रविवार, 1 अक्तूबर 2023
'इंग्लैंड-आयरलैंड' और 'अंटाकर्टिका एक अनोखा महादेश'
'कबाड़ी का सिक्का' बनाम 'शालीन कटाक्ष'
मंगलवार, 16 मई 2023
अवध की हिंदी पत्रकारिता के पितामह थे बाबू शीतला सिंह
प्रदीप श्रीवास्तव
फैजाबाद अब अयोध्या से सहकारिता पर आधारित हिंदी दैनिक जनमोर्चा के संस्थापक संपादक बाबू शीतला सिंह जी आज दोपहर बाद जिला चिकित्सालय में बीमारी से जूझते हुए उस जहां चले गए ,जहां से आज तक कोई लौट कर नहीं आया है. 94 वर्ष के थे बाबूजी . जनमोर्चा वही अख़बार है जिससे अख़बार पढ़ने की ललक बचपन में पड़ी .शायद छठवीं में पढता रहा हूँगा,घर के पास रिकाबगंज-चौक रोड पर एक मैकू नामक हलवाई की दुकान होती थी(अभी भी है),वहीँ पर जनमोर्चा आता था तब छोटे आकार में निकलता था जिसे टैबलाइड कहते हैं ,जहाँ तक याद आ रहा है कि तब उसकी कीमत दस नए पैसे होती थी. वहीँ अख़बार पढ़ने सुबह पहुच जाता था. जब बड़ा हुआ तो उसकी लत इतनी लग गई कि उसमें संपादक के नाम पत्र लिखने लगा. सन 76 के बाद तो बनारस से प्रतिनिधि के रूप में जुड़ गया.नहीं तो कम से कम सौ से अधिक रचनाये,रिपोर्ट तो छपी ही होंगी जनमोर्चा.इस दौरान बाबू शीतला सिंह जी का मुझ पर बहुत स्नेह भी रहा,यद्यपि मैं ने जनमोर्चा में नौकरी तो नहीं की ,लेकिन लगाव बना ही रहा बाबू जी का .
लगाव के दो कारण और भी थे,लेखनी को छोड़कर ,पहला बाबू जी का घर मेरे छोटे नाना जी के घर के समीप ही है,जहन से आना जाना निरंतर रहा,दूसरा मेरे बड़े फूफा जी बाबू त्रिभुवन दत्त जनमोर्चा के अकाउंट विभाग में विशेष पद पर थे.
सन 1996 की बाद है ,मैं औरंगाबाद के एक अख़बार में कम कर रहा था. एक दिन अचानक दोपहर में अख़बार के प्रबंधक के केबिन में फोन की घंटी बजी,बात करने के लिए मुझे बुलाया गया,दूसरी तरफ से उस समय के बनारस के सर्वाधिक लोकप्रिय सांध्य दैनिक 'गांडीव'के संपादक राजीव अरोड़ा जी की आवाज़ थी कि 'प्रदीप ,बनारस में उपजा का वार्षिक सम्मलेन हो रहा है,आप को हर हालत में आना है. में अभी कुछ बोल पता कि राजीव भैया ने कहा कि बाबू शीतला सिंह जी ने तुम्हे बोलने के लिए कहा है.बस आना है.
समय पर बनारस पहुंचा,ट्रेन लेट हो गई थी,सीधे नगरी नाटक मंडली प्रेक्षागृह पहुँच गया .कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे तत्कालीन राज्यपाल महामहिम मोती लाल वोहरा जी.इसी बीच प्रदेश के पत्रकारों के सम्मान का सिलसिला शुरू हुआ,तभी अचानक मेरे नाम की घोषणा कर दी गई,जिसे सुनकर तो मैं भौचक्का रह गया ,तभी मंच पर बैठे बाबू शीतला सिंह जी जी ने मुझे देख लिया और मंच पर आने का ईशारा किया.
इस बीच जब भी फैजाबाद जाता तो बाबू जी के दर्शन करने उनके ऑफिस जरुर जाता,घंटों बाते करते.हाल ही में लखनऊ जनमोर्चा के वर्धापन दिन पर आये थे. मुलाकात हुई थी,बहुत बीमार थे ,फिर भी किसी तरह वह आये,शायद उन्हें पता था की उनके हाथों रोपा गया पत्रकारिता का यह पौधा 'जनमोर्चा ,लखनऊ उनकी अंतिम वाणी सुनने के लिए बेचैन है. पिछले साल नहीं आ पाए थे.
वह बताते थे कि उन्होंने सहकारिता के आधार पर उस समय मात्र 75 रुपये की राशि से 'जनमोर्चा' को शुरू किया था.देश का यह पहला अख़बार है जो 70 साल से निरंतर निकल रहा है.जब से खबर मिली है बाबू जी के चले जाने से ,मन व्याकुल है ,पर विधि के विधान को कोई टाल तो सका नहीं है,उम्र भी हो गई थी ,यही कहकर संतोष करना पड़ेगा .नमन बाबू जी .
बुधवार, 5 अप्रैल 2023
'माँ सम्मे महारानी' जो करती हैं अपने भक्तों की मुराद पूरी
मेरे गाँव का मंदिर .....
पहले गोंडा ,अब अयोध्या जनपद में सरयू नदी के उस पर अयोध्या से गोंडा की ओर जाने वाले मार्ग पर नवाब गंज नामक एक छोटा सा बाज़ार पड़ता है,जिसका कुछ भाग अयोध्या तहसील में तो कुछ अभी भी गोंडा जनपद के अंतर्गत आता है . नवाबगंज बाज़ार से लगभग दो किलो मीटर पहले बाएं हाथ पर एक सड़क जाती है ,इसी सड़क पर चार किलोमीटर जाने पर एक गाँव पड़ता है 'नगवा कल्याणपुर'. गाँव के बीच उत्तर दिशा की ओर काले पत्थर से निर्मित एक विशाल प्रवेश द्वार है,जिसके भीतर स्थित है 'माँ सम्मे' महारानी का मंदिर. विशाल पेड़ के नीचे ऊँचे चबूतरे पर स्थित इस मंदिर में दर्शन के लिए केवल आस-पास के ही नहीं विदेशों से भी माँ के भक्त आते हैं. कहते हैं कि इस मंदिर मैं जो भी भक्त माँ से कुछ भी मांगता है तो ,माँ सम्मे महारानी उसकी मनोकामना पूरी जरुर करती हैं.केवल इतना ही नहीं लोग झाड़ फूंक के लिए भी यहाँ आते हैं.उन्हें कितना इसका लाभ मिलता है इसकी कोई जानकारी नहीं है. मंदिर लगभग डेढ़ सौ साल
पुराना बताया जाता है,लेकिन मंदिर का कोई
विधिवत इतिहास उपलब्ध नहीं है, जो भी जानकारी है वह
केवल एक दुसरे से सुनी-सुनाई बातों के आधार पर ही. हाँ मंदिर का
जीर्णोद्धार सन 2005 में गाँव के लोगों ने
मिलकर कराया था. मंदिर परिसर में माँ दुर्गा का भी एक मंदिर है ,जिसकी स्थापना मेरे बड़े पिता जी (ताऊ) स्व
हरिहर प्रसाद श्रीवास्तव एवं चाचा स्व दुर्गा प्रसाद श्रीवास्तव जी ने की है. 'माँ सम्मे महारानी' हमारे परिवार की कुलदेवी हैं. इस लिए हर साल पूरा परिवार अप्रैल माह की चार तारीख को मंदिर परसर में
एकत्र होता है ,पूजा पाठ,हवन के बाद एक विशाल
भंडारे का आयोजन किया जाता है.जिसमें पूरा गांव शामिल
होता है.जिसका आयोजन छोटे भाई राकेश उर्फ़ पप्पी एवं
संदीप की अगुवाई में परिवार के सभी लोग करते
हैं.
हाँ तो मंदिर के इतिहास के बारे में बता रहा था कि 'माँ सम्मे महारानी' के इस मंदिर का कोई लिखित इतिहास नहीं है. जो कुछ गाँव वालों ने बताया उसी के मुताबिक,आज से लगभग डेढ़ सौ साल पहले ब्रिटिश हुकूमत में गाँव के दो लोगों को किसी अपराध के मामले अपराधी घोषित कर दिल्ली की एक जेल में बंदी बना कर भेज दिया गया .जहां पर माँ का एक मंदिर था .दोनों बंदी सगे भाई थे,काफी दिन गुजर जाने के बाद किसी भाई को एक रात देवी ने सपने में दर्शन दे कर कहा कि मंदिर में माँ के दर्शन के साथ उनसे सज़ा मुक्ति की याचना करो, जब तुम्हें यहाँ से मुक्ति मिल जाए तो जाते समय मंदिर से थोड़ी मिटटी ले जा कर अपने गाँव में मुझे स्थापित कर देना.. कहते हैं कि ऐसा करने के बाद कुछ ही दिनों में दोनों भाई ब्रिटिश हुकूमत से निर्दोष करार दिए गए .जिसके बाद उन्हों ने सपने माँ के द्वारा दिए गए आदेश का पालन करते हुए जब वापस अपने गाँव 'नगवा कल्याणपुर' लौटे तो गाँव के उत्तर दिशा बाग़ में माँ की स्थापना कर दी ,जिनका नाम 'माँ सम्मे महारानी' पड़ गया .एक ऊँचे जबुतारे पर स्थित इस मंदिर के नाम के पीछे की जानकारी किसी भी गांव वालों के पास नहीं है. हाँ इतना जरूर गावं वालों का कहना है कि इस मंदिर में आप 'माँ सम्मे महारानी' से जो भी याचना करते हैं ,माँ उसे पूरा अवश्य करती हैं. मंदिर के प्रवेश द्वार पर पवन पुत्र हनुमान जी की बैठी प्रतिमा स्थापित है ,जो भक्तों की रक्षा करते हैं .मंदिर परिसर लोगों को आकर्षित करता है. आये दिन इस मंदिर परिसर भागवत कथा के साथ विभिन्न धार्मिक आयोजन भी होते रहते हैं. जब कभी आप उधर से गुजरे तो 'माँ सम्मे महारानी' का दर्शन जरूर करें.
बुधवार, 15 मार्च 2023
'अरहर' की दाल और दाली का 'दूल्हा'
'ये, मूंह और मसूर की दाल' यह कहावत आप सब ने बहुत सुनी होगी .जिसका सीधा सा मतलब कि 'मसूर' की दाल का महंगा होना ,जब महंगा होगा तो उसका 'ओहदा' भी ऊँचा ही होगा .लेकिन अवध में शाकाहारी खाने में 'अरहर' की 'दाल' को 'दालों की महारानी ' कहा जाता है.जब कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 'अरहर की दाल 'की जरा सी भी पूछ नहीं है .दक्षिण भारत की बात ही छोड़ दीजिये ,वहां तो इसकी बात करना मतलब की हिंदी की बात करना है. वैसे तो दाल बहुत सी हैं. मूंग की दाल (छिलके वाली एवं बिना छिलके वाली),उर्द की दाल (जिसमें धोई ,मतलब बिना छिलकों वाली) ,चने की दाल लेकिन अरहर की दाल की बात ही कुछ अलग और निराली सी है. क्योंकि रोज खाने पर भी इससे मन नहीं भरता .इसके आगे छप्पन भोग भी फेल है. अंग्रेजीदां वाले व उनके बच्चे इसे 'यलो दाल' बोलते हैं ,वहीँ कुछ नासमझ लोग इसे 'पीली दाल भी कहने में जरा सा भी नहीं हिचकते.
अरहर की दाल के बारे
में एक किस्सा मशहूर है कि 'अपनी
पहेलियों व मुकरियों के लिए लोकप्रिय अमीर ख़ुसरो साहब एक बार अवध आये तो अवध की महिलाओं
ने उनसे एक पहेली बुझने को दे दिया,लेकिन
जनाब अमीर ख़ुसरो उस पहेली को बुझ नहीं सके .वह पहेली थी ...
सुन्दर पीली
छरहरी,काली केहरी
रंग
,
ग्यारह देवर
छोड़ के चली जेठ के संग.
आज तो यह दाल प्रेशर कुकर में ही पकाई जाती है,लेकिन कभी यह दाल बटुली या हंडे में ही पकती थी
.पकने के बाद देशी घी में जीरा,लहसुन सुखी लाल मिर्च एवं हींग डाल कर छौंकी जाती . छौंक लगाते ही बटुली का ढक्कन बंद कर दिया जाता ,ताकि उसकी सुगंध दाल में जज्ब हो जाये. अरहर की दाल में जब
खटाई डाली जाती तो उसके स्वाद का कोई मुकाबला नहीं होता ,जो मज़ा खटाई से आती है वह नीबू के रस
के मिलाने से नहीं मिलती .खटाई के डालने से अरहर की दाल गाढ़ी हो जाती है,फिर इसे जब कटोरी में परोसा जाता तो वह
रबड़ी सी महसूस होती है. उस पर एक चम्मच जामुन या गन्ने का सिरका मिला दें तो,जनाब क्या कहने का.पेट भर जायेगा ,लेकिन मन नहीं .
लेकिन हमारे अवध में मांगलिक कार्यों
में अरहर की दाल कहीं नहीं टिकती ,उस दौरान उड़द और चने के दाल की बहार सी आ जाती है.
दक्षिण भारत के सर्वाधिक लोकप्रिय 'सांबर' में इसी अरहर की दाल का ही प्रयोग होता है. पिछले
कुछ वर्षों में इस देवतुल्य दाल में टमाटर,प्याज और दुसरे अनाप-सनाप जिचों के मिलाने का सिलसिला चल पड़ा है,यहं तक कि लोग-बाग अब पनीर के छोटे-छोटे टुकड़े भी डालने लगे हैं .अरे भाई यह
दाल है सब्जी नहीं ,जो चाहा मिला दिया.
चलते-चलते बताता चलूँ कि कितनी भी दालें हों,लेकिन एक मात्र अरहर की दाल ही है ,जिसका 'दूल्हा' भी है,जिसे शकाहारी भी बड़े चाव से खाते हैं. उसके लिए बहुत
कुछ नहीं करना पड़ता है. बस गेहूं के आटे की लोई में अजवायन,जीरा,पीसी मिर्च हिंग,हल्दी एवं स्वादानुसार नमक मिलाकर सान लेते हैं.
फिर उसको रोटी की तरह छोटे-छोटे बेल कर,पके दाल में डाल कर फिर से पका लेते और छौंक मेहमान के सामने परोस देते . तभी तो अवध मैं यह
कहा जाता है कि ....
दाल अरहर की,खटाई आम की ,
तोला भर घी,रसोई राम की.
रविवार, 15 जनवरी 2023
संवरने के नाम पर उजडती अयोध्या
हमारा एक छोटा सा अंचल है अयोध्या जो कभी फैजाबाद का छोटा सा अंग हुआ करता था. अब अयोध्या के नाम से जाना जाता है . अयोध्या जिसके विभिन्न नाम थे ,जैसे अयोध्या, अवधपुरी, राम की नगरी, वैभव की नगरी आदि. तभी तो तुलसीदास जी ने श्री राम चरित मानस के अयोध्या कांड में लिखते हैं कि-
कहीं न जाई कछु नगर विभूति,
जनु एतनिअ विरंची करतूती |
(जिसका भावार्थ है कि 'नगर का एश्वर्य कुछ कहा नहीं जाता ,ऐसा दिख पड़ता है कि मनो ब्रह्मा जी की कारीगिरी बस इतनी ही है.इससे परे संसार में कुछ भी नहीं है .)
आचार्य केशव के शब्दों में देखिये-
अति चंचल जहं चल दले ,
विधवा बनी न नारी|
हिंदू परम्परा के अनुसार अयोध्या वह पहली नगरी है जिस पर ब्रह्मा ने अपना आसन जमाया . उन्होंने मनु से कहा कि इसे अपनी राजधानी बनाओ. यह सभी को मालूम है कि ब्रह्मा की उत्पत्ति कमल से हुई .वह एक हज़ार वर्ष तक अपने सृष्टा की आराधना में लीन रहे. उनकी इस घोर तपस्या से नारायण हिल उठे ,ख़ुशी के मारे उनके गलों पर अशुओं की कुछ बुँदे ढुलक पड़ीं.जिसे ब्रह्मा जी ने तत्काल अपनी हथेली पर लेकर कमंडल में संजो लिया. जब मनु ने राजसिंहासन सम्हाला और अयोध्या को अपनी राजधानी बनाई तो उनके पुत्र ने ब्रह्मा जी से याचना की कि 'प्रभु अयोध्या को एक नदी से विभूषित करें'. ब्रह्मा जी उनसे प्रसन्न तो थे ही .उन्होंने कमंडल में संजोकर रखे अश्रुओं के इन बूंदों को अयोध्या की पवन भूमि पर बिखेर दिया ,इस तरह पतित पावनी सरयू का इस पृथ्वी पर आगमन हुआ .
देख लो, साकेत नगरी है यही,
स्वर्ग से मिलने गगन में जा रही।
केतु-पट अंचल-सदृश हैं उड़ रहे,
कनक-कलशों पर अमर-दृग जुड़ रहे।
सोहती हैं विविध-शालाएँ बड़ी;
छत उठाए भित्तियाँ चित्रित खड़ी।
गेहियों के चारु-चरितों की लड़ी,
छोड़ती है छाप, जो उन पर पड़ी!
स्वच्छ, सुंदर और विस्तृत घर बनें,
इंद्रधनुषाकार तोरण हैं तनें।
देव-दंपति अट्ट देख सराहते;
उतर कर विश्राम करना चाहते।
फूल-फल कर, फैल कर जो हैं बढ़ी,
दीर्घ छज्जों पर विविध बेलें चढ़ीं।
कहते हैं कि अयोध्या कई बार उजड़ी,फिर बसी. हिन्दुओं का पवित्र धाम,जिसे तीर्थ भी कह सकते हैं , मर्यादा पुरषोत्तम भगवन की जन्म स्थली .जिसे फिर से सजाया संवारा जा रहा है. सजाने-संवारने के चक्कर में अयोध्या के पुरातन स्वरूप के साथ खिलवाड़ हो रहा है.जिस रूप के लिए अयोध्या को जाना जाता था,उसे नष्ट कर नई अयोध्या को बसाया जा रहा है. जिसके आधुनिकीकरण के नाम पर नए घाट से लेकर श्री राम जन्मभूमि तक के प्राचीन इमारतों,मंदिरों को ढहा दिया गया.
शुक्रवार, 30 सितंबर 2022
आज विश्व पोस्टकार्ड दिवस है भाई........
प्रदीप श्रीवास्तव
अगर कहें कि आज पोस्ट कार्ड दिवस है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी . अब तो हर दिन कोई न कोई दिवस मनाने की परम्परा सी चल पड़ी है. इसी श्रृंखला में आज के दिन को 'पोस्टकार्ड का दिन' मना लेते हैं .पोस्ट कार्ड हमारे अतीत का गवाह भी तो रहा है.वहीँ शादी-ब्याह , मरनी-करनी की ख़बरोंके साथ-साथ न जाने कितने आंदोलनों का साक्ष्य भी. मज़े की बात तो यह है की अस्सीके दशक मैं प्रेम-प्रसंगों का दस्तावेज़ भी था पोस्ट कार्ड.यह वह दौर था जब 'पत्र-मित्रता' अपने चरम सीमा पर थी.युवाओं का तो पूछना ही क्या,अपनी भावनाओं को नीली या काली स्याही से इस छोटे से पोस्ट कार्ड पर उंडेल कर अपने प्रेमी-या प्रेमिका को भेज देते थे.उस समय पोस्टकार्ड की कीमत मात्र पंद्रह पैसे हुआ करती थी. तब भी अंतर्देशीय पत्र व लिफ़ाफे महंगे ही हुआ करते थे.जिसे हर कोई युवा वहन नहीं कर सकता था.
पत्र-मित्रता के उस दौर मैं पोस्टकार्ड एक सस्ता एवं सुगम साधन हुआ करता था. मेरे भी कई पत्र-मित्र थे ,कोई नेपाल से था तो कोई बुडापेस्ट (हंगरी की राजधानी) से.भारत के न जाने कितनो शहरों में उनकी संख्या थी.ढलती उम्र में याद नहीं. उन्ही मित्रो में से कोई आज देश के शीर्ष अख़बारके संपादक हैं तो कोई साहित्यकार ,कोई आर्किटेक्ट है तो कोई रंगकर्मी .यह सब पोस्ट कार्ड की ही देन थी. अस्सी के दशक एवं नब्बे के पूर्वार्ध तक पोस्टकार्ड का बोलबाला हुआ करता था. पोस्ट मैंन के हाथों में डाक के बंडलों में साठ प्रतिशत पोस्ट कार्डों की संख्या होती थी.जो अब लुप्तप्राय सी हो चुकी है. डाक घरों में पोस्ट कार्ड मिलते तो जरुर हैं पर खरीददार नहीं . उन दिनों जिस पोस्ट कार्ड पर हल्दी का छींटा लगा होता तोसमझ लिया जाता की कोई शुभ समाचार वाला पोस्ट कार्ड आया है ,वहीँ अगर पोस्ट कार्ड कहीं किनारे से कटा या फटा होता था तो यह जानने में देरी नहीं लगाती थी कि किसी अशुभ समाचार का प्रतीकहै यह पोस्ट कार्ड .जिसे पढ़ने के तुरंत बाद फाड़ कर नष्ट कर दिया जाता था. पोस्टकार्डों के माध्यम से दशहरा, दिवाली या फिर नए वर्ष की शुभकामनाएं भी भेजी जाती थीं. यह सबसे सस्ता व सुगम साधन होता था.
आज से लगभग 153 साल पहले दुनिया का पहला पोस्टकार्ड सन 1869 में आस्ट्रिया में जारी हुआ था .जबकि भारत भारत में पहला पोस्टकार्ड 1 जुलाई 1879 ईस्वी में जारी किया गया था, हल्के भूरे रंग में छपे इस पहले पोस्टकार्ड की कीमत 3 पैसे थी और इस कार्ड पर ‘ईस्टइण्डिया पोस्टकार्ड’ छपा था. बीच में ग्रेट ब्रिटेन का राजचिह्न मुद्रित था और ऊपर की तरफ दाएं कोने मे लाल-भूरे रंग में छपी ताज पहने साम्राज्ञी विक्टोरिया की मुखाकृति थी . कहते हैं कि साल की पहली तीन तिमाही में ही लगभग 7.5 लाख रुपए के पोस्टकार्ड बेचे गए थे .पता हो कि भारतीय डाकघरों में चार तरह के पोस्टकार्ड मिलते रहे हैं - मेघदूत पोस्टकार्ड, सामान्य पोस्टकार्ड, प्रिंटेड पोस्टकार्ड और कम्पटीशन पोस्टकार्ड. ये क्रमशः : 25 पैसे, 50 पैसे, 6 रुपये और 10 रुपये में उपलब्ध हैं . कम्पटीशन पोस्टकार्ड फिलहाल बंद हो गया है इन चारों पोस्टकार्ड की लंबाई 14 सेंटीमीटर और चौड़ाई 9 सेंटीमीटर होती है . जब कि पहला चित्रित पोस्टकार्ड फ्रांस ने 1889 में जारी किया था और इस पर एफिल टावर अंकित था .
पोस्टकार्ड का विचार सबसे पहले ऑस्ट्रियाई प्रतिनिधि कोल्बे स्टीनर के दिमाग में आया था, उन्होंने इसके बारे में वीनर नॉस्टो में सैन्य अकादमी में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर डॉ. एमैनुएल हार्मोन को बताया। उन्हें यह विचार काफी आकर्षक लगा और उन्होंने 26 जनवरी 1869 को एक अखबार में इसके बारे में लेख लिखा। ऑस्ट्रिया के डाक मंत्रालय ने इस विचार पर बहुत तेजी से काम किया और पोस्टकार्ड की पहली प्रति एक अक्टूबर 1869 में जारी की गई। यहीं से पोस्टकार्ड के सफर की शुरुआत हुई। दुनिया का यह प्रथम पोस्टकार्ड पीले रंग का था। इसका आकार 122 मिली मीटर लंबा और 85 मिली मीटर चौड़ा था। उसके एक तरफ पता लिखने के लिए जगह छोड़ी गई थी, जबकि दूसरी तरफ संदेश लिखने के लिए खाली जगह छोड़ी गई। आस्ट्रिया में यह इतना लोकप्रिय हुआ कि इसकी देखा देखी अन्य देशों ने भी इसे अपनाने में देरी नहीं की .मालूम हो कि पोस्टकार्डों के संग्रहणऔर अध्ययन को अंग्रेजी में डेल्टियोलॉजी कहते हैं.
शुक्रवार, 23 सितंबर 2022
चाय मैं गुण बहुत,जो पिए वही जाने ......
प्रदीप श्रीवास्तव
आज 21 सितम्बर है,कहते हैं कि आज "भारतीय चाय दिवस" है. इसका कारण मुझे अभी तक समझ में नहीं आया .सुबह से खोज रहा हूँ,कई लोगों से पूछा भी ,लेकिन समाधान नहीं हो पाया .चाय की कथा भी भक्तिकाल के भक्त- कवि तुलसीदास के कथन ‘हरि अनन्त, हरि कथा अनन्ता’ जैसी ही है. इसका इतिहास वाकई काफी रोचक है. भारत में तो चाय को लेकर एक जुनून है और इसके नाम से ही चाय पीने की तलब सी पैदा हो जाती है. सामाजिक समरसता का भी उदाहरण है चाय, क्योंकि क्या गरीब क्या अमीर, क्या राजा क्या प्रजा और क्या नेता और क्या अभिनेता, सभी चाय के तलबगार हैं. संबंधों तक में चाय ने पैठ बना ली है. किसी के घर जाओ और चाय न मिले तो उसे अनादर माना जाता है. लोग कहते मिल जाएंगे कि ‘मैं उसके घर गया और उसने चाय तक नहीं पूछी.‘यानी उसकी बेज्जइती हो गई. एक समय था जब गांव वाले अपने बच्चों को चाय नहीं पीने देते थे. वे बच्चों को डराते थे कि चाय पियोगे तो तुम्हारा ‘कलेजा’ जल जाएगा. लेकिन अब चाय के साथ मसला क्रांतिकारी हो चुका है. ऐसा माना जाता है कि करीब 80 प्रतिशत भारतीयों की सुबह की शुरुआत गरमा-गरम चाय की प्याली से होती है. काम में मन न लग रहा हो, सिर या शरीर में दर्द हो, नींद को दूर रखना हो या वक्त ही बिताना हो तो चाय जैसी कोई चीज नहीं.
चाय का मैं भी बचपन से शौकीन हूँ या यह
कहिये कि 'लत' सी लगी हुई है
.बिना चाय पिये रह नहीं सकता ,चाहे खाना न मिले.
यह लत कैसे लगी इसका कारण आज तक नहीं पता लग पाया . बचपन से ही चाय का आदि रहा हूँ.
अम्मा से चाय बनाने के लिए कभी नहीं कहा कि 'अम्मा
चाय बना दो, बस एक इशारे पर अम्मा समझ जाती थीं,और
बुदबुदाते हुए बिना किसी न-नुकुर के बना देती. गुस्सा भी बहुत होती थीं . ईशारा होता
था , दायें हाथ के अंगूठे एवं बीच की अंगुली को लगभग आधे इंच की दूरी के बीच रख कर
ईशारा करना ,जिसे वह समझ जाती थी की मुझे चाय की तलब लगी है. मज़े की इसका
ईशारा होता था कि 'आधी कप चाय'.
इसके लिए बाबू बहुत गुस्सा करते थे अम्मा
पर , की इतना चाय पीता
है ? क्यूँ बना कर देती हो. बाबू ही नहीं भाई बहन भी उन पर नाराज़
होते . ख़ैर जब बनारस पढ़ने गया तो ,खुद
ही बना कर पीने की आदत हो गई .फिर तो रोकने-टोकने वाला था ही नहीं .पर दूध तो महंगा
ही था मेरे लिए. फिर भी जो दूध आता था उसी में भरपूर चाय पीता भी और पिलाता भी .तब
फ्रिज़ तो था नहीं दूध को शाम तक चलाना है,जिसके
लिए एक बड़े बर्तन में पानी भर कर उसमें दूध वाला बर्तन रख देते ,ताकि
वह गर्मी से फट न जाये. क्यों कि बनारस में हम दोनों भाई अकेले रहते थे ,तो
दोस्तों का जमावड़ा भी रहता था. जिसका मन हुआ ,उठा
और चाय बनाकर पिया और पिलाया . कभी-कभी छोटा भाई दुखी होकर दूध के बर्तन को ऊपर बने
टाड छिपा कर रख देता. जब दोस्त पूछते की दूध कहाँ रखा है ,हम
लोगों के कहने पर कि आज नहीं आया .इस पर वह विश्वास ही नहीं करते , पूरे
घर को सी.बी.आई /सी.आई .डी. की छापे की तरह छान मारते. मिल जाने पर इतना खुश होते कि
मानो कहाँ की जन्नत मिल गई हो.
सही बोलूं तो चाय के लिए रात मैं पढ़ने का भी बहुत नाटक किया है . चाय के लिए देर रात तक जागता था ,उस समय हम लोगों के पास एक छोटा सा ‘स्प्रिट का स्टोव’ (बहुत से लोगों को इसके बारे में पता भी नहीं होगा, इसमें मिट्टी का तेल / केरोसिन नहीं,स्पिरिट डाल कर जलाया जाता था.) होता था ,जिस पर एक छोटे से पतीला या यूँ कहें भगौना में चाय बनानी होती थी. इस स्टोव को मेरे मामा ने अम्मा को दिया था, जब मेरी छोटी बहन का जन्म हुआ था, रात-बिरात पानी या दूध गर्म करने के लिए . सच में बहुत अद्भुत था वह स्टोव. उसके बाद से पांच दशक हो गए कहीं मुझे नहीं दिखा उस तरह का स्टोव.
हाँ बात चाय की हो रही थी, काफी समय बनारस में बीता,तो चाय की अड़ी पर इकठ्ठा होना , हर मुद्दे की चर्चाओं में प्रतिभागी बनना भी कोई आसान कम नहीं होता था. एक कप चाय के लिए लंका क्या रामनगर किले तक चले जाया करते थे ,तब स्कूटर /मोटर साइकिल तो होती नहीं थी,वही साइकिल ही तो था जीवन का आधार . सभी मित्र चाय के दीवाने ,अगर कहीं जाना होता (उन्हें या मुझे) तो ऑफर दिया जाता कि चाय के साथ समोसा भी खिलाऊंगा .फिर क्या दस-पांच किलोमीटर की साइकिल यात्रा पक्की ,चालक भी पक्का. लहुराबीर पर गायत्री मंदिर के बगल, क्वींस कालेज के कार्नर ,प्रकाश टाकिज परिसर ,कबीर चौरा पर पिपलानी कटरा के बगल ,नगरी नाटक मंडली के सामने ,मैदागिन,गोदौलिया पर बंगाली दादा की दुकान ,अस्सी,सोनारपुरा ,भदैनी ,बीएचयू गेट .सिगरा,पर चाय की अड़ी तो लगाती ही थी,जहाँ पर बुद्धिजीवियों का जमघट लगता,जिसमे कवि होते ,पत्रकार होते , विभिन्न राजनितिक पार्टियों के नेता होते ,देश दुनिया की समस्यों का समाधान चुटकी बजाते ही कर लिया जाता ,जिस अख़बार ने समाचार नहीं छपा उसके रिपोर्टरों व संपादकों को बैठे तमाम बनारसी उपाधियों से सम्मानित कर दिया जाता. अगले दिन उसी सम्पादक के केबिन वही उपाधि देने वाले महानुभाव अपना समाचार हो या रचना लिए अनुनय-विनय करते दिख जाते. अगर उस दिन छप गई तो वह रिपोर्टर या संपादक से बड़ा पत्रकार पूरी दुनिया मैं होता था. उनकी प्रसंशा में इतने कसीदे पड़े जाते की पूछिये मत. बात जो भी हो चाय का ही कमाल होता था, सभी को जोड़ने का ,परखने का ,भाई-चारे को बनाये रखने का.
काशी विद्यापीठ में पढ़ता था, मुख्य गेट के सामने ठकुराइन चाची की चाय की दुकान तो थी ही,जिसके बारे मैं आपन पढ़ा ही है ,इधर समाज विज्ञानं संकाय के ठीक पीछे एक छोटी सी चाय की अड़ी (दुकान) खुली थी .वहां पर छात्रों का भरी जमघट लगता था. उन्हीं दिनों वाराणसी कैंट स्टेशन से मैमूरगंज त्रिमुहानी (तिराहे) तक सड़क के बीच डिवाइडर (सड़क विभाजक) बना था, समाजविज्ञान संकाय किए पीछे वाली चाय की दुकान बहुत छोटी सी थी,जहाँ खड़े होने की क्जगाह नहीं थी ,बैठने की सोचना ही छोड़ दीजिये. उस डिवाइडर पर बैठ कर चाय पीने की परंपरा भी हमी लोगों ने की थी. अब तो शायद वह चाय की दुकान भी नहीं रही.
बताता चलूँ कि चाय की अड़ी पर बैठने की वजह से मुझे ‘आज’ अख़बार की नौकरी मिली थी. हुआ यूँ कि काशी विद्यापीठ अर्थशास्त्र में एम.ए करने के बाद वहीँ से पत्रकारिता में स्नातक किया ,जुलाई का महिना था ,रिजल्ट निकल चुका था,पास भी हो गया था. रोज की तरह एक शाम लहुराबीर पर क्वींस कालेज के मोड़ वाले अड़ी पर ऍम सभी चाय पी रहे थे ,तभी उधर से अपनी स्कूटर पर ‘आज’अख़बार के संपादक श्री पाठक जी गुजर रहे थे ,तभी उनकी निगाह मेरे आर पड़ी , वह रुके और पूछा की यहाँ क्या हो रहा है, रिजल्ट कैसा रहा . उन दिनों वह काशी विद्यापीठ पत्रकारिता विभाग के मुखिया भी हुआ करते थे. मैं रिजल्ट के बारे मैं बताया ,और उनसे चाय पिने का आग्रह भी किया,लेकिन उन्होंने मन करते हुए कहा की कल सुबह ठीक 11 बजे मुझे अख़बार के आफिस में आ कर मिलो. दुसरे दिन मैं उनके बताये समयनुसार ‘आज’ अख़बार के कार्यालय में मिला ,तो आज तक वही कलम घिस रहूँ.
चलते-चलते चाय के इतहास पर तो नज़र डाला ही नहीं, बाबु
बताते थे कि अग्रेजों ने ही भारतियों क चाय की लत लगाई .चालीस-पचास के दशक नें हर सुबह फैजाबाद (अब
अयोध्या) में पीतल के कैन मैं बनी-बनाई चाय भर कर हर मोहल्ले मैं मुफ्त वितरित किया जाता, इस
तरह से जाते-जाते अंग्रजी प्रशासन ने चाय की आदत हम भारतियों मैं लगाई .
लेकिन ये भारतीय पेय नहीं है ,यह
तो चीन से आई है इस संदर्भ में यह प्रसंग काफी रोचक और अनगढ़ है. कहते हैं कि चाय
की खोज ईसा पूर्व 2737 में चीन के सम्राट शेन नुंग ने की. वह उबला पानी पीते थे, एक
बार लाव-लश्कर के साथ जंगल से गुजर रहे थे. रास्ते में आराम के वक्त पीने के लिए पानी
उबाला जा रहा था कि बर्तन में पेड़ की कुछ पत्तियां गिर गईं, जिससे
पानी का रंग बदल गया. इसे पिया गया तो ताजगी महसूस हुई. इसे ही चाय कहा गया. लेकिन
उसके बाद करीब 2 हजार साल तक ये ‘चाय’ चीन
में नदारद रही जो विस्मय पैदा करता है. वहीं दूसरी कथा के अनुसार छठवीं शताब्दी में
चीन के हुनान प्रांत में भारतीय बौद्ध भिक्षु
बोधि धर्म बिना सोए ध्यान साधना करते थे. वे
जागे रहने के लिए एक ख़ास पौधे की पत्तियां चबाते थे और बाद में यह पौधा चाय के पौधे
के रूप में पहचाना गया.
बुधवार, 29 जून 2022
बात निज़ामाबाद-धर्माबाद के बीच बड़ी रेल लाइन की
बात शिवसेना की ,सन 2003 की बात होगी ,मैं औरंगाबाद से आंध्र प्रदेश (तब तेलंगाना नहीं बना था)के एक हिंदी दैनिक में निज़ामाबाद संस्करण का प्रभारी बन कर आ गया था. उन दिनों आन्ध्र प्रदेश के तेलंगाना क्षेत्र में दो गतिविधियाँ चरम पर थी,पहली पूरे प्रदेश में नक्सली एवं दूसरी हैदराबाद से धर्माबाद (मराठवाड़ा का अंतिम रेलवे स्टेशन जो तेलंगाना के बासर क्षेत्र को जोड़ता है) के बीच छोटी लाईन से बड़ी लाईन में परिवर्तन का. इधर हैदराबाद से निज़ामाबाद तक बड़ी लाईन पूरी हो चुकी थी ,उधर मनमाड से धर्माबाद तक. काम रह गया था केवल धर्माबाद से निज़ामाबाद (लगभग साठ किलोमीटर) तक का.
धर्माबाद के लोगों की मांग थी नांदेड से मुंबई के बीच चलने वाली देवगिरी
एक्सप्रेस को धर्माबाद से चलाई जाये,क्यों की उन्हें इस बात की शंका थी बड़ी
लाईन का काम पूरी होते ही यह गाड़ी सिकंदराबाद से चलने लगेगी ,जो
आज चल भी रही है .जिसके एवज में रेल मंत्रालय ने नांदेड से मुम्बई के बीच चलने वाली
मराठवाडा एक्सप्रेस को धर्माबाद तक से परिचालन किया ,यथावत
परिचालन जारी है भी.
हाँ ,धर्माबाद से निज़ामाबाद के बीच बड़ी लाईन
का काम दक्षिण-मध्य रेलवे को इस लिए रोकना पड़ा कि धर्माबाद
में शिव सैनिकों स्लीपर से लादे सैकड़ों ट्रक को वहीँ पर रोक लिया था.यह बात दोनों जिलों
(नांदेड एवं निज़ामाबाद)के प्रशासन के लिए गले की फांस बन गया था.मामला शिव -सैनिकों
का था. दोनों जिलों के प्रशासनिक मुखिया से कहा गया कि यदि इस मामले मैं मैं मध्यस्थता
करूँ तो शायद कोई समाधान निकल सके.इसके लिए मुझसे संपर्क किया गया. हर तरह के सहयोग
का आश्वासन भी.
दूसरे दिन निज़ामाबाद के एक उधोगपति के सहयोग से प्रेस प्रतिनिधियों
का एक दल लेकर धर्माबाद पहुंचा,इस बीच मेरे अख़बार के संवाददाता ने यह
जानकारी वहां के शिव सैनिकों को पहले ही दे दी थी,जब आंध्र प्रदेश के प्रेस प्रतिनिधियों
का दल धर्माबाद रेलवे स्टेशन पहुंचा तो देखा कि वहां पर लाठियों-डंडों के साथ-साथ अन्य
हथियारों से लैस करीब तीन से चार सौ शिवसैनिकों का जमावड़ा पहले से ही मौजूद था, आन्ध्र प्रदेश से गए पत्रकारों की यह देख हालत ख़राब,कब
क्या हो जाये किसी को पता नहीं . उधर रेलवे स्टेशन पर स्थानीय लोगों का क्रमिक अनशन
चल ही रहा था,जिसमें हर वर्ग के लोग शामिल थे.
आन्ध्र प्रदेश के पत्रकारों को देख शिव सैनिकों
का गुस्सा सातवें आसमान पर,वापस जाओ के नारे लग रहे थे. इसी बीच
सामने से मुझे धर्माबाद नगर पालिका अध्यक्ष एवं शिव सेना के तहसील प्रमुख सुरेन्द्र
बेलकोंणीकर आते दिखे ,में वहां से निकला ही था की उन्होंने
ने मुझे देख लिया ,और मेरे पास आये,और गले लगा लिया,यह
देख उत्तेजित शिव सैनिकों को आश्चर्य हुआ,इसी बीच
नारे बाज़ी भी बंद होगी ,सुरेन्द्र के साथ हम सभी नगर पालिका में
उनके चेंबर मे गए और स्लीपर के मुद्दे पर बात शुरू हुई ,वह
ट्रकों को छोड़ने के लिए राज़ी नहीं थे. इसी बीच इस मामले को लेकर दक्षिण मध्य रेलवे
के वरिष्ठ अधिकारियों के साथ-साथ दोनों जिलों के कलेक्टर से बात करवाई गई. जिसमें उनकी
कुछ शर्तें भी थीं,जिस पर सहमति बनी और सुरेन्द्र बेलकोंणीकर ने ट्रकों को रिलीज़ करने
का आश्वासन दिए. लगभग छह माह में धर्माबाद –निज़ामाबाद
के बीच बड़ी लाईन का कार्य पूरा हुआ,जिस पर आज दर्जनों गाड़ियाँ देश के कई
प्रमुख शहरों के लिए दौड़ रही हैं.
मैं और शिवसैनिक से संबंध
एक समय था पूरे महाराष्ट्र में शिवसेना की तूती बोलती थी, बिना 'मातोश्री' के ईशारे पर पूरे प्रदेश में कुछ भी संभव नहीं था, बाला साहब कभी भी अपने मातोश्री से बहार नहीं निकले,लेकिन उनके इशारे पर ही (किसी की भी सरकार रही हो )सरकार चलती थी ,इससे कोई भी इंकार नहीं कर सकता. मैं ने सन 1992 से 2012 यानी बीस साल तक शिव सेना को ,कि गतिविधियों को बहुत निकट से देखा है.मराठवाडा के छोटे बड़े सभी शिवसैनिकों का साथ भी मिला.1993 में मराठवाडा विश्वविध्यालय के नामांतरण का प्रत्यक्षदर्शी गवाह रहा ,जब देर रात मराठवाड़ा विश्वविध्यालय का नाम बदल कर 'डॉ भीमराव आंबेडकर मराठवाड़ा विश्वविध्यालय; किया गया था. जिसका विरोध पुरजोर से सथानीय लोग कर रहे थे.उस रात उसी विश्वविध्यालय के मुख्य गेट पर मैं और पूर्व कांग्रेसी सांसद (जो उन दिनों बालासाहब के काफी निकट के तो थे ही ,साथ ही शिवसेना के मुखपत्र 'दोपहर का सामना' के संपादक भी थे) संजय निरुपम भी बदलते इतिहास को अपनी नंगी आँखों से देख रहे थे,उसी वक्त मराठी सामना के संपादक संजय राउत (संसद तो हैं ही ,जिनकी चर्चा जोरो पर है )औरंगाबाद के सामना कार्यालय में इस गतिविधियों पर अपनी नज़र गढ़ाए हुए थे.सौभाग्यशाली हूँ कि बालासाहब से मिलाने का भी अवसर मिला. ख़ैर इस पर चर्चा फिर कभी ...
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