प्रदीप श्रीवास्तव
आज 21 सितम्बर है,कहते हैं कि आज "भारतीय चाय दिवस" है. इसका कारण मुझे अभी तक समझ में नहीं आया .सुबह से खोज रहा हूँ,कई लोगों से पूछा भी ,लेकिन समाधान नहीं हो पाया .चाय की कथा भी भक्तिकाल के भक्त- कवि तुलसीदास के कथन ‘हरि अनन्त, हरि कथा अनन्ता’ जैसी ही है. इसका इतिहास वाकई काफी रोचक है. भारत में तो चाय को लेकर एक जुनून है और इसके नाम से ही चाय पीने की तलब सी पैदा हो जाती है. सामाजिक समरसता का भी उदाहरण है चाय, क्योंकि क्या गरीब क्या अमीर, क्या राजा क्या प्रजा और क्या नेता और क्या अभिनेता, सभी चाय के तलबगार हैं. संबंधों तक में चाय ने पैठ बना ली है. किसी के घर जाओ और चाय न मिले तो उसे अनादर माना जाता है. लोग कहते मिल जाएंगे कि ‘मैं उसके घर गया और उसने चाय तक नहीं पूछी.‘यानी उसकी बेज्जइती हो गई. एक समय था जब गांव वाले अपने बच्चों को चाय नहीं पीने देते थे. वे बच्चों को डराते थे कि चाय पियोगे तो तुम्हारा ‘कलेजा’ जल जाएगा. लेकिन अब चाय के साथ मसला क्रांतिकारी हो चुका है. ऐसा माना जाता है कि करीब 80 प्रतिशत भारतीयों की सुबह की शुरुआत गरमा-गरम चाय की प्याली से होती है. काम में मन न लग रहा हो, सिर या शरीर में दर्द हो, नींद को दूर रखना हो या वक्त ही बिताना हो तो चाय जैसी कोई चीज नहीं.
चाय का मैं भी बचपन से शौकीन हूँ या यह
कहिये कि 'लत' सी लगी हुई है
.बिना चाय पिये रह नहीं सकता ,चाहे खाना न मिले.
यह लत कैसे लगी इसका कारण आज तक नहीं पता लग पाया . बचपन से ही चाय का आदि रहा हूँ.
अम्मा से चाय बनाने के लिए कभी नहीं कहा कि 'अम्मा
चाय बना दो, बस एक इशारे पर अम्मा समझ जाती थीं,और
बुदबुदाते हुए बिना किसी न-नुकुर के बना देती. गुस्सा भी बहुत होती थीं . ईशारा होता
था , दायें हाथ के अंगूठे एवं बीच की अंगुली को लगभग आधे इंच की दूरी के बीच रख कर
ईशारा करना ,जिसे वह समझ जाती थी की मुझे चाय की तलब लगी है. मज़े की इसका
ईशारा होता था कि 'आधी कप चाय'.
इसके लिए बाबू बहुत गुस्सा करते थे अम्मा
पर , की इतना चाय पीता
है ? क्यूँ बना कर देती हो. बाबू ही नहीं भाई बहन भी उन पर नाराज़
होते . ख़ैर जब बनारस पढ़ने गया तो ,खुद
ही बना कर पीने की आदत हो गई .फिर तो रोकने-टोकने वाला था ही नहीं .पर दूध तो महंगा
ही था मेरे लिए. फिर भी जो दूध आता था उसी में भरपूर चाय पीता भी और पिलाता भी .तब
फ्रिज़ तो था नहीं दूध को शाम तक चलाना है,जिसके
लिए एक बड़े बर्तन में पानी भर कर उसमें दूध वाला बर्तन रख देते ,ताकि
वह गर्मी से फट न जाये. क्यों कि बनारस में हम दोनों भाई अकेले रहते थे ,तो
दोस्तों का जमावड़ा भी रहता था. जिसका मन हुआ ,उठा
और चाय बनाकर पिया और पिलाया . कभी-कभी छोटा भाई दुखी होकर दूध के बर्तन को ऊपर बने
टाड छिपा कर रख देता. जब दोस्त पूछते की दूध कहाँ रखा है ,हम
लोगों के कहने पर कि आज नहीं आया .इस पर वह विश्वास ही नहीं करते , पूरे
घर को सी.बी.आई /सी.आई .डी. की छापे की तरह छान मारते. मिल जाने पर इतना खुश होते कि
मानो कहाँ की जन्नत मिल गई हो.
सही बोलूं तो चाय के लिए रात मैं पढ़ने का भी बहुत नाटक किया है . चाय के लिए देर रात तक जागता था ,उस समय हम लोगों के पास एक छोटा सा ‘स्प्रिट का स्टोव’ (बहुत से लोगों को इसके बारे में पता भी नहीं होगा, इसमें मिट्टी का तेल / केरोसिन नहीं,स्पिरिट डाल कर जलाया जाता था.) होता था ,जिस पर एक छोटे से पतीला या यूँ कहें भगौना में चाय बनानी होती थी. इस स्टोव को मेरे मामा ने अम्मा को दिया था, जब मेरी छोटी बहन का जन्म हुआ था, रात-बिरात पानी या दूध गर्म करने के लिए . सच में बहुत अद्भुत था वह स्टोव. उसके बाद से पांच दशक हो गए कहीं मुझे नहीं दिखा उस तरह का स्टोव.
हाँ बात चाय की हो रही थी, काफी समय बनारस में बीता,तो चाय की अड़ी पर इकठ्ठा होना , हर मुद्दे की चर्चाओं में प्रतिभागी बनना भी कोई आसान कम नहीं होता था. एक कप चाय के लिए लंका क्या रामनगर किले तक चले जाया करते थे ,तब स्कूटर /मोटर साइकिल तो होती नहीं थी,वही साइकिल ही तो था जीवन का आधार . सभी मित्र चाय के दीवाने ,अगर कहीं जाना होता (उन्हें या मुझे) तो ऑफर दिया जाता कि चाय के साथ समोसा भी खिलाऊंगा .फिर क्या दस-पांच किलोमीटर की साइकिल यात्रा पक्की ,चालक भी पक्का. लहुराबीर पर गायत्री मंदिर के बगल, क्वींस कालेज के कार्नर ,प्रकाश टाकिज परिसर ,कबीर चौरा पर पिपलानी कटरा के बगल ,नगरी नाटक मंडली के सामने ,मैदागिन,गोदौलिया पर बंगाली दादा की दुकान ,अस्सी,सोनारपुरा ,भदैनी ,बीएचयू गेट .सिगरा,पर चाय की अड़ी तो लगाती ही थी,जहाँ पर बुद्धिजीवियों का जमघट लगता,जिसमे कवि होते ,पत्रकार होते , विभिन्न राजनितिक पार्टियों के नेता होते ,देश दुनिया की समस्यों का समाधान चुटकी बजाते ही कर लिया जाता ,जिस अख़बार ने समाचार नहीं छपा उसके रिपोर्टरों व संपादकों को बैठे तमाम बनारसी उपाधियों से सम्मानित कर दिया जाता. अगले दिन उसी सम्पादक के केबिन वही उपाधि देने वाले महानुभाव अपना समाचार हो या रचना लिए अनुनय-विनय करते दिख जाते. अगर उस दिन छप गई तो वह रिपोर्टर या संपादक से बड़ा पत्रकार पूरी दुनिया मैं होता था. उनकी प्रसंशा में इतने कसीदे पड़े जाते की पूछिये मत. बात जो भी हो चाय का ही कमाल होता था, सभी को जोड़ने का ,परखने का ,भाई-चारे को बनाये रखने का.
काशी विद्यापीठ में पढ़ता था, मुख्य गेट के सामने ठकुराइन चाची की चाय की दुकान तो थी ही,जिसके बारे मैं आपन पढ़ा ही है ,इधर समाज विज्ञानं संकाय के ठीक पीछे एक छोटी सी चाय की अड़ी (दुकान) खुली थी .वहां पर छात्रों का भरी जमघट लगता था. उन्हीं दिनों वाराणसी कैंट स्टेशन से मैमूरगंज त्रिमुहानी (तिराहे) तक सड़क के बीच डिवाइडर (सड़क विभाजक) बना था, समाजविज्ञान संकाय किए पीछे वाली चाय की दुकान बहुत छोटी सी थी,जहाँ खड़े होने की क्जगाह नहीं थी ,बैठने की सोचना ही छोड़ दीजिये. उस डिवाइडर पर बैठ कर चाय पीने की परंपरा भी हमी लोगों ने की थी. अब तो शायद वह चाय की दुकान भी नहीं रही.
बताता चलूँ कि चाय की अड़ी पर बैठने की वजह से मुझे ‘आज’ अख़बार की नौकरी मिली थी. हुआ यूँ कि काशी विद्यापीठ अर्थशास्त्र में एम.ए करने के बाद वहीँ से पत्रकारिता में स्नातक किया ,जुलाई का महिना था ,रिजल्ट निकल चुका था,पास भी हो गया था. रोज की तरह एक शाम लहुराबीर पर क्वींस कालेज के मोड़ वाले अड़ी पर ऍम सभी चाय पी रहे थे ,तभी उधर से अपनी स्कूटर पर ‘आज’अख़बार के संपादक श्री पाठक जी गुजर रहे थे ,तभी उनकी निगाह मेरे आर पड़ी , वह रुके और पूछा की यहाँ क्या हो रहा है, रिजल्ट कैसा रहा . उन दिनों वह काशी विद्यापीठ पत्रकारिता विभाग के मुखिया भी हुआ करते थे. मैं रिजल्ट के बारे मैं बताया ,और उनसे चाय पिने का आग्रह भी किया,लेकिन उन्होंने मन करते हुए कहा की कल सुबह ठीक 11 बजे मुझे अख़बार के आफिस में आ कर मिलो. दुसरे दिन मैं उनके बताये समयनुसार ‘आज’ अख़बार के कार्यालय में मिला ,तो आज तक वही कलम घिस रहूँ.
चलते-चलते चाय के इतहास पर तो नज़र डाला ही नहीं, बाबु
बताते थे कि अग्रेजों ने ही भारतियों क चाय की लत लगाई .चालीस-पचास के दशक नें हर सुबह फैजाबाद (अब
अयोध्या) में पीतल के कैन मैं बनी-बनाई चाय भर कर हर मोहल्ले मैं मुफ्त वितरित किया जाता, इस
तरह से जाते-जाते अंग्रजी प्रशासन ने चाय की आदत हम भारतियों मैं लगाई .
लेकिन ये भारतीय पेय नहीं है ,यह
तो चीन से आई है इस संदर्भ में यह प्रसंग काफी रोचक और अनगढ़ है. कहते हैं कि चाय
की खोज ईसा पूर्व 2737 में चीन के सम्राट शेन नुंग ने की. वह उबला पानी पीते थे, एक
बार लाव-लश्कर के साथ जंगल से गुजर रहे थे. रास्ते में आराम के वक्त पीने के लिए पानी
उबाला जा रहा था कि बर्तन में पेड़ की कुछ पत्तियां गिर गईं, जिससे
पानी का रंग बदल गया. इसे पिया गया तो ताजगी महसूस हुई. इसे ही चाय कहा गया. लेकिन
उसके बाद करीब 2 हजार साल तक ये ‘चाय’ चीन
में नदारद रही जो विस्मय पैदा करता है. वहीं दूसरी कथा के अनुसार छठवीं शताब्दी में
चीन के हुनान प्रांत में भारतीय बौद्ध भिक्षु
बोधि धर्म बिना सोए ध्यान साधना करते थे. वे
जागे रहने के लिए एक ख़ास पौधे की पत्तियां चबाते थे और बाद में यह पौधा चाय के पौधे
के रूप में पहचाना गया.
2 टिप्पणियां:
बहुत अच्छा आलेख। अपना सा लगा यह संस्मरणात्मक आलेख।
आप का बहुत-बहुत आभार .
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