुलपति (महाराष्ट्र शाखा ) संभाजी राव बावसकर मेरी प्रतीक्षा कर रहे होते है। साथ ही बापू आश्रम में काफी तादाद में साहित्यकारों व पत्रकारों का दल दिखाई देता है। पता चलता है कोई दक्षिण से तो कोई पंजाब से, कोई बिहार से तो कोई नेपाल से आया है। सभी का एक-दूसरे से औपचारिक परिचय होता है। कार्यक्रम अगले दिन सुबह से है तो सोचता हूँ कि नहा-धोकर फ्रेश हो जाऊँ , फिर आश्रम के पास की जगह देखी जाए। जब तक कमरे से फ्रेश होकर बाहर निकलता हूँ तो सूर्य भगवान तेजी से विश्राम के लिए पश्चिम दिशा की ओर भागे जा रहे हैं। गोधुलि की बेला आ गई । आश्रम के गेट पर नांदेड़ के कवि जय प्रकाश नागला कोलकाता के वरिष्ठ साहित्यकार मार्तंड जी पत्नी मधु सहित एवं भागलपुर के वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश कुंज, रांची की वरिष्ठ साहित्यकार सुश्री सत्या शर्मा एवं नन्दा पांडे से भेंट होती है। बाहर से आने वालों का सिलसिला निरंतर जारी है।

दूसरे दिन कार्यकर्मों में सहभागिता देर रात तक व्यस्तता । आश्रम के ही एक कर्मचारी बताते है कि सामने ही बापू कुटी, जहां महात्मा गांधी जी ने अपने ग्यारह साल बिताए। सुबह पाँच बजे प्रार्थना होती है, उसमे जरूर भाग लें। लेकिन रात में देर से सोने की वजह से नींद सात बजे खुलती है। कार्यक्रम ग्यारह बजे से होने वाला है, इस लिए बापू कुटी के लिए निकल पड़ता हूँ, परिसर में ही पारस जी एक वृद्ध महिला से बात करते हुए मिल जाते हैं। मुझे देखते ही उनसे परिचय कराते हैं कि आप कुसुमताई जोशी जी हैं जो चौदह वर्ष की उम्र से इसी आश्रम में रह रही हैं, जिन्होंने बापू को बहुत नजदीक से देखा है। मेरी जिज्ञासा महात्मा गांधी जी के बारे में और जानने की प्रबल हो जाती है। 1936 में परिसर में ही बापू ने एक पौधा लगाया था, जिसने आज विशाल रूप ले लिया है। में ताई से वहीं पर बैठ कर बात करने का आग्रह करता हूँ, सीधे सरल स्वभाव वाली खादी की धोती में कुसुम ताई चल देती हैं।

बापू द्वारा रोपे उसी विशाल पीपल के वृक्ष की छाँव में हम बैठ गए । फिर शुरू हुआ कुसुम ताई जोशी उर्फ पांडे जी के साथ बातों का सिलसिला। लगभग नब्बे वर्षीय कुसुमताई बहुत ही मध्यम स्वर में बताने लगी कि जब वह चौदह वर्ष की थीं तो शिक्षा के लिए आश्रम में स्थित महात्मा गांधी द्वारा स्थापित 'नई तालीम' विद्यालय में पढ़ने आई थी। माता-पिता भी गांधी अनुयाई थे सो उन्होने भी यही तालीम पाई। वे बताती हैं कि 1931 में उनका जन्म यहीं वर्धा के गारगिल गाँव में हुआ था। पिता जी मूलतः छत्तीसगढ़ के थे, रिटायर होने के बाद गांधी जी से प्रभावित होकर यहीं आ कर बस गए। पति शंकर राव पांडे भी यहीं के थे, 26 साल पहले १६६४ में उनका निधन हो गया। वे भी स्वतन्त्रता सेनानी थे सन ४२ के आंदोलन में जेल भी गए। बताते दृबताते भावुक हो जाती हैं। बेटी है वह विदेश में अपने परिवार के साथ रह रही है। मिलने दो-चार साल में आ जाती है।

   वे आगे कहती हैं कि  1945 में जब मैं चौदह साल की थी तो यहाँ आ गई । गांधी जी का शिक्षा पर काफी ज़ोर था, विशेष कर लड़कियों की शिक्षा पर इसी उद्देश्य से नई तालीम की स्थापना की थी। उन्होने गुरु रवीन्द्र नाथ टैगोर से कहा था कि यहाँ के लिए कोई अच्छा गुरु भेजिये। जिस पर रवीन्द्र नाथ टैगोर जी ने कलकत्ता के शिक्षाविद पी. डब्लू. आर. एन. आई. की पत्नी आशा देवी जी को यहाँ भेजा। जो उस समय बनारस हिन्दू विश्व विध्यालय में पढ़ा रही थी, जो संस्कृत की प्रकाण्ड विद्वान थीं। उन्होने ने यहाँ पर बालवाड़ी की स्थापना की। यहीं पर मेरी पढ़ाई हुई और बाद में शिक्षिका हो गई। पति भी यहीं कार्यकर्ता थे। पी.डब्लू. आर. एन. आई मूलतः श्रीलंका के सिलोन के रहने वाले थे। बाद में उनकी वहीं मृत्यु हो गई। वे बताती हैं की भारत छोड़ो आंदोलन की रूपरेखा यहीं बनी तथा प्रस्ताव भी यहीं पास हुआ था। बापू अक्सर स्कूल में आते थे, सारा कुछ स्वयम देखते थे। तब मैं छोटी थी।

यह पूछने पर कि आप गांधी जी से व्यक्तिगत मिलीं क्या ? या उनका कोई संस्मरण हो वह बताइये? इस पर ताई ने कहा कि व्यक्तिगत की बात ही नहीं थी, हम हास्टल में रहते थे, बापू इस कुटी में। हाँ अक्सर वह हास्टल निरीक्षण करने आते थे, तब वो अध्यापिकाओं व बच्चों से मिलते और जानकारी प्राप्त करते थे, जिस पर तुरंत अमल भी होता था। वे आगे एक घटना का जिक्र करती हैं। लड़कों के छात्रावास के इंचार्ज मेरे पति थे, उसका थे निरीक्षण करने एक बार बापू अचानक वहाँ पहुंचे। वहाँ छात्रों के रहन सहन की जानकारी ले रहे थे, अचानक उन्होने अपने छड़ी से एक छात्र के अलमारी को देखा जो गंदा था, बस तुरंत पति से कहा कि यह क्या है ? तुरंत इसकी सफाई करवाइए। वे आगे कहती हैं कि मेरे घर भी बापू आते थे , तब हम बहुत छोटे थे, ठीक से याद नहीं ।

    यह पूछने पर कि मृत्यु के एक दिन बाद वह यहाँ आने वाले थे, लेकिन उस घटना के बाद यहाँ का माहौल कैसा था ? कुसुम ताई बताती हैं कि ३१ जनवरी को उन्हें आना था, कुटी व परिसर की साफ-सफाई कर दी गई थी। वह उसी पीपल के पेड़ (जिसे बापू ने लगाया था) को ऊपर देखने लगी, चिड़ियों की चहचहाहट जारी थी, कहने लगी कि ३० जनवरी की शाम का समय था, गोधुली की बेला थी, आश्रम के सभी लोग अपने-अपने कामों में व्यस्त थे। तभी बापू की कुटी में लगी फोन (हाट लाईन) की बड़ी (लंबी) घंटी बजने लगी। आश्रम के प्रभारी भागे-भागे कुटी में गए और फोन का चोंगा उठाया, अचानक क्षण भर में उनका चेहरा उतर गया, लोगों को किसी बड़ी घटना की अशंका हुई थी। देखते-देखते पूरा आश्रम गमगीन माहौल में डूब गया। सभी लोग हतप्रभ थे। इसी बापू कुटी के सामने प्रार्थना सभा आयोजित की गई। इसी कुटी में बापू का अस्थि कलश भी रखा गया, जिसे बाद में पवनार स्थित 'धाम' नदी में प्रवाहित किया गया।

वे गमगीन हो जाती हैं, गंभीर स्वर में कहने लगती हैं, जिस शाम उनकी हत्या हुई थी उसी रात बापू को सेवाग्राम आन था, लेकिन . उसके बाद वह चुप हो जाती हैं। थोड़ा रुक कर के वह कहने लगती हैं कि बापू को मारा जरूर नाथू राम गोडसे ने था, लेकिन मरवाया था सावरकर ने। उन्होने ने ही यह ज़िम्मेदारी नाथू राम गोडसे को दी थी। 29 जनवरी को प्रार्थना सभा में भारी भीड़ को देखकर गोडसे अपने मिशन में सफल नहीं हुए। रात में वह सावरकर के पास पहुंचे और अपने मिशन में सफल न होने की दास्तां उन्हें सुनाई। गोडसे ने फिर भी उन्हें आश्वासन दिया कि कल जरूर हो जाएगा। इस पर सावरकर ने गोडसे को “यशस्वी भव ” आशीर्वाद भी दिया था। दूसरे दिन गोडसे ने अपने मिशन के तहत प्रार्थना सभा में जाते समय 'बापू' को गोली मार दी थी। जिन्हें गिरफ्तार भी कर लिया गया था। वे आगे बताती हैं कि बापू हत्या के बाद लार्ड माउंट बेटेन ने अंतिम संस्कार के समय दुख प्रकट करते हुए कहा था कि "एक हिन्दू ने दूसरे हिन्दू को मार दिया”, कितना दुर्भाग्य है कि इस देश के लोग अपने नेता को भी पहचान नहीं सके”। ताई से यह पूछे जाने पर कि बापू से संघ को चिढ़ किस बात की थी? पता नहीं, अब तो उन्ही का राज है । गांधी जी तो सदैव हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई, सभी को एक साथ लेकर चलते थे। लेकिन मारा क्यूँ, यह बात आज तक मेरी समझ में नहीं आई। यह पूछे जाने पर कि 'गांधी के भारत और वर्तमान भारत में आप क्या अंतर पाती हैं ? इस प्रश्न पर ताई हँसते हुए कहती हैं कि आप सभी को पता है, मैं क्या कहूँ ? अब तो संघ वालों का राज है, जिनकी कभी भी बापू पर श्रद्धा नहीं थी। आप ही देखिये न हाल ही में संघ की एक बहन ने बापू की फोटो पर गोली मार दी। यही नहीं उसके पति ने फोटो को जला दिया। सोचिए इससे क्या मिलने वाला है, अब तो बापू को इस दुनिया से गए हुए कितने साल हो गए हैं, फिर इससे क्या मिलेगा।

     अच्छा ताई, वर्तमान प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी जी प्रधान मंत्री बनने के बाद इस आश्रम में आए क्या? हाँ एक बार आए थे, वर्धा में कोई कार्यक्रम था। वहीं से आए थे, सीधे बापू कुटी गए, दर्शन किए और वापस चले गए। किसी से मिले नहीं। शायद समय नहीं था। 'वर्तमान सरकार के कामों को आप किस तरह देखती हैं? इस प्रश्न पर कुसुम ताई संजीदा होकर कहने लगती हैं, कर रहे हैं, अच्छा कर रहे हैं आखिर देश तो उनका भी है। मोदी जी एक अच्छे प्रधान मंत्री लगते हैं। चलते-चलते मैं ताई से पूछता हूँ कि परिसर में एवं बापू कुटी में अंधेरा सा रहता है, एक छोटा सा बल्ब तो लगना चाहिए? इस पर ताई कहने लगती हैं कि 'देश के अंतिम घर में जब तक बिजली नहीं आएगी, उस दिन तक बल्ब की रोशनी का उपयोग नहीं करूंगा। वे हमेशा कंदील का उपयोग करते थे, इसी लिए इस आश्रम को 1946 से आज तक ज्यों का त्यों रखा गया है । उन्होने ने आगे कहा कि हम बापू की स्मृति से किसी प्रकार की छेड़छाड़ नहीं करना चाहते। 90 वर्षीय कुसुम ताई पांडे उर्फ जोशी, जिन्हों ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के साथ आश्रम में इतना लंबा समय गुजारा या कहें कि बापू की विरासत की अंतिम कड़ी को प्रणाम किया और उनसे विदा ली।

(हिन्दी पाक्षिक 'वसुंधरा पोस्ट' (5अगस्त 2020) में प्रकाशित)


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