चित्रगुप्त वंदना
चित्र-चित्र में गुप्त जो, उसको विनत प्रणाम।
वह कण-कण में रम रहा, तृण-तृण उसका धाम ।
विधि-हरी-हर उसने रचे, देकर शक्ति अनंत।
वह अनादि-ओंकार है, ध्याते उसको संत।
कल-कल,छन-छन में वही, बसता अनहद नाद।
कोई न उसके पूर्व है, कोई न उसके बाद।
वही रमा गुंजार में, वही थाप, वह नाद।
निराकार साकार वह, उससे सृष्टि निहाल।
'सलिल' साधना का वही, सिर्फ़ सहारा एक।
उस पर ही करता कृपा, काम करे जो नेक।
वह कण-कण में रम रहा, तृण-तृण उसका धाम ।
विधि-हरी-हर उसने रचे, देकर शक्ति अनंत।
वह अनादि-ओंकार है, ध्याते उसको संत।
कल-कल,छन-छन में वही, बसता अनहद नाद।
कोई न उसके पूर्व है, कोई न उसके बाद।
वही रमा गुंजार में, वही थाप, वह नाद।
निराकार साकार वह, उससे सृष्टि निहाल।
'सलिल' साधना का वही, सिर्फ़ सहारा एक।
उस पर ही करता कृपा, काम करे जो नेक।
-आचार्य संजीव शर्मा सलिल
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गोत्र' तथा 'अल्ल''गोत्र' तथा 'अल्ल' के अर्थ तथा महत्व संबंधी प्रश्न राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद् का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष होने के नाते मुझसे भी पूछे जाते हैं.
स्कन्दपुराण में वर्णित श्री चित्रगुप्त प्रसंग के अनुसार उनके बारह पत्रों को बारह ऋषियों के पास विविध विषयों की शिक्षा हेतु भेजा गया था. इन से ही कायस्थों की बारह उपजातियों का श्री गणेश हुआ. ऋषियों के नाम ही उनके शिष्यों के गोत्र हुए. इसी कारण विभिन्न जातियों में एक ही गोत्र मिलता है चूंकि ऋषि के पास विविध जाती के शिष्य अध्ययन करते थे. आज कल जिस तरह मॉडल स्कूल में पढ़े विद्यार्थी 'मोडेलियन' रोबेर्त्सों कोलेज में पढ़े विद्यार्थी 'रोबर्टसोनियन' आदि कहलाते हैं, वैसे ही ऋषियों के शिष्यों के गोत्र गुरु के नाम पर हुए. आश्रमों में शुचिता बनाये रखने के लिए सभी शिष्य आपस में गुरु भाई तथा गुरु बहिनें मानी जाती थीं. शिष्य गुरु के आत्मज (संततिवत) मान्य थे. अतः, उनमें आपस में विवाह वर्जित होना उचित ही था.
एक 'गोत्र' के अंतर्गत कई 'अल्ल' होती हैं. 'अल्ल' कूट शब्द (कोड) या पहचान चिन्ह है जो कुल के किसी प्रतापी पुरुष, मूल स्थान, आजीविका, विशेष योग्यता, मानद उपाधि या अन्य से सम्बंधित होता है. एक 'अल्ल' में विवाह सम्बन्ध सामान्यतया वर्जित मन जाता है किन्तु आजकल अधिकांश लोग अपने 'अल्ल' की जानकारी नहीं रखते. हमारा गोत्र 'कश्यप' है जो अधिकांश कायस्थों का है तथा उनमें आपस में विवाह सम्बन्ध होते हैं. हमारी अगर'' 'उमरे' है. मुझे इस अल्ल का अब तक केवल एक अन्य व्यक्ति मिला है. मेरे फूफा जी की अल्ल 'बैरकपुर के भले' है. उनके पूर्वज बैरकपुर से नागपुर जा बसे.
साभार :राष्ट्रीय कायस्थ महासभा
http://kayasthamahaparishad.blogspot.com/2010/02/blog-post_20.html
3 टिप्पणियां:
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चित्रगुप्त जी की वंदना बहुत अच्छी लगी । गोत्र एवं अल्ल के बारे में उम्दा जानकारी , जो मेरे लिए सर्वथा नयी है । इस बेहतरीन आलेख के लिए आभार ।
आज आपकी टिपण्णी से ज्ञात हुआ की आप फैजाबाद के हैं। मेरे भी कुछ वर्ष फैजाबाद में गुज़रे हैं। " Canossa convent में पढ़ी हूँ वहां । " मेरी ददिहाल और ननिहाल दोनों है वहां । आपसे परिचय बहुत अच्छा लगा ।
कायस्थ विषय पर एक लिखा था सितम्बर २०१० में । समय निकालकर एक नज़र अवश्य देखिएगा।
http://zealzen.blogspot.com/2010/09/zeal_14.html
Thanks and regards ,
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बचपन से ही कायस्थ कन्यायें मेरी मित्र रही हैं.....
चित्रगुप्त जी की वंदना दिलचस्प है।
आपकी लेखनी को नमन......
प्रदीपजी । पहले तो चित्र देखा जिसमें आप कुछ नोट कर रहे है। फिर चित्रगुप्त वंदना पढी । सलिल जी के ब्लाग पर से भी नोट की थी।
गोत्र को अल्ल इधर नहीं बोलते गोत्र ही बोलते है। पहले शादी में चार गोत्र मिलाते थे। जाति के सम्बंध में भी कहीं कही मिलता है कि निवास स्थान के आधार पर जातियां बनी । खैर प्रणाम पर्यटन ब्लाग आपका खुल नहीं पाया ।,
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